कर्ज की मीनार पर “विकास” की अट्टालिका

वरिष्ठ पत्रकार दिनेश शास्त्री की कलम से

अविकल उत्तराखंड

उत्तराखंड इस साल अपना रजत जयंती वर्ष मना रहा है, यानी यौवन का उत्कर्ष और हिलोरें मारती आकांक्षाएं। यह ऐसा कालखंड है, जहां सपनों की ऊंची उड़ान है और पांव धरती पर कम और आसमान में उड़ने को बेताब हैं और यह होना स्वाभाविक भी है।


विकास के लिए जरूरी होता है कर्ज :-
किसी भी समाज, क्षेत्र, प्रदेश अथवा देश के विकास के लिए ऋण आवश्यक है। यह विकास के इंजन को गतिशील बनाता है, क्योंकि ऋण से ही हम तमाम आर्थिक गतिविधियों, जैसे निवेश और उत्पादन, को बढ़ा सकते हैं। नतीजतन देश के लोगों की आकांक्षाओं की भी पूर्ति हो और राष्ट्र की आय बढ़ने के साथ और जीवन स्तर में गुणात्मक वृद्धि हो। ऋण वह अवयव है जिससे किसानों और छोटे व्यवसायों को उत्पादन के लिए पूंजी प्रदान होती है, और उद्यमशीलता को बढ़ावा मिलता है। ऋण चुकाने का दबाव प्रतिस्पर्धी माहौल बनाता है और विकास के लक्ष्यों को प्राप्त किया जा सकता है। यहां महर्षि चार्वाक का दर्शन भौतिकता को प्रोत्साहित करता है।


महर्षि चार्वाक उदघोष करते दिखते हैं-
“यावज्जीवेत सुखं जीवेद,
ऋणं कृत्वा घृतं पिबेत्”
भस्मीभूतस्य देहस्य पुनरागमनं कुतः।।”
यानी जब तक जिएं, सुख से जिएं, और अगर ज़रूरी हो तो उधार लेकर भी घी पिएं। जो शरीर मृत्यु के बाद राख हो जाता है, उसका पुनर्जन्म कहाँ से संभव है?” लिहाजा आज का दिन बेहतर जी लिया जाए, कल की चिंता व्यर्थ है। महर्षि चार्वाक दर्शन वस्तुतः भौतिकवादी विचार का बीज अंकुरित करता है। जाहिर है मृत्यु के बाद पुनर्जन्म या आत्मा का कोई अस्तित्व नहीं होता, इसलिए जीवन का आनंद वर्तमान में ही लेना चाहिए। कमोबेश सरकारें भी इसी दर्शन को अंगीकृत करती प्रतीत होती हैं। उत्तराखंड फिर इस दर्शन से अछूता कैसे रह सकता है?


उत्तराखंड का बजट और ऋणग्रस्तता :-
उत्तराखंड का वर्ष 2025-26 का बजट ₹1,01,175.33 करोड़ का है। नवाचार, आत्मनिर्भरता और गतिशील मानव संसाधन जैसे विषयों पर केंद्रित इस बजट में कृषि, स्वास्थ्य, शिक्षा, पर्यावरण संरक्षण, महिला सशक्तिकरण और बुनियादी ढांचे पर जोर दिया गया है। इसके बाद अनुपूरक बजट अलग है जबकि वर्ष 2025- 26 के दौरान राज्य पर कुल कर्ज 106736.33 करोड़ रुपए आंका गया है। कर्ज की मीनार कितनी तेजी से बढ़ी है, इसका अनुमान इस तथ्य से लगाया जा सकता है कि वर्ष 2011-12 में उत्तराखंड पर कुल कर्ज 23609.43 करोड़ रुपए था जो आज की तुलना में एक चौथाई से कम बैठता है। हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि जब प्रदेश पर साढ़े 23 हजार करोड़ से कुछ ऊपर कर्ज था तो हमने किशोरावस्था में कदम रखा था, आज छलकते यौवन में कर्ज लगभग कुल बजट राशि से अधिक हो गया है। बढ़ता कर्ज मूल के साथ ब्याज चुकाने का दबाव भी बढ़ा रहा है। उत्तराखंड जैसे युवा प्रदेश को जिंदगी की दौड़ में कर्ज के बोझ को लेकर भाग लेना है। रफ्तार क्या होगी, इसका अनुमान आप भी लगा सकते हैं।


आइए, एक और आंकड़े पर नजर डालते हैं। वर्ष 2011-12 में उत्तराखंड पर सकल राज्य घरेलू उत्पाद का 20.47 प्रतिशत कर्ज था जो वर्ष 2025-26 में बढ़कर 24.85 प्रतिशत तक पहुंच गया है। वर्ष 2020- 21 में यह सर्वाधिक 32.69 प्रतिशत था। याद रहे वह कोविड काल था। उसके बाद उसमें गिरावट आने लगी। वर्ष 2021- 22 में यह दर घट कर 30.21प्रतिशत, वर्ष 2022-23 में 26.83 प्रतिशत, वर्ष 2023-24 में 25.80 प्रतिशत और वर्ष 2024-25 में 24.92 प्रतिशत अनुमानित वृद्धि थी। वर्ष 2025- 26 की तुलना में यह मामूली गिरावट को दर्शाता है लेकिन वास्तविक आंकड़े इससे इतर रहने का अनुमान है। वर्तमान में कर्ज का जो बोझ है वह अनुमानित 106736.33 करोड़ से अधिक रहने की संभावना है क्योंकि अक्टूबर 2025 में ही विश्व बैंक ने वित्तीय प्रबंधन दुरुस्त करने की मद में ही उत्तराखंड के लिए 680 करोड़ रुपए का कर्ज मंजूर किया है और कौन जानता है कि वित्त वर्ष की समाप्ति तक कर्ज की रकम और नहीं बढ़ेगी। तब तक गंगा यमुना में कितना पानी और बहेगा, उसका अनुमान आप भी लगा सकते हैं।


उत्तराखंड के बजट पर दबाव:-
उत्तराखंड के ऋण कोष पर औसत ब्याज दर प्रतिवर्ष लगभग 9 प्रतिशत है जबकि पेंशन और वेतन मद में प्रतिवर्ष दस प्रतिशत की वृद्धि तय है। अगले साल के अंत तक आठवें वेतन आयोग की सिफारिशें लागू होने की संभावना है, इससे करीब 22 प्रतिशत की वृद्धि का अनुमान खुद सरकारी तंत्र ने लगाया है। जाहिर है उसके लिए अतिरिक्त कर्ज लेना पड़ेगा। वैसे प्रतिवर्ष सकल राज्य घरेलू उत्पाद के तीन प्रतिशत की दर से ऋण प्राप्ति का एक रिवाज सा चल रहा है। जबकि उत्तराखंड को केंद्रीय सहायता की मद में करीब दस प्रतिशत मिलते हैं। इस साल यह रकम करीब 2099 करोड़ रुपए है। इसके विपरीत राज्य का स्वयं का कर राजस्व मात्र 13 प्रतिशत है और 6 प्रतिशत करेत्तर राजस्व है। इसके अलावा केंद्रीय करों में दस प्रतिशत वृद्धि का अनुमान है। यह सब जोड़ घटाना देखने के बाद विकास की अट्टालिका बेशक चमकदार दिखती हो लेकिन तस्वीर उतनी चमकदार है नहीं।


अब जबकि 21 सदी के तीसरे दशक को उत्तराखंड का दशक बनाने की बात होती है तो बजट के आकार और कर्ज के बोझ के बीच तालमेल भी दिखने की अपेक्षा की जाती है। इसमें दो राय नहीं कि ढाई दशक के दौरान उत्तराखंड ने कई मामलों में छलांग लगाई है लेकिन यह सब कर्ज के बल पर हुआ है। आमतौर पर माना जाता है कि जब बेटा काबिल बन जाए और अपने पैरों पर खड़ा हो जाए, जैसे कि 25 वर्ष की आयु को सामान्य मापन माना जाता है तो उसे इतना योग्य तो मान ही लिया जाना चाहिए कि वह कर्ज के बोझ को उतार फेंके और विकास के राजमार्ग पर सरपट दौड़ता भी दिखे। महर्षि चार्वाक का दर्शन एक सीमा तक स्वीकार्य है लेकिन ईएमआई चुकाते रहने की परम्परा तो छोड़नी ही होगी। आपके पास इसका कोई अचूक उपाय हो तो साझा करें। आखिर इन बुनियादी मुद्दों पर विमर्श और लक्ष्य प्राप्ति का दायित्व हम सभी का है वरना कर्ज की मीनार पर विकास की अट्टालिका रेत के मानिंद बिखेरते देर कहां लगती है?

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