हिंदुस्तान, जागरण व सहारा के पूर्व संपादक 70 वर्षीय सुनील दुबे जी लंबे समय से बीमार थे। 23 अक्टूबर को लखनऊ में ली अंतिम सांस। अपने पीछे पत्नी, बेटे व बेटी को छोड़ गए।
अविकल थपलियाल
…ऐ पहाड़ी कुछ दिन मन लगा। तुझे लखनऊ ले चलूंगा। बस पटना में मन लगाना थोड़ा कठिन है। तू पहाड़ से आया है। वहां के मौसम और बिहार के मौसम में बहुत फर्क है। मन लगा…मन लगा । हिंदुस्तान का लखनऊ संस्करण खुलते ही तुझे साथ ले चलूँगा। 25 साल पहले दुबे जी के ये शब्द आज भी मेरे कानों में गूंजते रहते है। और अपने वचन के पक्के सुनील दुबे जी एक साल बाद मुझे लखनऊ ले गए।
पटना से दुबे जी समेत कुल जमा आठ लोग थे। जो एक ही दिन श्रमजीवी एक्सप्रेस में सवार होकर लखनऊ पहुंचे। अशोक सिंह जी, नागेंद्र , आनंद रस्तोगी, वीरेंद्र सिंह, भूपेंद्र, नासिर जी और मैं। हालांकि, पटना से लखनऊ जाने के लिए लंबी लाइन थी, बावजूद इसके उन्होंने मुझे अपनी टीम में जगह दी।यह बात जुलाई-अगस्त 1996 की है। लखनऊ से हिंदुस्तान की लॉन्चिंग होनी थी। दुबे जी के कुशल निर्देशन में हिंदुस्तान ने अक्टूबर 1996 में लखनऊ में कदम रखा। पहले संस्करण में पूरी टीम ने रात भर काम किया। और सुबह 5 बजे घर के लिए रवाना हुए।
लखनऊ हिंदुस्तान की जो टीम उन्होंने चुनी उसकी लोग आज भी तारीफ करते है। सभी युवा साथी जोश से भरपूर। सभी अपने अपने काम में माहिर। हँसमुख व जिंदादिल टीम। संपादकीय हाल में काम के साथ साथ गूंज रहे ठहाकों से जीवंतता बनी रहती थी। अक्सर 26 जनवरी व 15 अगस्त को लखनऊ के आस पास के पिकनिक स्पॉट में पूरी टीम को सपरिवार ले जाना। पिकनिक पार्टी में ठुमके भी लगाना।उन्होंने पूरी टीम को एक सूत्र, आत्मीयता व अनुशासन में बांध कर भी रखा।
गलती पर अपने चैम्बर में बुलाकर विशेष अंदाज में हड़काना अच्छों अच्छों के पसीने छुड़ा देता था। अक्सर दुबे जी मुंह में कमला पसन्द दबाए मुस्कुराते हुए जब ये बोलते थे कि और प्यारे क्या हो रहा…तो समझो वो दिन सफल हो गया। उनकी डिक्शनरी में विश्वासघाती के लिए कोई जगह नहीं थी। और जिस पर भरोसा किया तो टूट कर करते थे। उसको फ्री हैंड रखते थे।
लखनऊ हिंदुस्तान की लॉन्चिंग के पहले संस्करण में मुझे एक कालम लिखने का मौका दिया। देहरादून ट्रांसफर होने से पहले तक वो कॉलम हफ्ते में लगातार दो दिन छपता रहा। खबरों को भी खूब कवरेज देते रहे।
उत्त्तराखण्ड बनने के बाद जब मैंने भी उनसे देहरादून भेजे जाने की बात कही। पहले तो उन्होंने साफ मना कर दिया। कहा…पहाड़ी लखनऊ में ही रह। वहां तुझे तेरे ही लोग “गंजा” कर देंगे। यानि परेशान कर देंगे। बाद में उनकी यह आशंका मुझे सही भी लगीं। हालांकि, बाद में मुझे देहरादून भी भेजा। तत्कालीन सीएम तिवारी जी के समय देहरादून भी आये। मसूरी व हरिद्वार भी गए। लेकिन अपने साथ आये साथियों को साफ ताकीद कर दिया था कि पहाड़ी (अविकल)का एक भी पैसा खर्च मत करवाना। इतना ख्याल रखते थे। कुछ संपादक ऐसे भी हैं जो मातहत पर ही सारा बोझ डालने से नही चूकते।
दुबे जी ने सहारा, जागरण और हिंदुस्तान के अहम पदों पर बरसों बरस काम किया। मूलतः रिपोर्टर रहे सुनील दुबे जी बहुत ही कम उम्र में संपादक बन गए थे। जितने वो सहज उतनी ही उनकी पत्नी व बच्चे भी। दुबे जी की साप्ताहिक छुट्टी के दिन सुबह से ही उनके पटना व लखनऊ आवास में साथियों का जमावड़ा शुरू हो जाता था। भाभी जी, कजरी व धरणी दिन भर चाय बिस्कुट ही सर्व करते रहते।
दुबे जी के स्वभाव में कभी भी संपादकों वाली ठसक व अतिरिक्त गंभीरता ओढ़ना नहीं झलका। वे हमेशा सहज, सरल व आम आदमी बने रहे। कभी भी संपादकीय बुद्धिमता का आडम्बर नहीँ किया। अक्सर आफिस में कहते थे चलो आज होटल में खाना खाकर आते है। सहकर्मियों से कैसे काम लेना है, ये उन्हें बखूबी आता था। घुल मिल कर काम करना उनका विशेष गुण था। ऐसे संपादक के साथ काम करना मेरे लिए बहुत ही सौभाग्य की बात रही। वे हर किसी को आगे बढ़ने और लिखने का मौका देते थे।
2001 में देहरादून आने के बाद उनके बच्चों की शादी में लखनऊ जाना हुआ था। फोन पर अक्सर बात हो जाया करती थी। कुछ खास मुद्दों उनकी सलाह लेता रहा। मुझ पहाड़ी को उन्होंने बिहार में ब्रेक दिया। बाद के दिनों में तराशा और देहरादून में रिपोर्टिंग करते समय किन-किन खास बातों का ख्याल रखना है । यह इसलिए भी बताया कि बिड़ला जी व शोभना भरतिया अक्सर मसूरी आते रहते हैं।
सुनील दुबे जी ने ही 1995 में जिन पांच पत्रकारों को लिखित व इंटरव्यू के बाद पटना हिंदुस्तान के लिए सलेक्ट किया था उनमें एक मैं भी था। बाकी चारो साथी संदीप कमल, प्रमोद मुकेश, समी अहमद व भोलेनाथ बिहार से ही थे। सिर्फ एक मैं ही उत्त्तराखण्ड से था। इसलिए वो मुझे प्यार से पहाड़ी ही बोलते रहे। बड़े अखबार का पहला ब्रेक दुबे जी ने ही दिया।
आज ही दुबे जी के निधन की दुखद सूचना मिली। पटना से लेकर लखनऊ में उनके सान्निध्य में बिताए कई साल की फिल्म आंखों के आगे घूम रही है। उनके चलने, बोलने और ठहाकों का मस्त अंदाज। बरबस भावुक कर रहा है। कई खुशनुमा यादें जुड़ी हैं उनके साथ। पत्रकारिता के इस सफर में कुछ हल्की सोच, संकीर्ण, शक्की व षड्यंत्रकारी संपादकों से भी वास्ता पड़ा। लेकिन सुनील दुबे जी अलग ही मिट्टी के बने थे। एकदम से पारा चढ़ना फिर उसी गति से शांत भी होना। मुंह पर कह दिया। दिल में कुछ नहीं रखते थे। कद छोटा लेकिन दिल बहुत बढ़ा। संपादक के लिए तय गंभीर फ्रेम में वे कतई फिट नहीं बैठते थे। सुनील दुबे जी जैसे नेकदिल, सरल व बड़े दिल के संपादक हर किसी को नही मिलते। अंतिम प्रणाम सर,,,,ॐ शांति,,,
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