बैजू बावरा …जब मोहम्मद रफी के गले से खून निकल आया

जब फांसी से पहले अपराधी ने बैजू बावरा का गाना सुनने की आखिरी ख्वाहिश जताई

बैजू बावरा 72 साल.. नौशाद व मीना कुमारी को मिला था फिल्म फेयर अवार्ड

उस्ताद अमीर खान और वी पुलुस्कर के मुकाबले के रिकॉर्ड की कहानी

अविकल उत्तराखंड

देहरादून। बैजू बावरा के हर गीत को नौशाद साहब ने किसी ना किसी राग पर आधारित रखा था। हालांकि नौशाद जब बैजू बावरा का म्यूज़िक कंपोज़ कर रहे थे तब उनके सामने एक चुनौती भी थी। नौशाद चाहते थे कि बैजू बावरा के गीतों में भारतीय शास्त्रीय संगीत को प्रमुखता से जगह दी जाए। लेकिन नौशाद को ये भी पता था कि आम जनता, जिसे शास्त्रीय संगीत सुनने की आदत नहीं थी, वो एक हैवी क्लासिकल संगीत की डोज़ को शायद हजम ना कर पाए।

नौशाद की ख्वाहिश थी कि आम लोग भी शास्त्रीय संगीत को सुनने की आदत डालें। इसलिए उन्होंने एक योजना बनाई। उन्होंने गीतों का संगीत कुछ इस तरह से रचा कि शुरुआती गीत रागों पर आधारित भी रहें, और उनकी ट्यून इतनी हल्की-फुल्की हो कि लोगों को सुनने में मज़ा आए। जबकी आखिर में तानसेन व बैजू के बीच हुए संगीत के महा मुकाबले में उन्होंने विशुद्ध भारतीय शास्त्रीय संगीत रखा। “आज गावत मन मेरो झूमके।” राग देसी पर आधारित इस गीत को उस्ताद अमीर खान और पंडित डी.वी.पलुस्कर ने गाया था।

तानसेन की आवाज़ बने थे उस्ताद अमीर खान। और बैजू को आवाज़ दी थी पंडित डी.वी.पलुस्कर ने। नौशाद ने बहुत सोच-समझकर पंडित डी.वी.पलुस्कर जी को बैजू की आवाज़ के लिए चुना था। कहानी कुछ यूं है कि तानसेन की आवाज़ के लिए तो वो उस्ताद अमीर खान को चुन चुके थे। लेकिन बैजू की आवाज़ के लिए वो किसी ऐसे गायक को लेना चाहते थे जो युवा हो। ऐसा इसलिए क्योंकि फिल्म में तानसेन के सामने बैजू काफी युवा जो था।

नौशाद साहब ने बैजू की आवाज़ के लिए गायक को तलाशना शुरू कर दिया। एक दिन उस वक्त के एक और नामी संगीतकार पंडित शंकरराव व्यास नौशाद को अपने साथ अपने घर ले गए। दोनों के बीच बढ़िया बातचीत हुई। पंडित शंकरराव व्यास के भाई पंडित नारायणराव व्यास भी एक संगीतकार थे। उनका घर भी पास ही था तो शंकरराव व्यास जी नौशाद को नारायणराव व्यास जी से मिलाने भी ले गए। नारायणराव व्यास भी नौशाद साहब को अच्छी तरह जानते थे। और उन्हें ये भी पता था कि नौशाद को बैजू की आवाज़ के लिए किसी गायक की तलाश है।

किस्मत अपना खेल कैसे खेलती है इस पर ध्यान दीजिएगा। जिस दिन नौशाद नायारणराव व्यासजी से मिलने गए थे उसी दिन नारायणराव जी के घर पंडित डी.वी.पलुस्कर भी आए हुए थे। पंडित पलुस्कर पुणे के रहने वाले थे। नारायाणराव जी ने नौशाद और पंडित पलुस्कर का परिचय कराया। फिर उन्होंने नौशाद को बताया कि आज शाम उनके घर पर एक संगीत सभा है। पंडित पलुस्कर भी उसमें गाएंगे। आप भी इन्हें सुनने आईए। क्या पता आप जिस आवाज़ को तलाश रहे हैं वो आपको मिल जाए। उनके बुलावे पर नौशाद शाम को आ गए।

एक इंटरव्यू में पंडित पलुस्कर जी को याद करते हुए नौशाद ने बताया था कि पंडित जी बेहद सादगी भरे व्यक्तित्व के इंसान थे। वो सफेद कुर्ता और सफेद धोती पहनते थे। चेहरे पर हमेशा मुस्कान रहती थी। उनसे कोई भी सवाल पूछो तो वो मुस्कुराते हुए ही जवाब देते थे। उस शाम जब पंडित पलुस्कर ने गायकी शुरू की तो नौशाद उनकी गायकी में खो से गए। पंडित पलुस्कर बहुत खूबसूरती से गा रहे थे। उनका गाना खत्म होने के बाद नौशाद ने उनसे बात की। बात क्या, दरख्वास्त की कि बैजू बावरा में आप मेरे लिए एक-दो गीत गा दीजिए।

मशहूर संगीतकार नौशाद साहब के साथ वरिष्ठ पत्रकार अविकल थपलियाल-राजभवन लखनऊ 2000

पंडित जी ने नौशाद से कहा कि हमने तो कभी फिल्मों में गाया नहीं है। लेकिन आपकी बात हम टालेंगे नहीं। आप अपनी फिल्म में हमसे गवा लीजिएगा। इस तरह उस दिन नौशाद को बैजू की आवाज़ मिल गई। पंडित पलुस्कर जब नौशाद के बुलावे पर रिहर्सल के लिए पहुंचे तो नौशाद ने उनमें एक बड़ी अनोखी बात नोटिस की। वो बात नौशाद ने उनसे पहले किसी और क्लासिकल गायक में नहीं देखी थी। पंडित पलुस्कर हर उस सरगम और तान को अपने पास नोट करके रख लेते थे जो नौशाद उन्हें बताते थे। इससे फायदा ये हुआ कि जितनी भी दफा रिहर्सल हुई, पंडित पलुस्कर एक भी दफा सुर से भटके नहीं। पंडित पलुस्कर और उस्ताद अमीर खां, दोनों साथ बैठकर रिहर्सल किया करते थे।

पंडित पलुस्कर व उस्ताद अमीर खान साहब के साथ नौशाद को जब पहला गीत रिकॉर्ड करना पड़ा था तब भी थोड़ी चुनौतियां आई थी। दरअसल, आमतौर पर क्लासिकल गायक स्टेज पर गाते हैं। उस ज़माने में तो क्लासिकल गायकी स्टेज पर ही अधिकतर हुआ करती थी। फिल्मों में बहुत कम होती थी। क्लासिकल गायक जब स्टेज पर गाते हैं तो उन्हें माइक के बारे में ज़्यादा नहीं सोचना नहीं पड़ता। वो बिना किसी दिक्कत के स्टेज पर लाइव गाते वक्त विभिन्न हरकतें किया करते हैं। खूब झूमते हैं। लेकिन फिल्मी गीत की रिकॉर्डिंग के समय ज़रूरी हो जाता है कि गायक माइक पर ही गाए।

नौशाद ने जब उस्ताद अमीर खान और पंडित डी.वी.पलुस्कर संग पहले गीत की रिकॉर्डिंग शुरू की तो इन दोनों महान गायकों ने अपने स्टेज वाले अंदाज़ में ही गायकी की। इससे दिक्कत ये हुई कि माइक तक आवाज़ सही तरीके से पहुंच ही ना पाए। कई टेक्स करने के बाद आखिरकार नौशाद ने माइकों की संख्या बढ़ा दी। उन्होंने दोनों गायकों के सामने अलग-अलग माइक लगा दिए। साथ ही दोनों के ऊपर की तरफ भी माइक टांग दिए। इससे वो गीत रिकॉर्ड करने में आ रही कठिनाईयां दूर हो गई।

पंडित पलुस्कर जब गाते थे तो तानपुरा पर संगीत भी खुद ही छेड़ते थे। ऐसे ही उस्ताद अमीर खां साहब सुरमंडल साथ लेकर गाते थे। लेकिन गीत की रिकॉर्डिंग के वक्त जब इन दोनों महान गायकों ने अपने-अपने साज़ों पर धुन छेड़ी तो स्पीकर पर वो बहुत तेज़ सुनाई दी। इस स्थिति से निपटने के लिए नौशाद ने दोनों गायकों के शागिर्दों को उनसे साज़ दे दिए। और पास बैठकर उनसे वो साज़ बजाने को कहा। इस तरह उस गाने की रिकॉर्डिंग कंप्लीट हुई। जब बैजू बावरा रिलीज़ हुई तो उस गीत को बहुत ज़्यादा पसंद किया गया था। गीत के बोल थे “आज गावत मन मेरो झूमके। तेरी तान भगवान।”

नौशाद साहब ने एक और किस्सा एक इंटरव्यू में बताया था। वो किस्सा जुड़ा था बैजू बावरा फिल्म के ही एक और मशहूर गीत से जिसके बोल थे “ओ दुनिया के रखवाले। सुन दर्द भरे मेरे नाले।” नौशाद ने ये गीत रफी साहब से गवाया था। ये गीत राग दरबारी पर आधारित है। उस किस्से में नौशाद कहते हैं कि एक दफा उन्होंने एक अखबार में एक खबर पढ़ी। खबर कुछ यूं थी कि देश के किसी शहर में एक अपराधी को फांसी की सज़ा हुई थी। जब उसकी फांसी का समय नज़दीक आया तो उससे उसकी आखिरी इच्छा पूछी गई।

जेल के अधिकारियों को लग रहा था कि वो कैदी किसी से मिलने की ख्वाहिश जताएगा। या अपने पसंद की कोई चीज़ खाने की इच्छा ज़ाहिर करेगा। या कुछ पीने की बात कहेगा। लेकिन उस कैदी ने जो कहा वो जेल अधिकारियों के लिए किसी आश्चर्य से कम नहीं था। कैदी ने अपनी आखिरी ख्वाहिश के तौर पर कहा कि फांसी से पहले वो बैजू बावरा फिल्म का गीत “ओ दुनिया के रखवाले। सुन दर्द भरे मेरे नाले। जीवन अपना वापस लेले जीवन देने वाले।” चूंकि उस कैदी की वो आखिरी इच्छा थी तो जेल में उसके लिए टेप रिकॉर्डर का इंतज़ाम किया गया और वही गाना प्ले भी किया। बाद में उसे फांसी पर लटका दिया गया।

नौशाद बताते हैं कि मोहम्मद रफी ने 15-20 दिन तक इस गाने की रिहर्सल की थी। जिस दिन रफी साहब ने ये गाना रिकॉर्ड किया था उसके बाद कई दिनों तक वो कोई और गाना नहीं गा सके थे। और वो इसलिए क्योंकि इतनी हाई पिच में नौशाद साहब ने उनसे वो गीत गवाया था कि बाद में उनकी आवाज़ बैठ गई थी। नौशाद कहते हैं कि उनसे कुछ लोगों ने बताया था कि वो गाना गाते वक्त रफी साहब के गले से ख़ून आ गया था। लेकिन रफी साहब ने उनसे ऐसा कभी कुछ नहीं बताया था। नौशाद ने ये भी बताया था कि कई साल बाद उन्होंने एक दफा फिर से रफी साहब को लेकर ही ये गाना रिकॉर्ड किया था। और दूसरी दफा रिकॉर्डिंग करते वक्त तो रफी साहब ने पहली दफा से दो सुर ऊपर जाकर ये गाना रिकॉर्ड किया था।

इंटरनेट पर बहुत जगह यही बताया गया है कि बैजू बावरा 05 अक्टूबर 1952 के दिन रिलीज़ हुई थी। इस तारीख पर ज़रा शक है मुझे। क्योंकि इस तारीख को अगर आप गूगल पर तलाशेंगे तो पाएंगे कि साल 1952 की पांच अक्टूबर को तो रविवार का दिन था। जबकी चलन तो हमारे यहां शुक्रवार के दिन फिल्में रिलीज़ होने का है। हालांकि मुझे नहीं पता कि ये चलन कब से शुरू हुआ होगा। ये भी हो सकता है कि उस ज़माने में ये कोई ज़रूरी ना माना जाता हो कि फिल्म शुक्रवार के दिन ही रिलीज़ होनी चाहिए। वैसे भी बैजू बावरा की रिलीज़ की किसी और तारीख का ज़िक्र भी कहीं नहीं मिलता है। इसलिए फिलहाल पांच अक्टूबर को ही बैजू बावरा की रिलीज़ डेट मान लिया जाना चाहिए।

तो इस लिहाज से आज बैजू बावरा को रिलीज़ हुए आज 72 साल पूरे हो चुके हैं। विजय भट्ट द्वारा निर्देशित बैजू बावरा साल 1954 में हुए पहले फिल्मफेयर पुरस्कारों में दो खिताब जीतने में कामयाब रही थी। पहला था बेस्ट एक्ट्रेस अवॉर्ड जो मीना कुमारी जी को मिला था। और दूसरा था बेस्ट म्यूज़िक डायरेक्टर अवॉर्ड जो नौशाद साहब को “तू गंगा की मौज मैं जमना का धारा” गीत के लिए मिला था। (किस्सा tv)

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