पुण्यतिथि पर विशेष- अपने खास अंदाज में जीने वाला पत्रकार कमल जोशी

पुण्यतिथि- ‘इक दिन सपनों का राही, चला जाय सपनों से आगे कहां….

अरुण कुकशाल/गीता गैरोला

अविकल उत्तराखंड

देहरादून। प्रख्यात फोटो पत्रकार, घुमक्कड़ और लेखक कमल जोशी रुद्रप्रयाग जिले के घोलतीर गांव के मूल निवासी थे। उनका जन्म मां श्रीमती सत्यभामा और पिता फ़तेह राम जोशी के घर कोटद्वार में वर्ष 1953 में हुआ था। कमल जोशी 2 बहनों और 5 भाइयों में माता-पिता की छटवीं संतान थे। उनकी बीएससी तक की पढ़ाई कोटद्वार में हुई। कमल जब 11 साल के थे तब उनको दमे की बीमारी ने बुरी तरह जकड़ लिया था।

कमल बचपन से ही रचनात्मक और पढ़ाई में होशियार थे। दमा होने के कारण कई बार उनकी पढ़ाई में बाधा आई परन्तु उन्होने कभी हार नहीं मानी। जब उन्हें दमे का अटैक होता था तो वे अपना ध्यान साहित्य पढ़ने और पेंटिंग करने में लगाया करते थे। जिज्ञासु प्रवृत्ति के कमल के बारे में कहा जाता है कि पढ़ाई के दौरान उनके प्रश्नों से टीचर बहुत घबराते थे। यहां तक कि वे उनके पिता से इस बावत अक्सर शिकायत करते थे।

कमल जोशी की बीमारी को ले कर उनकी मां बहुत चिंतित रहती थी। बीमारी के दिनों में मां से सामना न हो इसलिए कमल ने तय किया कि वे कोटद्वार से बहुत दूर पिथौरागढ़ से कैमेस्ट्री विषय में एमएससी करेंगे। पिथौरागढ़ में उन पर फोटोग्राफी और ट्रेकिंग का शौक पनपा। पिथौरागढ़ में ही उनका विभिन्न सामाजिक सरोकारों के साथ जुड़ाव होने लगा था। मेघावी कमल जोशी को एमएससी (कैमेस्ट्री) में कुमाऊं विश्वविद्यालय का गोल्ड मैडल प्राप्त हुआ।

ट्रेकिंग का शौक पूरा करने में दमे की बीमारी उनके लिए बहुत बड़ी बाधा थी। जबरदस्त जुनून के धनी कमल जोशी ने तय किया कि घुमक्कड़ी के दम पर ही वे अपने दमे की बीमारी को हरायेंगे। एमएससी करने के पश्चात वे पीएचडी के लिये नैनीताल आ गये। उन दिनों ‘चिपको आंदोलन’ के साथ ‘नशा नहीं-रोजगार दो आंदोलन’ पहाड़ों में जोरों पर थे। अपनी रूचि और सामाजिक गतिविधियों के प्रति सजग होने के कारण कमल इन आंदोलनों में सक्रिय रूप से जुड़ गए। नैनीताल में रहते हुए उनको अपनी अभिरुचियों को पूरा करने के बहुत मौके मिले।

आदोलनों में निरंतर सक्रिय भागीदारी से उनकी फोटोग्राफी और लेखन कला को नए आयाम मिले। उनके खींचे फोटो प्रतिष्ठित पत्र-पत्रिकाओं में छप कर अपनी पहचान बना चुके थे। कमल ‘पहाड़’ पत्रिका के फोटो संपादक थे। कमल जोशी ने पहाड़ संस्था द्वारा आयोजित 1984, 1994, 2004 और 2014 के ‘अस्कोट-आराकोट अभियानों’ में भाग लेकर दमे की बीमारी को अपने वश में कर लिया था। कुछ साल वो दिल्ली में भी रहे। जहां उनकी रचनात्मकता को नयी पहचान मिली।

कमाल के फोटोग्राफर कमल हमेशा यायावर रहे। अपने पहाड़ों और उसके निवासियों को शिद्दत से प्यार करने वाले ‘मित्रों के मित्र’ कमल जोशी को भुलाया नहीं जा सकता है।

3 जुलाई, 2017 को कमल जोशी अपने कोटद्वार के घर पर अपनी दमे की बीमारी से खुद ही निजा़त पाकर इस दुनिया से विदा हो गए। कमल ने आत्महत्या करके हमको जिंदगी की हकीकत बखूबी समझा दी है। वाकई, हम अपने मित्रों को कितना कम जानते और समझते हैं। कमल को मालूम था कि उन्हें दुनिया से कब जाना है। इसीलिए वे जीवन के हर क्षण का भरपूर आनंद लेते थे। कमल घुमक्कड़ी से कभी थकते नहीं थे। सच तो यह है कि वे दुनिया में घूमने-फिरने ही आये थे।

और, जब घुमक्कड़ी में भरपूर जी लिया तो बिना किसी को बताये चुपचाप चले गये। पर उनके न रहने की तड़प का शोर हम मित्रों के मन-मस्तिष्क में जीवन भर रहेगा। कमल की यादें उनके चित्रों, उनके किस्सों, उनकी कविताओं, उनके यात्रा वृत्तांतों में हमेशा जीवंतता से खिलखिलाती रहेंगी।

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