‘लोकनाट्य स्थानीय लोकगीतों व संगीत के बगैर पूर्ण नहीं’ – डाॅ. राकेश भट्ट

अविकल उत्तराखंड

देहरादून। दून पुस्तकालय के सभागार में उत्तराखंड के लोक रंगमंच पर लोक संगीत और लोक साहित्य का प्रभाव: गढ़वाल अंचल के विशेष संदर्भ में व्याख्यान और संगीत की एक प्रस्तुति सुपरिचित रंगकर्मी डॉ. राकेश भट्ट द्वारा दी गई। मंगलवार को आयोजित कार्यक्रम में डॉ राकेश भट्ट ने उत्तराखंड के परम्परागत लोक रंगमंच में गढ़वाल अंचल के लोकसाहित्य व संगीत के प्रभाव का सम्यक विश्लेष किया।

इसमें उनके साथ शुभम बिष्ट ने ढोलक वादन और आशुतोष ने हुड़का वादन के रुप में संगत की। अपने व्याख्ययन में डॉ. भट्ट ने कहा कि उत्तराखंड राज्य जिस तरह अपनी विशिष्ट भौगोलिक विविधताओं के लिए विख्यात है, जिस तरह वह प्राकृतिक सौन्दर्यता के लिए भी जाना जाता है। यहाँ का इतिहास, लोक रंगमंच और लोक संगीत की विविधतता किसी से छुपी नहीं है। ईश्वर ने जिस तरह यहाँ के मनुष्य को जीवन जीने के लिए भरपूर संसाधन दिए हैं उसी तरह पहाड़ के कठिन जीवन को सहज और सहज बनाने में लोकसंगीत को उतना ही विशिष्ट व बोधगम्य बनाया है।

इसके बगैर यहां का जीवन नीरस व उमंग विहीन लगता है। उत्तराखंड के लोक जीवन से यहाँ के लोकगीत-लोक व संगीत एक प्राण वायु की तरह हैं।उत्तराखंड की लोक गाथाओं का जिक्र करते हुए उन्होंने कहा कि लोक में कहानी,नाटक या अन्य कोई भी लोक साहित्य हो उसमें स्थानीय लोक गीतों और उनकी धुनों का समावेशित हो जाना स्वाभाविक है इसीलिए यहाँ का लोक साहित्य का नाम दुनिया के श्रेष्ठ्तम साहित्य में आता है।

गढ़वाल क्षेत्र के सांस्कृतिक पक्ष खासकर नंदा राज व अन्य देवयात्राओं, पांडव , बगडवाल , राधाखंडीे, बेडा परंपरा, नाग, नरसिंह गायन के साथ ही थड़िया, चैफला, मन्डाण रान्सा के बारे में डॉ. भट्ट ने जानकारी दी कि इन सब में लोक संगीत के गहराई के साथ समावेशित है। यहाँ के लोक नाटक स्थानीय लोक गीत व लोक संगीत के बिना प्राणविहीन हैं। लोक साहित्य या लोक नाटक के विषय वस्तु व् कथोपकथन को नाटकीय बिम्ब प्रदान करने का कार्य यदि किसी ने किया है तो वह यहाँ का लोक संगीत ही है।

लोक नाटकों में लोक गीतों व लोक संगीत के प्रभाव को जानने के लिए इस कार्यक्रम में डॉ. राकेश भट्ट व उनके साथी कलाकारों ने व्याख्यान के मध्य कई परम्परागत लोकगीतों की सार्थक प्रस्तुति दी। इनमें मुख्यतः ‘सँध्या सौरी एगे ते ऊंचा हिंवाला,‘ ‘सेरा का तिर्वाळ नईं डाली पन्यां जामी सेरा का धिसवाळ‘,‘हा रे नाच्यो बुढेलों झुकेलो‘,‘गौरी का पुत्र बलिहारी‘, ‘पेलन मास यू बालू जर्मी‘,‘आज लांदा देवतों तुमारी वार्ता‘,‘पेलो भंडार गौरा देखदी तख देखी सुल्फा तम्बाकू‘,‘जदेऊ जौहार लगौन्दू खोली का गणेश,‘ ‘मोरी का नारेण‘,‘आज लांदा मेरा भायो द्वापर की बात‘ और ‘जीतू त सोबनू छाया गरीबा का बेटा‘ थे। लोक में रचे-बसे इस संगीत से सभागार में उपस्थित लोगों को अपने उस पारंपरिक संगीत से रु-ब-रु होने का एक अवसर मिला जिसने युग युगीन तक अपने नैसर्गिक प्रवाह में रहकर पहाड़ के जन की पीड़ा, विपदा, दुःख, संत्रास, उत्सव, उल्लास, व्यंग्य, श्रृंगार, प्रेम आदि रस भावों को गहनता व सहजता के साथ अभिव्यक्त किया है।

कार्यक्रम के प्रारम्भ में दून पुस्तकालय एवं शोध केंद्र के प्रोग्राम एसोसिएट चन्द्रशेखर तिवारी ने डाॅ. राकेश भट्ट व उनके साथियों व सभागार में उपस्थित जनों का स्वागत किया और अन्त में निकोलस हाॅफलैण्ड ने सभी का आभार व्यक्त किया।

कार्यक्रम के दौरान डाॅ. योगेश धस्माना, बिजू नेगी, सुन्दर सिंह बिष्ट, जगदीश सिंह महर, विजय भट्ट, सुमन डोभाल काला सहित अनेक रंगकर्मी, प्रबुद्ध लोग, इतिहास में रुचि रखने वाले अध्येता, साहित्यकार और लेखक सहित दून पुस्तकालय एवं शोध केन्द्र के युवा पाठक व सदस्य उपस्थित थे।

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