लोक के सांस्कृतिक आलोक के पर्याय डीआर

 पुस्तक समीक्षा  - - बीना बेंजवाल

       हिमालयी राज्य उत्तराखण्ड में लोकनाट्य एवं लोक संगीत की विरासत का संरक्षण करते हुए लोक की सांस्कृतिक समृद्धि को विश्व पटल तक पहुंचाने में डाॅ. डी.आर. पुरोहित का अवदान अतुलनीय है। लोक के सांस्कृतिक आलोक के पर्याय डाॅ. डी.आर. पुरोहित के व्यक्तित्व एवं कृतित्व पर केन्द्रित है पुस्तक 'संस्कृति और रंगमंच के पुरोधा डाॅ. डी.आर. पुरोहित'। चार दशक से पत्रकारिता क्षेत्र में सक्रिय राष्ट्रीय सहारा से 2020 में समाचार सम्पादक पद से सेवानिवृत्त दिनेश सेमवाल शास्त्री द्वारा इस पुस्तक का सम्पादन किया गया है। उत्तराखण्ड की लोक संस्कृति के ध्वजवाहक एवं रंगमंच के पुरोधा डाॅ. पुरोहित पर केन्द्रित यह अभिनंदन ग्रंथ उनके शिक्षा, संस्कृति, रंगमंच एवं साहित्य के क्षेत्र में विशिष्ट योगदान देने वाले बहुआयामी व्यक्तित्व से परिचित कराता है।
     
अपने लोक में दाताराम तथा बुद्धजीवी वर्ग में प्रो. डी.आर. पुरोहित के नाम से ख्यात आपके व्यक्तित्व को लोकानुभूति से संपोषित सांस्कृतिक चेतना ने ही ऐसी विराटता प्रदान की है जिसके विषय में साहित्य, समाज, संस्कृति, रंगमंच, कला तथा शिक्षा जगत से संबद्ध 31 विद्वानों ने अपने-अपने विचार व्यक्त किए हैं। रंगकर्मी के रूप में उन्हें नाटक में लोक का समन्वयक, रंगकर्म के तपस्वी, उत्तराखण्ड के रंगमंच के सिरमौर, नाट्य विधा का एक साधक तथा सोते-जागते नाटक ही नाटक तथा पुरोहित जी.... कुछ बात तो है जैसे आलेखों के माध्यम से जाना जा सकता है तो कला, साहित्य एवं लोक संस्कृति के क्षेत्र में उन्हें कला, साहित्य और संस्कृति के विनीत पथिक, उत्तराखण्डी संस्कृति के पुरोधा, लोकरंग का अद्भुत चितेरा, लोककला का सम्मान, डी.आर.और रम्माण, उत्तराखण्ड की निष्पादन लोक कलाओं के प्रस्तोता और अध्येता, उत्तराखण्ड की संस्कृति के ध्वजवाहक, लोक संस्कृति के गहन अध्येता जैसे विशेषणों से अभिहित किया गया है।
  
बहुआयामी चिन्तन एवं सजग मनीषा के धनी डाॅ. डी.आर. पुरोहित के व्यक्तित्व के विविध पहलुओं को अभिनंदन पुरोहित सर! बलिहारी!!, चलता -फिरता इन्साइक्लोपीडिया, सम्भावनाओं के खोले द्वार, बहुआयामी व्यक्तित्व, आने वाले समय की भूमिका, प्रो.डी.आर. पुरोहित : एक संस्मरण, विनम्रता की प्रतिमूर्ति, पहाड़ी जीवन-दर्शन का जीवंत 'सूक्तदृष्टा' तथा गँवई गंध का गुलाब (कविता) के द्वारा भली-भांति समझा जा सकता है।
       
उत्तराखण्ड के प्रसिद्ध लोक वाद्य ढोल के संरक्षण के प्रति डाॅ. डी. आर. पुरोहित की प्रतिबद्धता ढोल, ढोली और ढोल समर्थक, उत्तराखण्ड में लोक वाद्य और कलाओं के मर्मज्ञ, ढोल सागर और नृत्य परंपराएँ जैसे आलेखों के माध्यम से प्रकट होती है। ढोल वाद्य और ढोल वादकों के लिए किए गए उनके उल्लेखनीय कार्यों पर और भी विशद रूप में लिखे जाने की अपेक्षा है।
  
इस ग्रंथ में प्रो.पुरोहित के शोध-पत्र 'उत्तराखण्ड हिमालय में नन्दा भक्ति एवं राजजात' तथा उनके द्वारा लिखित तीन नाटक 'श्री नन्दा देवी राजजात 2000', 'ढोली ! तू बचा रहा...' व 'देहली देहली फूल' भी अन्त में दिए गए हैं। अंग्रेजी भाषा में दिए गए चार आलेख  शिक्षक, मार्गदर्शक की अहं भूमिका के साथ कलाकारों के प्रति उनकी आत्मीयता को रेखांकित करते हैं। अंतिम चार पृष्ठों में उनकी सांस्कृतिक यात्रा को छवि चित्रों के माध्यम से दर्शाया गया है।

उत्तराखण्ड राज्य की समृद्ध सांस्कृतिक विरासत के संरक्षण में अपना अप्रतिम योगदान देने वाले प्रो.डी.आर. पुरोहित के अवदान को समग्र रूप से एक ग्रंथ में संजोकर पाठकों तक पहुंचाने की दिनेश सेमवाल शास्त्री जी की यह पहल अभिनंदनीय एवं अनुकरणीय है‌। यह पुस्तक डाॅ. पुरोहित के व्यक्तित्व के सांस्कृतिक पक्ष के साथ-साथ कलावंतों के प्रति उनके मानवीय पक्ष को भी उजागर कर उनमें सामाजिक सरोकारों से जुड़े साधारण जीवन शैली वाले असाधारण व्यक्तित्व के दर्शन करवाती है।

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