विद्यार्थियों के जीवन के अनुशासन पर्व ध्यानी जी

स्मृति शेष – वरिष्ठ पत्रकार चंद्रशेखर की कलम से

अविकल उत्तराखंड

नगर पालिका प्राथमिक विद्यालय न.1 कोटद्वार से पांचवीं पास करने के बाद छठवीं कक्षा में प्रवेश करने का दिन आया तो अंदर से इतना डर लग रहा था,जितना पांच साल पहले पहली बार स्कूल जाने में भी नहीं लगा। हलक सूख रहा था, टांगें कांप रही थी। इस खौफ की एक ही वजह थी- राम प्रसाद ध्यानी। उस राजकीय इंटर कॉलेज के प्रधानाचार्य, जिसमें छठवीं कक्षा में हमारा दाखिला होना था।    


अब तो शायद बीच में दीवार खड़ी हो गई है,लेकिन तब हमारा प्राथमिक विद्यालयऔर यह इंटर कॉलेज एक ही परिसर में थे।
हम प्राइमरी स्कूल के बच्चे भी पानी पीने इंटर कॉलेज की ही डिग्गी पर जाते थे। पानी पीने के लिए आते-जाते कई बार ध्यानी गुरुजी को देख चुका था। कभी किसी छात्र के हाथ आगे करवा कर उस पर बेंत प्रहार करते हुए तो कभी किसी को क्लास रूम्स के बाहर के गलियारे में सार्वजनिक रूप से मुर्गा बनाते हुए।


ध्यानी गुरुजी के किस्से इंटर कॉलेज से छन-छनकर बाहर आते और हम प्राइमरी के बच्चों में में भी सिहर-सिहर कर दोहराए जाते थे।   


छठवीं में दाखिला हो गया तो उनका अनुशासनप्रिय रूप और भी प्रत्यक्ष देखने को मिला। कभी अनुशासनहीन बच्चों के कान उमेठते हुए। कभी कॉलेज परिसर से बाहर निकल कर मटरगश्ती करते बच्चों को चीफ प्राक्टर दर्शन सिंह चंद और केमिस्ट्री वाले बृजेंद्र सिंह बिष्ट गुरुजी की टोली को साथ लेकर वापस कॉलेज में खदेड़ते हुए तो कभी सिनेमा हॉलों में भी छापा मारकर स्कूल टाइम में चोरी-छिपे 12 से 3 की मूवी देखने का मजा लेते स्टूडेंट्स को दबोचते हुए।


सिनेमा हॉलो पर उनके छापे से याद आया। उन दिनों पुष्कर टॉकीज (बाद में गढ़वाल टॉकीज) में राजेश खन्ना की कोई लोकप्रिय फिल्म लगी थी- शायद दाग या हाथी मेरे साथी। मूवी देखने के लिए बेतहाशा भीड़ टूट रही थी। ब्लैकियों के मजे थे। 75 पैसे वाला तीसरे दर्जे का टिकट पांच रुपये तक बिक रहा था। हम कुछ साथी चोरी-छिपे ही किए गए पैसों के इंतजाम से स्कूल टाइम में चोरी-छिपे इस मूवी को देखने के इरादे से सिनेमा हॉल में पहुंचे।


ब्लैक में खरीदने की हैसियत नहीं थी तो सिनेमा हॉल मैनेजमेंट और दो-तीन पुलिस वालों के धक्के खाते हुए लाइन पर लग गए। लाइन काफी लंबी थी।


अभी नंबर आने में वक्त था कि इसी बीच हममें से किसी की नजर ध्यानी जी के नेतृत्व में आ रहे चंद जी, बिष्ट जी और हिंदी वाले जखमोला गुरु जी के छापामार दल पर पड़ गई। उसने बाकी सभी को आगाह कर दिया। हम सबने तुरंत मुट्ठी पर थूक लगाया और मिलिट्री कैंप की तरफ खुलने वाले पिछले दरवाजे से निकल कर वहां से रफूचक्कर हो गए। अगले दिन मालूम पड़ा कि उस छापे में सात विद्यार्थी पकड़े गए थे। उन्हें छुट्टी होने तक प्रिंसिपल ऑफिस के बाहर कतार में मुर्गा बनने की सजा का ऐलान हुआ।


मेरा व्यक्तिगत अनुभव- राष्ट्रीय एकीकृत छात्रवृति परीक्षा में मेरा चयन हुआ।
कॉलेज के एक हजार से ज्यादा बच्चों में यह गौरव हासिल करने वाले हम तीन ही बच्चे थे। उस जमाने में शायद बीस रुपये महीना मिलते थे। प्रधानाचार्य साहब खुद तीनों को बधाई देना चाहते थे। मैं कुछ हमजोलियों के साथ दो दिन से क्लास से बंक मार रहा था। मोहन लाल बड़ोला गुरुजी के हाथों मेरे घर पर यह सूचना पहुंचाई गई। तीसरे दिन मैं कुछ अपनी उपलब्धि पर गर्व से भरा और कुछ ध्यानी जी के खौफ से थर्राता हुआ उनके कक्ष में उनके सामने मौजूद था। कक्ष में पहले बेंत के चार प्रहारों से मेरी हथेलियों में खून का दौरा दुरुस्त किया गया, उसे बाद ध्यानी सर ने धौल मार कर मेरी पीठ थपथपाई।    


अगले कुछ वर्षों में हम डिग्री कॉलेज चले गए। पिछली बातें बिसरने लगे। लेकिन ध्यानी गुरुजी का चेहरा हमेशा याद रहा। बी.ए. में मेरे पास मेरा अंग्रेजी साहित्य विषय भी था। मैं उसे पढ़ता हुआ ध्यानी गुरुजी के गौर वर्ण व सुदर्शन चेहरे की तुलना इंग्लैंड के किसी विश्वविद्यालय के प्रोफेसर से करता रहता। वो शायद थे भी अंग्रेजी साहित्य के विद्यार्थी। उनके दफ्तर के बाहर लगी लकड़ी की काली रंग की पट्टिका पर सफेद पेंट से लिखा था- डॉ. राम प्रसाद ध्यानी, एम.ए. (अंग्रेजी, अर्थशास्त्र) पीएच. डी.।
अभी बड़े भाई और वरिष्ठ पत्रकार अनूप मिश्र की फेसबुक वॉल से पता चला ध्यानी गुरुजी 92 वर्ष की अवस्था में अपनी इहलोक यात्रा को पूर्ण कर परलोक गमन कर गए हैं। जीव का आवागमन तो प्रकृति का शाश्वत विधान है, लेकिन उनका चले जाना मेरे जैसे हजारों विद्यार्थियों के लिए सिर से पितृतुल्य हाथ के हट जाने जैसा है। विद्यार्थियों के भले के लिए ऐसी पीड़ा लेने वाले बाहर से लोहा, अंदर से मोम जैसे ऐसे गुरुजन अब अलभ्य हैं। वह एक पीढ़ी के विद्यार्थियों के लिए अनुशासन पर्व थे। विनम्र श्रद्धांजलि।       
    
( डॉ. रामप्रसाद ध्यानी के निधन पर कोटद्वार निवासी एवं दैनिक जागरण लुधियाना व हल्द्वानी के संपादक रहे चंद्रशेखर बेंजवाल ने उनका भावपूर्ण स्मरण किया ।)

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