सैनिकों का विश्वास है— “साहब आज भी गश्त पर हैं

यादें- महावीर चक्र जसवंत सिंह रावत

शीशपाल गुसाईं की कलम से

उत्तराखंड की पवित्र धरती ने जिस लाल को जन्म दिया—उसका नाम है… राइफलमैन जसवंत सिंह रावत।
वो सिपाही, जो युद्ध में अकेला खड़ा था…लेकिन दिखता ऐसा था मानो उसके पीछे पूरा भारत खड़ा हो।

गढ़वाल की घाटियों में पला वह युवा,जो खेतों की मेड़ों पर दौड़ते हुए बड़ा हुआ…जिसने बादलों के बीच अपना घर देखा…जिसकी धड़कनों में वर्दी का सम्मान बसा था। 4th Garhwal Rifles में भर्ती हुए जसवंत,
1962 की सर्दियों में पहुँच गए अरुणाचल की उन चोटियों पर—
जहाँ हवा भी चाकू की धार जैसी चुभती है,और हर कदम पर मौत का सन्नाटा पसरा रहता है।

17 नवंबर…कैलेंडर का एक दिन,
लेकिन इतिहास के लिए सदियों का अध्याय।नुरानांग की घाटी में चीनी सेना का भारी हमला हुआ।
ऊपर से बरसती गोलियाँ,
सामने दुश्मन के मोर्चे
और बीच में भारत की छोटी-सी टुकड़ी।

दुश्मन की मशीन गन आग उगल रही थी। अगर उसे न रोका जाता,
तो पूरा मोर्चा टूट जाता।
ऐसे समय— जसवंत आगे बढ़े।
साथ थे उनके—त्रिलोक सिंह नेगी और गोपाल सिंह गुसाईं।
तीनों ने मौत की आँखों मेंझाँककर कहा,“हम रुकेंगे नहीं।”

दुश्मन की पोस्ट पर धावा बोला गया। नेगी और गुसाईं वहीं अमर हो गए…लेकिन जसवंत घायल शरीर से भी उस मशीन गन को वापस लेकर लौट आए।
और उसी क्षण तय हो गया—
कि यह सिपाही इतिहास की दिशा बदलने वाला है।

आदेश मिला—पीछे हटने का, लेकिन जसवंत…जसवंत ने कहा,
“जब तक मैं हूँ… दुश्मन आगे नहीं बढ़ेगा।”

और शुरू हुआ—मानव साहस का सबसे अद्भुत अध्याय। 72 घंटे…
लगातार 72 घंटे…अकेला एक सिपाही अलग-अलग बंकरों से गोलीबारी करता रहा।

कभी पहाड़ की ओट से,
कभी कार के बोनेट को ढाल बनाकर, कभी स्टोव की चिमनी से झांसा देकर— उसने दुश्मन को भ्रम में रखा कि पूरा भारतीय दल अभी भी मोर्चे पर तैनात है।

उसकी हर गोली,हर आहट,हर रणनीति—दुश्मन की सेना को रोके रखती रही।

जब चीनी सैनिकों ने अंततः यह जान लिया कि इस पोस्ट पर केवल एक भारतीय सैनिक है,
उन्होंने चारों ओर से घेराबंदी कर दी। जसवंत… अपने घायल शरीर में भी लड़ते रहे… लड़ते रहे…और अंत में भारत माता की गोद में समा गए।

लेकिन कहानी यहाँ समाप्त नहीं होती। जसवंत को मिला—महावीर चक्र। भारतीय सेना ने उन्हें कभी “मृत” नहीं माना।उनकी फाइल आज भी यूनिट में सक्रिय है।
उन्हें निरंतर प्रमोशन मिलता रहा…
और आज वे ‘मेजर जनरल’ के रैंक तक पहुँच चुके हैं।

तवांग और सेला के बीच बना जसवंत गढ़ आज भी उनकी उपस्थिति महसूस करता है।
सुबह की चाय, दोपहर का भोजन, रात का खाना—
आज भी जसवंत के कमरे में परोसा जाता है।
सैनिकों का विश्वास है—
“साहब आज भी गश्त पर हैं।”

दोस्तों…देश की सीमाएँ नक्शों से नहीं सुरक्षित रहतीं,उन्हें ऐसे वीर सुरक्षित रखते हैं—
जिनके कदमों में हिमालय की दृढ़ता,और जिनके दिल में तिरंगे की धड़कन बसती है।

जसवंत सिंह रावत ने सिद्ध किया
कि साहस संख्या नहीं देखता…
साहस केवल संकल्प देखता है।
एक उत्तराखंडी लाल…
जिसने अकेले अपने दम पर
पूरे अरुणाचल को बचाया,
और अपने नाम को अमर कर दिया।

आज हम सिर झुकाकर उन्हें नमन करते हैं। उनकी वीरता को,उनके बलिदान को,और उस धरती को—
जिसने ऐसा लाल जन्म दिया।

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