संपादकीय-अविकल थपलियाल
उत्तराखंड में बीते कुछ वर्षों से भर्ती परीक्षाओं में पेपर लीक कांड लगातार सुर्खियों में रहा है। बेरोज़गार युवाओं का गुस्सा और निराशा सड़क पर आंदोलन के रूप में उभरा है। आंदोलनकारियों की प्रमुख मांग यही रही कि इन घोटालों की निष्पक्ष जांच कर दोषियों को कड़ी से कड़ी सजा दी जाए। राज्य सरकार ने प्रारंभिक स्तर पर एसआईटी और विजिलेंस की जांच करवाई, कई गिरफ्तारियाँ भी हुईं, परंतु युवाओं का भरोसा पूरी तरह बहाल नहीं हो सका। यही कारण है कि आंदोलनकारियों ने उच्च स्तरीय सीबीआई जांच की मांग तेज की, ताकि किसी भी राजनीतिक या प्रशासनिक दबाव से परे निष्पक्षता सुनिश्चित हो सके।
आंदोलनकारियों की दूसरी बड़ी मांग भर्ती परीक्षाओं को पारदर्शी और तकनीकी रूप से सुरक्षित बनाने की है। वे चाहते हैं कि परीक्षा प्रक्रिया को डिजिटल निगरानी, सीसीटीवी, बायोमेट्रिक सत्यापन और प्रश्नपत्र सुरक्षित सर्वर के माध्यम से नियंत्रित किया जाए। साथ ही, परीक्षा रद्द होने पर उम्मीदवारों को मानसिक और आर्थिक क्षति की भरपाई के लिए कोई ठोस तंत्र बने। युवाओं का कहना है कि केवल गिरफ्तारी या निलंबन ही समाधान नहीं, बल्कि ऐसी संरचनात्मक सुधार ज़रूरी हैं जो भविष्य में ऐसी घटनाओं की पुनरावृत्ति रोक सकें।
इस आंदोलन की सबसे अहम विशेषता यह है कि इसे युवा वर्ग ने अपनी विश्वसनीयता और भविष्य के सवाल पर खड़ा किया है। यहां किसी राजनीतिक दल का सीधा नेतृत्व नहीं दिखता, लेकिन जनदबाव इतना गहरा है कि सरकार को कदम उठाने पड़े। हालांकि, विपक्ष ने इस आंदोलन को अपने लिए अवसर के रूप में लिया है। कांग्रेस और अन्य दलों ने बेरोज़गारों की पीड़ा को अपनी राजनीतिक रणनीति का हिस्सा बनाया और सरकार पर हमले तेज़ किए। विपक्ष का तर्क है कि राज्य सरकार भर्ती परीक्षाओं को पारदर्शी ढंग से आयोजित कराने में नाकाम रही है और युवा इसके सबसे बड़े शिकार हैं।
लेकिन यहां विपक्ष की भूमिका पर भी सवाल खड़े होते हैं। क्या विपक्ष केवल आंदोलन को हवा देकर राजनीतिक लाभ लेना चाहता है या वह युवाओं के मुद्दों के समाधान के लिए कोई ठोस रोडमैप सामने रखेगा? यह सच है कि लोकतंत्र में विपक्ष का काम सत्ता को कठघरे में खड़ा करना है, परंतु उससे भी बड़ा दायित्व है ठोस विकल्प प्रस्तुत करना। बेरोज़गारी, भर्ती प्रक्रिया की पारदर्शिता और युवाओं का भरोसा बहाल करने के लिए विपक्ष को भी सार्थक सुझावों और नीतिगत पहल पर जोर देना चाहिए।
सम्पादकीय दृष्टि से देखें तो यह आंदोलन केवल पेपर लीक या भर्ती परीक्षाओं की समस्या तक सीमित नहीं है, बल्कि यह शासन-प्रशासन की विश्वसनीयता और युवाओं के भविष्य का प्रश्न है। यदि युवाओं में यह विश्वास बैठ गया कि उनकी मेहनत के बावजूद अवसर बेईमानी से छीन लिए जाते हैं, तो यह समाज और राजनीति दोनों के लिए गंभीर खतरे का संकेत है। सरकार को चाहिए कि सीबीआई जांच की मांग पर सकारात्मक रवैया अपनाए और दोषियों को सख्त सजा दिलाए। साथ ही, परीक्षा प्रणाली में ऐसी पारदर्शिता लाए कि आने वाली पीढ़ियाँ इस तरह के घोटालों का नाम तक न सुनें।
अंततः, पेपर लीक आंदोलन हमें यह याद दिलाता है कि लोकतंत्र में सबसे बड़ी ताकत जनता का विश्वास होता है। यदि यह विश्वास डगमगाता है, तो सत्ता की सारी उपलब्धियाँ बेमानी हो जाती हैं। युवाओं के भरोसे को कायम रखना ही सरकार और विपक्ष दोनों की सबसे बड़ी जिम्मेदारी है।

