न्यायमूर्ति केशव चंद्र धूलिया द्वितीय स्मृति व्याख्यान 24 नवंबर को दून में

13  नवंबर को वाद- विवाद/निबंध प्रतियोगिता आयोजित होगी

अविकल उत्तराखण्ड

देहरादून। न्यायमूर्ति केशव चन्द्र धूलिया कर्मभूमि फाउंडेशन उत्तराखंड ने घोषणा की है कि न्यायमूर्ति केशव चंद्र धूलिया द्वितीय स्मृति व्याख्यान एवं बाद विवाद / निबंध पुरस्कार समारोह 24 नवम्बर देहारादून में आयोजित होगा। एक विशेष कानून जानकार व्याख्यान देंगे ।

निबंध प्रतियोगिता दून लाइब्रेरी देहारादून एवं सोबन सिंह जेना विश्वविद्यालय अल्मोड़ा में 13 नवम्बर को आयोजित की जाएंगी। उतराखंड विश्वविद्यालयों और कालेजों के कानून के छात्र प्रतियोगताओं में भाग ले सकेंगे ।

वाद विवाद और निबंध प्रतियोगताओं के विजेता छात्रों को ट्रॉफी, मेडल एवं नकद पुरस्कार 24 नवम्बर व्याख्यान समारोह के दौरान मुख्य अतिथि द्वारा दी जाएंगी।

न्याय मूर्ति केशव चंद्र धूलिया का जन्म 13 नवम्बर 1929 को पौड़ी जिले के मदनपुर ग्राम में एक संपन्न पुरोहितों के परिवार में हुआ था। पिता पंडित भैरव दत्त धूलिया एक सक्रिय स्वतंत्रता सेनानी थे। उनकी प्राइमरी शिक्षा गांव के समीप बनकंडी स्कूल में हुई। इसके पश्चात वह आगे की शिक्षा के लिए डाडामंडी के मटियाली स्कूल में दाखिले के लिए गये पर क्योंकि उनके पिता एक स्वतंत्रता सेनानी थे तो प्रिंसिपल ने दाखिले से इनकार कर दिया । और उन्हें अन्य आसपास के स्कूलों ने भी दाखिला नहीं दिया, पर वह चलते गए और फिर चेलूसेन के ईसाई मिशनरी स्कूल के हेडमास्टर पीटर ने उन्हें दाखिला दिया।

भारत की आज़ादी के बाद जब उनके पिता जेल से रिहा हुए तब उन्होंने अपनी उच्च शिक्षा इलाहाबाद विश्वविद्यालय से की और बी ए, एम ए (अर्थ शास्त्र) और कानून शास्त्र की डिग्री ग्रहण की। इस दौरान उनका संपर्क उस दौर के कई उच्च श्रेणी के शिक्षकों एवम स्वतंत्रता सेनानियों से हुआ और उन्होंने उन्हें प्रभावित् किया। वह खुद एक सक्रीय छात्र नेता थे और नये भारत में छात्रों की आकांशाओ और समस्यों को लेकर आगे रहते थे।
इसके उपरांत वह लैंसडाउन गढ़वाल वापस आये वकालत करने और और अपने पिता का साप्ताहिक अखबार ‘कर्मभूमि’ में हाथ बंटाने । कुछ वर्षों बाद वह इलाहाबाद हाईकोर्ट में वकालत करने चले गए । वह इलाहाबाद सन् १९६५ में एक छोटा लोहे के ट्रंक के साथ आये और कई वर्ष संघर्ष किया।

वह हाई कोर्ट इलाहाबाद के ‘चीफ स्टैंडिंग कौंसिल’ नियुक्त हुए और बाद में जज। उनके दिल का दौरा पड़ने से १५ जनवरी १९८५ को अकस्मात् मृत्यु से उनके परिवार, मित्र और सहयोगियों को गहरा सदमा पहुंचा।

वह एक सजग और खुले विचार के व्यक्ति थे जिन्होंने विपरीत परस्थितियों के बावजूद एक मुकाम हासिल किया। उन्होंने बतौर जज कई महत्यपूर्ण फैसले दिये, और वह मुकदमों को तेजी में निपटा लेने में निपुण थे। वह दूसरे व्यक्ति थे गढ़वाल से, जो हाई कोर्ट जज बने। और पहले गढ़वाली वकील जो इस ओहदे पर पहुंचे। वह एक ईमानदार, सच्चे, व्यक्ति जो कमज़ोर और मज़लूम के हिमायती थे इस क्षेत्र में अपनी यादें और विरासत छोड़ गए।

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