सेक्युलर बनाम कम्युनल- हिमाचल की अवैध मस्जिद और उत्तराखण्ड की केदारनाथ धाम प्रतिष्ठा बचाओ यात्रा
राजनीतिक दल भावनाओं से खेलने के बजाय तय करें कि वे इस ओर हैं या उस ओर
दिनेश शास्त्री/सुन भई साधो – राजनीति की गति न्यारी
अविकल उत्तराखंड
राजनीति बड़ी विचित्र होती है। कभी सिद्धांत की दुहाई दी जाती है तो कभी अचानक 360 डिग्री मुड़ कर सुविधा की दिशा में बढ़ जाती है। आज बात करते हैं सेकुलर और सांप्रदायिक राजनीति की। कांग्रेस देश में सेकुलर राजनीति की पुरोधा मानी जाती है और एक तरह से जब 1976 में बिना संसद की मंजूरी के संविधान में सेकुलर शब्द ठूंसा गया था तो कहना चाहिए कि यह उसका कॉपीराइट है। इसी कॉपीराइट के चलते पिछले सप्ताह कर्नाटक में गणपति पूजन हो रहा था तो धर्मनिरपेक्षता की खातिर गणपति को पुलिस के हाथों जब्त करवा दिया गया था, क्योंकि एक समुदाय विशेष को गणपति पूजन से आपत्ति थी।
ठीक उसी समय उत्तराखंड में कांग्रेस के नेता हिंदुत्व के रक्षक के रूप में खड़े दिखाई दिए जब केदारनाथ प्रतिष्ठा रक्षा यात्रा के तहत बाबा केदार का न सिर्फ जलाभिषेक किया जाता है बल्कि केदारनाथ के क्षेत्रपाल भैरवनाथ के पास अर्जी लगाई जाती है कि सत्तारूढ़ भाजपा को दंड दें। इसी तरह की एक अर्जी 2016 में गोलू देवता के दरबार में भी लगाई गई थी कि जिन्होंने सरकार को अस्थिर करने की कुत्सित कोशिश की, उन्हें दंड दिया जाए। नतीजा आप जानते हैं कि गोलू देवता ने 2017 में प्रचंड जनादेश देकर कांग्रेस को “अखंड विश्राम” दे दिया। इस बार भैरव नाथ के दरबार में अर्जी लगी है तो इसके नतीजे का इंतजार आपको और हमें सबको रहेगा।
एक नज़र पड़ोस में डालते हैं – हिमाचल विधानसभा में वहां के मंत्री अनिरुद्ध सिंह ने एक अवैध मस्जिद का मामला उठाते हुए कहा कि प्रदेश में रोहिंग्या और बांग्लादेशियों की बड़ी संख्या में घुसपैठ हो रही है और सरकार की जमीन पर शिमला के पास संजोली में पांच मंजिला मस्जिद बना दी गई है। देखा जाए तो अनिरुद्ध का यह स्टैंड पार्टी की घोषित नीति के ठीक विपरीत था। जो पार्टी वक्फ बोर्ड को असीमित अधिकार देने की पक्षधर हो, उसका ही एक मंत्री प्रदेश की अस्मिता और डेमोग्राफी चेंज की चिंता में दुबला होता दिखे तो आश्चर्य होगा ही। सरकारी जमीन पर मस्जिद बनी है, यह कोई नई बात नहीं लेकिन इसे तामीर करते वक्त किस – किस ने आंखें मूंदी, यह भी तो देखना चाहिए। राजा वीरभद्र के कार्यकाल के बाद तो पूरे पांच साल जयराम ठाकुर मुख्यमंत्री थे, तब क्यों नहीं इस तरफ नजर डाली गई? यह सवाल पृष्ठभूमि में नहीं धकेला जा सकता। आज सुक्खू सरकार को दोषी ठहराया जा रहा है तो जयराम ठाकुर को बरी कैसे किया जा सकता है। बहरहाल अनिरुद्ध सिंह ने ठहरे हुए तालाब में पूरे वेग से एक पत्थर फेंक कर जो हलचल पैदा की है, उसकी लहरें देर तक उठती रहेंगी और यह तय है कि ये लहरें हिमाचल तक सीमित नहीं रहेंगी।
इनकी प्रतिध्वनि प्रकारांतर से देश के दूसरे हिस्सों में भी सुनाई दे सकती हैं। यहां तक कि बंगाल में भी। अनिरुद्ध सिंह ने जो हलचल मचाई, उसका नतीजा यह हुआ कि पूरे हिमाचल में जहां भी इस तरह की मस्जिद बनाई गई हैं, वहां लोग सड़कों पर उतर आए हैं। वैसे इसका कारण वहां का भू कानून है किंतु दूसरे प्रदेशों में यह स्थिति नहीं है। इसके बावजूद पूरे देश का ध्यान इस ओर गया तो समझा जा सकता है कि उसकी दशा और दिशा क्या होगी?
वापस उत्तराखंड में लौटते हैं। यहां का परिदृश्य यह है कि इस समय सत्तारूढ़ भाजपा सेकुलर दिख रही जबकि कांग्रेस हिंदुत्व की झंडाबरदार। दो चरणों में हुई केदारनाथ प्रतिष्ठा रक्षा यात्रा से तो यही ध्वनित हुआ कि भाजपा धर्म विरुद्ध आचरण कर रही है जबकि कांग्रेस धर्म रक्षक की मुद्रा में है। कांग्रेस इस बात को पूरे जोर से स्थापित करने की कोशिश में रही है। यहां तो उसने पहली बार उन 14 प्रतिशत जनता की परवाह भी नहीं की, जिसके लिए अतीत में उसके कुछ नेता मौलाना का खिताब तक ओढ़ने के लिए तैयार थे। हालांकि सब जानते हैं कि कांग्रेस का यह उपक्रम महज केदारनाथ के आसन्न विधानसभा उपचुनाव के मद्देनजर ही हुआ है। इससे पहले कभी कांग्रेस धर्म स्थल की प्रतिष्ठा के नाम पर सड़क पर नहीं उतरी।
अगर यह उपचुनाव न होता तो शायद ही कांग्रेस इस मुद्दे को लेकर इतनी मुखर होती। इतिहास बताता है कि जो पार्टी सुप्रीम कोर्ट में राम को मिथक ठहरा चुकी हो, उसके द्वारा केदारनाथ के नाम पर फ्रंट फुट पर खेलना कुछ तो निहितार्थ सिद्ध करता ही है।
दूसरी बात यह कि लोग अब भोले नहीं हैं। उन्हें सब पता है कि कौन सनातन का हितैषी है और कौन इस बहाने राजनीति की रोटियां सेंक रहा। सच तो यह है कि इसी प्रहसन का नाम ही राजनीति है और उसका मौका इस बार कांग्रेस को मिला है तो क्यों न वह मुद्दे को भुनाए। कांग्रेस के जो नेता इस अभियान में जुटे थे, उनकी श्रद्धा पर कोई सवाल नहीं उठा सकता। आखिर वे सब भी सनातनी हैं और यह उनका अधिकार है कि सरकार को कठघरे ने खड़ा करें। इस बात से कौन इनकार कर सकता है कि कांग्रेस को छक्का मारने के लिए लूज बॉल भाजपा ने ही तो फेंकी थी।
जहां तक केदारनाथ की प्रतिष्ठा का सवाल है तो वह अविचल, अविनाशी और अनादि है। उसके लिए किसी को दुबले होने की कतई जरूरत नहीं है। केदारनाथ की प्रतिष्ठा की बात इससे आंक सकते हैं कि सितम्बर 15 तारीख तक सवा 11 लाख श्रद्धालु केदारनाथ धाम के दर्शन कर चुके हैं और यह अब तक का सबसे बड़ा रिकॉर्ड है।
यह कहने में कोई संकोच नहीं होना चाहिए कि अंतर्विरोधों से घिरी कांग्रेस ने यह साहसिक कदम उठाया कि राष्ट्रीय नेतृत्व की घोषित नीति के विपरीत किसी धार्मिक स्थान की प्रतिष्ठा बचाने का संकल्प लिया। ऐसे में एक सवाल तो प्रदेश के नेताओं से पूछा जा सकता है कि क्या उन्होंने इसके लिए केंद्रीय नेतृत्व से एनओसी ले ली थी ? क्योंकि उसके इस स्टैंड से देश के दूसरे हिस्सों में पार्टी असहज हो सकती है। कर्नाटक का संदर्भ इसी लिए दिया गया था।
अब एक सवाल भाजपा से भी कि आखिर उसे किस कीड़े ने काट लिया था कि सनातन की मर्यादा के विपरीत यह कहने की क्या जरूरत थी कि जो लोग केदारनाथ नहीं जा सकते, वे दिल्ली में दर्शन कर लें? साफ और खरी बात यह है कि प्रतिष्ठा स्थान विशेष की होती है। केदारनाथ जो ज्योतिर्लिंग है, वह दूसरी जगह नहीं हो सकता। वैष्णो देवी के लिए कटरा होकर ही जाना होगा। दिल्ली या देश के अनेक स्थानों पर वैष्णो देवी के मंदिर हैं लेकिन प्रतिष्ठा वैष्णो देवी की अपने स्थान पर ही है। फरीदाबाद की गढ़वाल सभा ने अस्सी के दशक में अपने परिसर में केदारनाथ और बदरीनाथ मंदिर बनाए थे, यह केवल प्रतीक हैं, जैसे पूर्व सीएम हरीश रावत के कार्यकाल में प्रवासी उत्तराखण्डियों ने मुंबई में बदरीनाथ मंदिर बना दिया था। दिल्ली में गढ़वाल सभा के भवन को भी बदरीनाथ मंदिर बोला जाता है तो वह बदरीनाथ धाम नहीं हो गया है।बहरहाल राजनीति के इस प्रहसन में आम लोग नेताओं से यह दरकार तो करते ही हैं कि वे साफ और खरी बात कर यह बताएं या तय करें कि आखिर वे किस ओर हैं? सेकुलर हो या कम्यूनल? सुविधा के मुताबिक पाले बदलने की छूट जनता नहीं देती, उसे स्पष्टता चाहिए और इसकी स्वाभाविक अपेक्षा भी है।
वरिष्ठ पत्रकार दिनेश शास्त्री
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