ऋषिकेश में मूल निवास और भू कानून स्वाभिमान रैली में सुलगे पहाड़ के मुद्दे

स्वत: स्फूर्त रैली ने उत्तराखण्ड आंदोलन की याद हुई ताजा

गंगा जल हाथ में लेकर जंग जारी रखने का संकल्प लिया

ऋषिकेश से लौट कर
दिनेश शास्त्री

अविकल उत्तराखंड

ऋषिकेश। मूल निवास और भू कानून स्वाभिमान रैली के जारी सिलसिले ने रविवार को तीर्थ नगरी ऋषिकेश में खासी हलचल मचा दी। ऋषिकेश के आईडीपीएल हॉकी मैदान में हजारों लोग जमा हुए। रैली में महिलाओं की संख्या अप्रत्याशित रूप से ज्यादा थी। उससे एक बार फिर रेखांकित हो गया कि प्रदेश में फिर 1994 का वो दौर शुरू होने वाला है जब हाथ में दरांती लेकर पहाड़ की महिलाएं उत्तराखंड आंदोलन में कूद पड़ी थी।

आईडीपीएल के मैदान से करीब 12 किमी का मार्च करते हुए लोग जब पहली खेप में त्रिवेणी घाट पहुंचे तो एकबारगी लगा कि लोगों का हौसला सीमित ही है लेकिन कुछ ही देर में एक के बाद एक जत्थे त्रिवेणी घाट पहुंचे तो देखते ही देखते हजारों हजार लोग भीषण गर्मी के बावजूद हुंकार भरने लगे। सत्ता प्रतिष्ठान के लिए यह एक तरह से चेतावनी सी लगी कि अब उत्तराखंड के लोग बहकावे में आने वाले नहीं हैं।

इसी के साथ राज्य में नशे की बिक्री पर भी पूरी तरह से प्रतिबंध लगाने की मांग पर जोर दिया गया है। इन्हीं मांगों को लेकर आंदोलन के नेता मोहित ने लोगों की नब्ज पर हाथ रखते हुए कहा कि क्या आपको मंजूर है कि हमारी जमीन पर बने एम्स में बाहरी लोगों को नौकरियां दी जा रही हैं और पहाड़ के नौजवान मुंह ताकते रह गए हैं। अंकिता हत्याकांड के सबब बने उस वीआईपी का खुलासा करने पर भी जोर दिया गया जिसके बारे में विधानसभा में मंत्री प्रेमचंद ने कहा था कि कोई वीआईपी नहीं है बल्कि वीआईपी रूम था।

मंत्री द्वारा सुरेंद्र नेगी की सरेराह पिटाई, शराब माफिया द्वारा योगेश डिमरी की पिटाई, सरकार द्वारा अभी हाल में भू कानून बनाने के वादे और इन तमाम मुद्दों को वक्ता विमर्श के केंद्र में लाने में सफल रहे। हर उस मुद्दे पर लोग हाथ उठा कर नारे लगाते दिखे, जो उनके मानस को छू रहे थे।

ठेठ पारंपरिक वेशभूषा में दिखी महिलाएं

रैली की विशेषता यह रही कि ज्यादातर महिलाएं उत्तराखंड की पारंपरिक वेशभूषा में प्रदर्शन और नारेबाजी करती हुई दिखाई दीं। त्रिवेणी घाट तक निकली स्वाभिमान महारैली में अलग अलग समूह ने महिलाएं एक ही रंग की साड़ी अथवा परम्परागत पोशाक में दिखी। वहां त्रिवेणी घाट पर लोगों ने पवित्र गंगा जल हाथ में लेकर अपनी मांगों के संबंध में लड़ाई जारी रखने का संकल्प भी लिया।

रैली में उत्तराखंड के विभिन्न हिस्सों के पहनावे और लोक संस्कृति के रंग भी खूब दिखे। स्वाभिमान महारैली में आई समाजसेवी कुसुम जोशी ने बातचीत के दौरान कहा कि जिन तीन मांगों को लेकर लगातार उत्तराखंड के लोग आवाज बुलंद कर रहे हैं, वो यहां के अस्तित्व और अस्मिता की रक्षा के लिए नितांत जायज मांगे हैं, लेकिन सरकार उन पर ध्यान देने को तैयार नहीं है। उनका कहना था कि ये सवाल राज्य स्थापना के समय ही सुलझा लिए जाने थे लेकिन राष्ट्रीय दलों ने अपने एजेंडे के चलते इन बुनियादी सवालों को उलझाए रखा।

इसी का नतीजा है कि प्रदेश की अस्मिता के लिए संवेदनशील युवा राज्य के विभिन्न शहरों में स्वाभिमान महारैली का आयोजन करते आ रहे हैं। रविवार को तीर्थनगरी ऋषिकेश में हुई स्वाभिमान रैली के बाद एक बात तो साफ हो गई कि युवाओं ने धामी सरकार को चेताने का काम किया गया है। उनका कहना था कि इस जनसैलाब को देख कर राज्य सरकार की चेत जाना चाहिए। एक संदेश यह भी इस रैली ने दिया कि लोग अब सपनों में नहीं जीना चाहते। बांग्ला को पाठ्यक्रम का हिस्सा बनाने और बंगालियों को आरक्षण की पैरवी किए जाने की भी निंदा की गई।

वक्ताओं ने तो यहां तक कहा कि गढ़वाली, कुमाऊनी और जौनसारी की उपेक्षा की जा रही है और बांग्ला भाषा को पाठ्यक्रम का हिस्सा बनाने की पैरवी किए जाने से सत्ता में बैठे लोगों का चरित्र उजागर हो गया है। रैली में शामिल मनोज गुसाईं ने कहा कि वर्ष 1950 से मूल निवास देने की मांग लंबे समय से की जा रही है। इसके अलावा उत्तराखंड के जल-जमीन-जंगलों को बचाने के लिए सशक्त भू कानून बनाने की मांग भी लगातार जारी है। राज्य में लगातार बढ़ रही नशे के प्रवृत्ति से युवा वर्ग बर्बाद हो रहा है। सरकार से इन तीनों मांगों को पूरा करने के लिए उसका ध्यान आकृष्ट किया जा रहा है।

स्वाभिमान महारैली को लेकर आईडीपीएल से त्रिवेणी घाट तक चप्पे चप्पे पर भारी संख्या में पुलिस मौजूद रही। रैली में मोहित डिमरी और लुसून टोडरिया के अलावा शिव प्रसाद सेमवाल, राकेश सिंह नेगी, मनोज गोसाई, कुसुम जोशी, संजय सिंसवाल, राजेंद्र गैरोला, रामकृष्ण पोखरियाल, उत्तम असवाल, करण सिंह पवार समेत अनेक लोग मौजूद थे।

रैली की विशेषता यह थी कि यह पूरी तरह गैर राजनीतिक थी और एक तरह से स्वत: स्फूर्त भी। आईडीपीएल के मैदान में जिस तरह से सरकारी कर्मचारियों की उपस्थिति दिखी, उसने उत्तराखंड आंदोलन की याद ताजा कर दी। उस समय भी सरकारी कर्मचारियों ने दफ्तर छोड़ कर आंदोलन में भागीदारी की थी और आज भी कुछ हद तक वही दृश्य उभरने लगा है।

उत्तराखंड में वर्ष 1950 से मूल निवास और सशक्त भू कानून लागू करने की मांग ने इस रैली के जरिए जोर पकड़ना शुरू कर दिया है। यहां के जल, जंगल, जमीन के बुनियादी सवालों को जिस तरीके से आज युवाओं ने एड्रेस किया वह लंबे समय तक लोगों को झकझोरते रहेंगे। बहरहाल, बीते दिसम्बर माह में दून फिर गैरसैंण से मूल निवास व सशक्त भू कानून को लेकर युवाओं और महिलाओं के शुरू हुए इस आंदोलन ने लम्बे समय से बाट जोह रहे एक बड़े आंदोलन की पटकथा जरूर लिख दी दी है।

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