अस्कोट-आराकोट अभियान-2024 की प्रारंभिक रिपोर्ट जारी

…आदि कैलास क्षेत्र के पर्यावरण और  समाज की संस्कृति के लिए खतरा क्यों बढ़ा

शांत नारायण आश्रम का इलाका कहीं चिल्लपों वाले पर्यटन केंद्र में न तब्दील हो जाय

धौली में 56 मीटर ऊंचा बांध बना और तवाघाट में गर्मी बढ़ी…

अविकल उत्तराखण्ड

देहरादून। अस्कोट आराकोट अभियान के सदस्यों ने दून में यात्रा के बाबत अपने अनुभव साझा किए। छठे अस्कोट-आराकोट अभियान उद्गम से संगम की।थीम पर आधारित रहा।

दून लाइब्रेरी व शोध केंद्र में शहर के प्रबुद्घ वर्ग की मौजूदगी में इस अभियान की प्रारंभिक रिपोर्ट (अस्थाई) जारी की गई।

अस्कोट-आराकोट अभियान के संस्थापक प्रो. शेखर पाठक, प्रो. गिरिजा पांडेय के साथ कई युवा साथियों ने 1150 किमी की कठिन पैदल यात्रा पूरी की। अभियान की डॉक्यूमेंट्री भी बनाई गई है। जिसकी प्रोड्यूसर तान्या नेगी है।

पहाड़, अस्कोट आराकोट अभियान 2024 दल के प्रोफे.गिरजा पांडे ने अस्कोट-आराकोट अभियान-2024 प्रारंभिक रिपोर्ट (अस्थाई) सार्वजनिक की।

अस्कोट-आराकोट अभियान-2024 प्रारंभिक रिपोर्ट (अस्थाई) 10 जुलाई 2024

अस्कोट-आराकोट अभियान की छठी और इस सदी की तीसरी यात्रा का आगाज 25 मई, 2024 को पिथौरागढ़ जिले के तिब्बत और नेपाल से लगे पांगू गांव से हुआ। गांव के स्यांगसे गबला मंदिर से रं समुदाय के लोगों ने यात्रियों को परंपरागत तरीके से विदा किया।

अभियान का समापन 8 जुलाई को हिमाचल प्रदेश से लगे उत्तरकाशी जिले के आराकोट कस्बे में पांगू जैसे ही आत्मीय माहौल में हुआ। 45 दिन के इस अभियान में इस बार दो सौ से ज्यादा लोगों ने हिस्सेदारी की।

अभियान में शामिल 12 सदस्यों ने पूरे 45 दिन की पदयात्रा की। जबकि, शेष सदस्य अलग अलग स्थानों में कुछ दिन के लिए यात्रा से जुड़े। दल इस दौरान 350 गांवों, 36 नदियों के जलागम क्षेत्रों, 16 बुग्यालों से गुजरा। शोध छात्र, सामाजिक कार्यकर्ता, प्राध्यापक, पत्रकार, रचनाकार, फोटोकार, घुमक्कड़ समेत कई विधाओं से जुड़े लोगों ने उत्तराखंड के इस दूरस्थ समाज से इस दौरान साक्षात्कार किया।

अभियान के दौरान, यात्रा मार्ग में साथियों ने अपने अपने नजरिए से समाज, पर्यावरण, राजनीति, रहन-सहन और परंपराओं को देखा और उसका अभिलेखीकरण किया। पिछले पचास वर्षों के, तुलना और निष्कर्षों की व्यापक रिपोर्ट का कुछ समय इंतजार करना होगा। फिलहाल पेश हैं यात्रियों के अनुभव के शुरुआती निष्कर्ष-

समुद्र की सतह से 7300 फीट की ऊंचाई पर बसे जनजातीय गांव पांगू (पोंगगोंग) में अधिकांश लोग सरकारी नौकरियों में हैं। ज्यादातर लोग बाहर बस गए हैं। लेकिन लोकदेवताओं की पूजा के समारोह, सांस्कृतिक उत्सवों ने लोगों की डोर गांव से बांधे रखी है। ऐसे मौकों पर लोगों का सपरिवार गांव आने का सिलसिला बना हुआ है।

पांगू में चारों तरफ घने जंगल और बेशुमार पानी है। हालांकि, इन प्राकृतिक संसाधनों पर आधारित भेड़ पालन, ऊन का कारोबार वाला जनजातीय समाज का परंपरागत जीवन अब नहीं रहा। लेकिन चौलाई, फाफर, राजमा, भट, गेहूं जैसी फसलें अब भी उगाई जाती हैं। 62 के भारत चीन युद्ध से पहले कैलास मानसरोवर यात्रा और तिब्बत के साथ व्यापार का प्रमुख मार्ग पांगू से ही गुजरता था। युद्ध के बाद व्यापार बंद हो गया।

1981 में कैलास मानसरोवर की जब यात्रा दोबारा शुरू हुई लेकिन यह पहले की तरह खुली यात्रा नहीं थी। इसलिए गांव वालों को इससे खास फायदा नहीं हुआ। पिछली सदी के अंतिम दशक में तिब्बत के साथ लिपूलेख दर्रे से व्यापार की अनुमति मिली। लेकिन रं समाज के स्वावलंबन और संपन्नता के पुराने दिन नहीं लौटे।

कोविड के बाद से यह व्यापार भी बंद है। आदि कैलास या फिर क्षेत्र में पर्वतारोहण, पथारोहण के लिए आने वाले लोगों से पांगू की अर्थव्यवस्था को त्वरा मिलती थी। अब काली के किनारे सड़क बन जाने से पांगू अलग-थलग पड़ गया है। केवल नारायण आश्रम जाने वाले यात्री ही पांगू से गुजरते हैं। वे सीधे नारायण आश्रम पहुंचते हैं। आश्रम में पर्याप्त इंतजाम नहीं होने से वापस धारचूला लौट जाते हैं। इस सबके बावजूद पांगू, उत्तराखंड के उन जीवंत गांवों में शामिल है, जहां पलायन का दंश बहुत गहरा नहीं है।

स्थानीय लोग आदि कैलास यात्रा के मौजूदा स्वरूप से नाराज हैं। उनका कहना है कि, आदि कैलास की यात्रा पर आ रही भीड़ से आर्थिक फायदा तो हो रहा है। लेकिन आदि कैलास क्षेत्र के पर्यावरण और रं समाज की संस्कृति के लिए खतरा पैदा हो गया है।

पांगू निवासी जयन्ती ह्यांकी का कहना था कि, आदि कैलास की यात्रा में भक्त नहीं, पर्यटक आ रहे हैं। लोगों का मानना है कि, आदि कैलास को पर्यटन स्थल बना देने से स्थानीय रं संस्कृति पर इसका दुष्प्रभाव पड़ेगा। साथ ही वहां होटल बनाने और हेली यात्रा शुरू करने से स्थानीय रं समाज की आर्थिकी पर इसका विपरीत असर पड़ेगा।

नेपाल के जनजातीय गांव तिंकर में अध्यापिका कंचन बोरा की ससुराल पांगू में है। वे कहती हैं कि, चीन सीमा तक बन रही सड़क निर्माण के मौजूदा तौर-तरीकों को बदले जाने की सख्त जरूरत है। सड़क के लिए भूकंप के लिहाज से अति संवेदनशील जोन-5 के इस इलाके में चट्टानों को तोड़ने के लिए अति शक्तिशाली डायनामाइट का उपयोग किया जा रहा है।

इससे पहले से कमजोर पहाड़ बुरी तरह हिल गए हैं। तवाघाट से धारचूला के बीच चट्टानें खिसकने की घटनाएं आम हो चुकी हैं। जिससे कई घंटों तक सड़क बंद रहती है। काली की घाटी के दूसरी ओर नेपाल में भी सड़क निर्माण का काम चल रहा है। नेपाल के सड़क के निर्माण का मलबा भी काली में डाला जा रहा है।

पांगू से करीब बारह किमी दूर नारायण आश्रम में कुछ साल पहले तक केवल आश्रम और उसके कर्मचारियों के छोटे छोटे घर थे। अब यहां कुमाऊं मंडल विकास निगम का अतिथि गृह खुल चुका है। इन दिनों यहां मिट्टी को बेतरतीब खोदकर पार्किंग का निर्माण हो रहा है। ऐसा लगता है कि, निर्माण की यह गति कुछ ही वर्षों में इस अत्यंत शांत स्थान को चिल्लपों वाले पर्यटन केंद्र में बदल देगी।

आश्रम के प्रबंधक ने बताया कि, आश्रम की पेयजल सप्लाय 1942 में स्थापित किए गए एक हाइड्रम से होती है, जो आज तक कभी खराब नहीं हुआ। जबकि, उत्तराखंड में सिंचाई के लिए बनाए सैकड़ों हाइड्रम कबके खत्म हो चुके हैं। इनके ढांचे मात्र की जगह जगह दिखाई देते हैं।

तवाघाट में दारमा घाटी से आने वाली धौली और काली नदी का संगमस्थल है। लेकिन छिरकिला में बांध बन जाने से तवाघाट में धौली में अब नाममात्र का पानी है। बांध बनने से पहले अंग्रेजी के वी आकार की इस घाटी में कानफोडू शोर मचाने वाली धौली, अब तवाघाट में मृतप्रायः है।

छिरकिला बांध में जमा धौली के पानी को बिजली बनाने के लिए करीब बारह किमी दूर टनल के जरिए ऐलागाड़ ले जाया गया है। यहां भूमिगत पावरहाउस में बिजली बनाने के बाद एक चैनल के जरिए धौली का पानी काली में छोड़ा गया है। ऐलागाड़ में काली-धौली के इस मिलनस्थल में पानी की मात्रा को

देखकर लगता है कि, यही दोनों का संगमस्थल है। तवाघाट में दुकानदार जीत सिंह धामी का कहना था कि, 2005 में छिरकिला में धौली को बांधकर 56 मीटर ऊंचा बांध बनाया गया। तब से तवाघाट में बेतहाशा गर्मी पड़ने लगी है। जब बांध नहीं बना था, तब तक धौली के एकदम किनारे बसे तवाघाट में धौली के कारण ठंडी हवाएं चलती थीं।

धामी का कहना था कि, मानसून में जुलाय से सितंबर तक बांध ओवरफ्लो हो जाने के कारण धौली में पानी छोड़ा जाता है। तब यहां मौसम ठंडा हो जाता है। शेष दस महीने धौली में नदी होने का कोई सबूत नहीं रह जाता है। धौली का पानी ऐलागाड़ पहुंचाने के जो टनल बनायी गई है, उसके निर्माण से स्यांकुरी खेला, पलपला, कार्कीगांव आदि गांवों की जमीन धंस रहा है।

इस इलाके में भारत और नेपाल की निर्माण की सबसे बड़ी मार पड़ी है। सीमा निर्धारक काली नदी पर सड़क भारत की तरफ सड़क को चौड़ा करने के लिए चट्टानों के कटान का मलबा सीधे काली में डाला जा रहा है।

उधर नेपाल की तरफ भी सड़क के काम का मलबा काली में ही डाला जा रहा है। नदी के दोनों किनारों पर बड़े-बड़े बोल्डर एकत्र हो गए हैं। कई स्थानों पर नदी बहुत संकरी हो गई हैं। इन दिनों धारचूला से तवाघाट के बीच सड़क को चौड़ी करने का काम चल रहा है।

चट्टानें तोड़ने का यह मलबा सीधे काली में डाला जा रहा है। यह मलबा बरसात में काली को अवरुद्ध करने का कारण बन सकता है। यह मलबा काली के बहाव को रोकने का कारण बना तो भारत की ओर धारचूला, बलुवाकोट, जौलजीबी समेत निचले इलाकों में कहर बरपा देगा।

जबकि, नेपाल की तरफ दार्चुला समेत कई इलाके इसकी चपेट में आ सकते हैं। चट्टानों को डायनाइट से तोड़ने से, पहले से कमजोर इस इलाके में भूस्खलन बढ़ गए है। धारचूला से तवाघाट के बीच चट्टानों के खिसकने सड़क बंद हो जाना आम बात हो गई है। अभी कुछ ही साल पहले तक भारत से लगे नेपाल के दार्चुला जिले के इस इलाके में सड़क नहीं थी। लेकिन अब दाचुर्ला तक सड़क पहुंच गई है।

दार्चुला से काठमांडू समेत सभी इलाकों के लिए बस, टैक्सियां चलने लगी हैं। भारत के धारचूला समेत इस घाटी के कई इलाकों में नेपाल का ही मोबाइल नेटवर्क चलता है। भारत के लोग नेपाली सिम लेकर अपना काम चलाते हैं। यदि कहीं पर इंडिया की निजी कंपनियों के सिम कार्ड चलते भी हैं तो वह आईएसडी कॉल का पैसा वसूल लेते हैं।

धारचूला की तरह दार्चुला में भी नेपाल के ब्यास घाटी का जनजातीय समुदाय सर्दियों में प्रवास पर आता है। इस इलाके में दोनों देशों के बीच आवाजाही करने के लिए झूलापुल ही एकमात्र साधन हैं। लेकिन अब बलुवाकोट के पास अब मोटरपुल बन रहा है।

इस पुल से तीन महीने बाद बस, ट्रकों, कारों की आवाजाही शुरू हो जाएगी। दार्चुला में नेपाल के फॉर वेस्ट विश्वविद्यालय का परिसर भी खुल चुका है। इससे पहले नेपाली बच्चे शिक्षा के लिए भारत पर निर्भर थे। धारचूला के गोठी स्थित सैन्य क्षेत्र में 700 अस्थायी पोर्टर की भर्ती के लिए यूपी, राजस्थान, बिहार, झारखंड, मध्य प्रदेश के अलावा नेपाल और भूटान के युवक भी आए हैं।

तीस हजार की नौकरी के लिए युवाओं की यह भारी भीड़ देश में रोजगार के दावों की पोल खोल रही थी। भर्ती के लिए आए युवाओं ने बताया कि, यह भर्ती सिर्फ छह महीने के लिए है। बलुवाकोट के पास है गो-घाटीबगड़ गांव गांव दारमा घाटी के गो गांव के लोगों का शीतकालीन प्रवास स्थल है। हालांकि, अब ज्यादातर लोग गर्मियों में भी यहीं रहते हैं।

गांव के निवासी मंगल सिंह ग्वाल ने बताया कि, कुछ ही लोग अब गर्मियों में अपने मूल गांवों में लौटते हैं। इसका सबसे बड़ा कारण यह है कि, दारमा घाटी के हिमालयी गांवों में बच्चों की शिक्षा के लिए इंतजाम दुरस्त नहीं है। धारचूला में भी रं समाज के लोगों ने बताया कि, जिनके बच्चे यहां पढ़ते हैं, वे सालभर धारचूला में ही रहते हैं। घाटीबगड़ के लोग ढाकर गांव के पास प्रस्तावित 165 मेगावाट क्षमता के बोकाङ बांध के विरोध में हैं। उनका कहना है कि, बांध के बन जाने से पहले से ही कमजोर इस इलाके में भूस्खलन का खतरा बढ़ जाएगा। हमारे पुश्तैनी चारागाह, जंगल, लोकदेवता, परियोजना की भेंट चढ़ जाएंगे। जारी…

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