आरटीआई दस्तावेजों से खुला स्टोन क्रेशर के नवीनीकरण का राज

नवीनीकरण केवल स्वप्रमाणित शपथपत्रों पर आधारित -मोर्चा

अविकल उत्तराखंड

देहरादून। उत्तराखंड स्वाभिमान मोर्चा ने प्रदेश सरकार पर खनन माफियाओं को खुली छूट देने का आरोप लगाया।

मोर्चा ने कहा कि आरटीआई से प्राप्त दस्तावेजों से साबित होता है कि महज 17 दिनों में 150 से अधिक स्टोन क्रेशर और स्क्रीनिंग प्लांट्स का नवीनीकरण कर दिया गया। आरोप है कि इस प्रक्रिया से 300–400 करोड़ रुपये चुनावी फंड के नाम पर जुटाए गए।

मोर्चा के अध्यक्ष बॉबी पंवार ने बताया कि 2021 में प्रमुख अधिकारी मीनाक्षी सुंदरम ने कोविड-19 और ईज़ ऑफ डूइंग बिज़नेस का हवाला देकर शासनादेश जारी किया।
इस आदेश ने पारदर्शी जांच-पड़ताल को दरकिनार कर नवीनीकरण केवल स्वप्रमाणित शपथपत्रों पर आधारित कर दिया।

पहले नवीनीकरण के लिए पर्यावरण, वन और राजस्व विभाग की अनुमति, साथ ही स्थल निरीक्षण और वीडियोग्राफी अनिवार्य थी। लेकिन नए आदेश के बाद इन सबकी अनदेखी की गई।

मोर्चा ने आरोप लगाया कि इसके बाद राजपाल लेघा और एल.एस. पैट्रिक को जिम्मेदारी सौंपकर 17 दिनों में ही 150 से अधिक नवीनीकरण कर दिए गए। दस्तावेजों से सामने आया कि—

कई आवेदन एक जैसी हैंडराइटिंग में भरे गए।

पर्यावरणीय और राजस्व अनुमति नहीं ली गई।

कई जगह मालिकाना हक तक सिद्ध नहीं था।

कई मामलों में आवेदन, जांच और संस्तुति एक ही दिन कर दी गई।

क्या कहा उत्तराखण्ड स्वाभिमान मोर्चा ने

इस शासनादेश के अनुसार अब स्टोन क्रेशर और स्क्रीनिंग प्लांट्स के नवीनीकरण की प्रक्रिया केवल स्वप्रमाणित शपथपत्रों पर आधारित कर दी गई, जिसमें आवेदक स्वयं घोषणा कर देगा कि सभी नियमों का पालन किया गया है। यह नीति केवल एक महीने के लिए बनाई गई थी लेकिन इस छोटे से समय में खनन का ऐसा खेल खेला गया जिसने पूरे उत्तराखंड को हिला कर रख दिया।

पहले नवीनीकरण की प्रक्रिया बेहद सख्त थी। फर्मों को प्रमाणिक प्रोजेक्ट रिपोर्ट देनी होती थी, पर्यावरण विभाग, वन विभाग और राजस्व विभाग से अनुमति लेनी होती थी, साथ ही एक समिति स्थल निरीक्षण करती थी, वीडियोग्राफी और ड्रोन फुटेज तैयार किए जाते थे ताकि पारदर्शिता बनी रहे। लेकिन धामी के शासनादेश ने सारी पारदर्शिता को कचरे में फेंक दिया और खनन माफियाओं को खुली छूट दे दी।

राजपाल लेघा को नोडल अधिकारी नियुक्त कर पूरी जिम्मेदारी सौंप दी और 21 सितंबर को नवीनीकरण की संस्तुति देने हेतु एक और अधिकारी एल.एस. पैट्रिक को अधिकृत कर दिया। नतीजा यह हुआ कि सिर्फ 17 दिनों में 150 से अधिक स्टोन क्रेशर और स्क्रीनिंग प्लांट्स को नवीनीकरण की अनुमति दे दी गई।

आरटीआई से सामने आए दस्तावेजों ने इस पूरे खेल की परतें खोल दीं। जिन आवेदनों के आधार पर नवीनीकरण हुआ उनमें लगभग एक जैसी हैंडराइटिंग पाई गई, जिससे साफ है कि सारे आवेदन कुछ गिने-चुने लोगों ने भर दिए। कई प्लांट्स की पर्यावरणीय अनुमति खत्म हो चुकी थी या थी ही नहीं, वन विभाग की अनुमति ली ही नहीं गई।


वन विभाग ने कई जगहों को आरक्षित वन भूमि मानकर अनुमति देने से साफ इनकार कर दिया था, बावजूद इसके वहां भी नवीनीकरण कर दिया गया। खसरा-खतौनी में स्वामित्व ही नहीं था, न मालिकों के नाम और न ही किराए या लीज़ का कोई जिक्र। राजस्व विभाग से भी कोई अनुमति नहीं ली गई।


यहां तक कि कई आवेदन पत्रों के सीरियल नंबर तक मेल नहीं खा रहे थे। आलम यह रहा कि कई आवेदनों में जिस दिन आवेदन पत्र भरा गया उसी दिन जांच भी पूरी हो गई और उसी दिन अनुज्ञा की संस्तुति भी कर दी गई।

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