बीते कई सालों से अधिग्रहीत जमीन कर दी खुर्द बुर्द. RTI में वन विभाग से नहीं मिली जानकारी
1952 की गजट अधिसूचना – किसी भी वन भूमि की बिक्री या खरीद अवैध मानी जाएगी
अविकल उत्तराखण्ड
देहरादून। सत्तर साल पहले उत्तर प्रदेश के जमाने में देहरादून के आस पास अधिग्रहीत की गई संरक्षित वन भूमि पर भू माफिया ने हाथ साफ कर दिया है। सरकार में निहित जमीन बेचने का मामला भी सामने आ रहा है। यह सब एक बड़े भूमि घोटाले की ओर इशारा कर रहे हैं।
राज्य गठन से पूर्व और बाद में भू माफिया ने देहरादून के संरक्षित वन और राजस्व भूमि बेचकर करोड़ों के घोटाले को अंजाम दिया । सूचना के जन अधिकार के तहत मिली जानकारी के अनुसार निजी हाथों में संरक्षित भूमि बेचकर रजिस्ट्री भी करवा दी गयी है।
आरटीआई के तहत जब दून वन प्रभाग से जमीन से जुड़े बिंदुओं पर सूचना मांगी गयी तो जवाब में कहा गया कि यह सूचना धारित नहीं है। (देखें 11 जुलाईं 2024 का पत्र)
गौरतलब है कि उत्तर प्रदेश जमींदारी उन्मूलन और भूमि सुधार अधिनियम, 1950 के तहत संरक्षित भूमि न तो बेची जा सकती है और न ही किसी निजी व्यक्ति द्वारा खरीदी जा सकती है।
देहरादून में सरकारी अधिग्रहीत वन भूमि पर बड़े पैमाने पर अवैध अतिक्रमण का एक गंभीर मामला सामने आया है। यह भूमि उत्तर प्रदेश सरकार द्वारा जारी राजपत्र अधिसूचनाओं के अनुसार 11 अक्टूबर 1952 (अधिसूचना संख्या 617/XIV), 29 जून 1953 (अधिसूचना संख्या 770/XIV-319/1952), और 3 सितंबर 1953 (अधिसूचना संख्या 1164/XIV-333/1953) के तहत अधिग्रहित की गई थी। इन अधिसूचनाओं में स्पष्ट रूप से यह उल्लेख किया गया था कि कौन-कौन सी भूमि सरकार के अधीन रहेगी।
इसके बावजूद, कुछ भूमाफियाओं ने इन वन भूमि को धोखाधड़ी से निजी व्यक्तियों को बेचकर पंजीकृत कर दिया है। इन गांवों – क्यारकुली भट्टा, चलांग, अम्बारी, डांडा जंगल, रुद्रपुर आदि की भूमि, जो 11 अक्टूबर 1952 की उत्तर प्रदेश राजपत्र अधिसूचना के अनुसूची II में सूचीबद्ध हैं, उत्तर प्रदेश जमींदारी उन्मूलन और भूमि सुधार अधिनियम, 1950 के तहत संरक्षित है। यह भूमि न तो बेची जा सकती है और न ही किसी निजी व्यक्ति द्वारा खरीदी जा सकती है।
इसके अलावा, 8 अगस्त 1946 को जारी उत्तर प्रदेश जमींदारी उन्मूलन और भूमि सुधार अधिनियम के अनुसार, 8 अगस्त 1946 के बाद किए गए किसी भी भूमि अनुबंध को अवैध घोषित किया गया था। इस कानून के अनुसार, इस तारीख के बाद की गई किसी भी भूमि बिक्री या खरीद का कोई कानूनी आधार नहीं है और वह शून्य मानी जाती है। इसके बावजूद, कई व्यक्तियों ने अब इन वन भूमि के पंजीकृत दस्तावेज प्राप्त कर लिए हैं, जो पूरी तरह से अवैध हैं।
इस अवैध अतिक्रमण और भूमि कब्जे का न केवल वन संरक्षण कानूनों का उल्लंघन है, बल्कि यह पर्यावरणीय संतुलन के लिए भी गंभीर खतरा पैदा करता है। सर्वोच्च न्यायालय के 2009 के सिविल अपील नंबर 7017 में दिए गए फैसले में यह स्पष्ट रूप से उल्लेख किया गया था कि 11 अक्टूबर 1952 की गजट अधिसूचना एक महत्वपूर्ण कट-ऑफ तिथि है, जिसके बाद किसी भी वन भूमि की बिक्री या खरीद अवैध मानी जाएगी।
इसके बावजूद, राज्य सरकार की अधीनस्थ एजेंसियों ने इन सरकारी और वन भूमि पर अवैध निर्माण और बिक्री की अनुमति दी है। यह न केवल वन संरक्षण की दृष्टि से आपत्तिजनक है, बल्कि पर्यावरणीय क्षति और जलवायु पर प्रतिकूल प्रभाव डाल रहा है।
आरटीआई एक्टिविस्ट विकेश नेगी ने मुख्यमंत्री, वन मंत्री, और अन्य अधिकारियों को शिकायत भेजकर दोषियों और भ्रष्ट अधिकारियों के खिलाफ तुरंत कानूनी कार्रवाई करने, सभी भूमि रिकॉर्ड की समीक्षा और सुधार सर्वोच्च न्यायालय के निर्देशों के अनुसार करने व वन भूमि पर अवैध खरीद-बिक्री और निर्माण कार्यों पर तुरंत रोक लगाने की मांग की है।
Total Hits/users- 30,52,000
TOTAL PAGEVIEWS- 79,15,245