अलविदा, नीति घाटी के शेर धन सिंह राणा …

श्रद्धांजलि- धन सिंह राणा-हिमालय का प्रहरी

प्रेम बहुखंडी की कलम से

अविकल उत्तराखंड

नीति घाटी। शायद बात वर्ष 1998 की है, मैंने JNU में एडमिशन लिया ही था, कि देहरादून में हम जिस ग्रुप के साथ जुड़े हुए थे उस ग्रुप को उत्तराखंड के वन संघर्षों को डॉक्यूमेंट करने और उनको एक मंच पर लाने के लिए एक फ़ेलोशिप मिल गई. मेरे पास JNU में एक शानदार कमरा था, इसलिए उत्तराखंड के अनेक लफ्फाजों का मेरे कमरे में ‘यूँही पड़े’ रहना लाजमी था, ये सब मेरे कमरे में बैठकर, देश दुनिया बदलने की बातें करने लगे। अब बात करने में और काम करने में फर्क होता है इसलिए तय हुआ कि इस फ़ेलोशिप के तहत, वनों के साथ संघर्ष कर रहे समूहों के साथ पहला संपर्क मैं ही करूँगा, चूंकि वन मेरी पीएचडी का हिस्सा भी था तो मेरे लिए लफ्फाजियों के साथ साथ, गहन शोध का मौका भी था। 

उत्तराखण्ड में जब भी वन संघर्ष की बात होगी तो चिपको, सुंदर लाल बहुगुणा, चंडी प्रसाद भट्ट, गोविन्द सिंह रावत, गौरादेवी, रैनी गांव, लाता गांव, और धन सिंह राणा का नाम तो सबसे पहले लिया ही जायेगा, तो तय हुआ कि सबसे पहले नीति घाटी में जाकर, धन सिंह राणा जी से मिला जाये, उस वक्त वे लाता गांव के प्रधान भी थे, और मैं अपनी यामाहा मोटर साइकिल से चल दिया लाता गांव; पहली बार जा रहा था इसलिए मोटर साइकिल जोशीमठ में खड़ी करके, फिर वहां से जीप से उनके गांव तक पहुंचा। 

एक ठेठ पहाड़ी, ग्रामीण – आदिवासी समुदाय का व्यक्ति, कम ऊंचाई और लम्बी मूछें, गर्म उनी कोट पहनता हुआ, खेत में बैठा मिला, मैंने अपना परिचय दिया और उन्होंने पूरी आत्मयिता के साथ, मेरा स्वागत किया. उसके बाद उनसे लगातार कई साल तक मिलना लगा रहा। 

चूंकि JNU का मेरा कमरा तो लफ्फाजों के साथ साथ उत्तराखण्ड के कुछ क्रांतिकारियों का भी अड्डा था तो धन सिंह राणा भी अक्सर JNU आते रहते थे। एक बार इंडियन माउंटेन फोरम ने, नन्दा देवी क्षेत्र में पर्यटन और पर्वतारोहन के सम्बन्ध में एक कार्यक्रम दिल्ली में करवाया। 

उस कार्यक्रम के लिए धन सिंह राणा जी को भी बुलाया था क्योंकि नंदा देवी का रास्ता तो इनके गांव से ही जाता था, ये अपने ठेठ पहाड़ी रूप में पहुंचे, और गढ़वाली मिक्स्ड हिंदी में बोलने लगे तो आयोजकों ने इन्हें टोक दिया और एक तरह से इनका अपमान सा कर दिया, जो हमें बुरा लगा. अगले दिन हमने एक पॉवर पॉइंट प्रेजेंटेशन बनाया और उसको अनेक भाषाओँ ( जो भी JNU में पढाई जाती हैं) में ट्रांसलेट किया और दुबारा से उनकी मीटिंग में पहुँच गये, और वहां जमके हंगामा किया और उस मीटिंग को होने नहीं दिया। 

आई एम एफ के उस वक्त के अध्यक्ष, नाम याद नहीं है, का एक डायलॉग मुझे याद है- उसने कहा था- ‘English is my First Language, French is my Second Language, of course I Know Hindi’; इस पर धन सिंह राणा जी ने कहा था कि भाषाएँ भले ही हमें कम आती हों पर हिमालय हमारे ही पास है। मेरी वन अधिकारों के प्रति समझ का मुख्य आधार धन सिंह राणा जी से बातों के आधार पर ही बना, उसके बाद मैंने देश दुनिया के अनेक लोगों से इस सम्बन्ध में बात की, पढाई की, पीएचडी की लेकिन आधार तो लाता गांव में हुई चर्चाएँ ही बनी।

धन सिंह राणा जी के साथ अनेक यात्राएँ की, पहाड़ के विकास, विशेषकर सीमावर्ती क्षेत्रों के विकास के संबध में वो बहुत स्पष्ट सोच रखते थे, उनके पास ज्ञान का भण्डार था, और अपार नेतृत्व क्षमता, वो 14-15 साल की उम्र में, गौरा देवी के नेतृत्व में चिपको आन्दोलन में गीत गाते थे और 40 वर्ष की उम्र में, छीनों झपटो आन्दोलन के नेता के रूप में (इस आन्दोलन में गौरा देवी भी थी) नंदा देवी बायोस्पयर क्षेत्र में स्थानीय लोगों के हक़ हकूक के लिए लड़ रहे थे और जीवन पर्यंत वनधिकारों के लिए लड़ते रहे।

अपसोस यह है कि वे नीति घाटी से बाहर नहीं निकल पाये, हमारे राज्य की विधान सभा में नहीं पहुँच पाये. उसके दो बड़े कारण मुझे दिखाई देते हैं पहला कि वो वर्तमान राजनीति के खोखलेपन के लिए नहीं बने थे, संभवतः कोई राजनीतिक दल उनकी ईमानदारी और नेतृत्व क्षमता को झेल न पाता और दूसरा कि वो कुछ लफ्फाजों और गैर जिम्मेदार लोगों के जाल में फंस गये।

नीति घाटी के शेर को मेरी विनम्र श्रद्धांजलि

Photo: लाता गांव की एक छत पर, लाल घेरे में धन सिंह राणा और हरे घेरे में yours truly- Prem Bahukhandi, मेरे बगल में पीपल कोटी के शेर Jagdamba Prasad Maithani Bhumesh Bharti

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