अविकल उत्तराखण्ड
दिनेश शास्त्री
देहरादून। उत्तराखंडी सिनेमा को पहचान दिलाने के लिए शुरुआती कोशिश करने वालों में जिन लोगों की गिनती होती है, उनमें से एक सुरेंद्र सिंह बिष्ट विगत सात सितंबर को चुपचाप इस दुनिया से चले जायेंगे, इसकी आशा न थी। सर्वविदित है कि प्रथम गढ़वाली फिल्म जग्वाल को पारेश्वर गौड़ ने बना कर इस क्षेत्र से पहाड़ियों के गौरव की दस्तक दी थी, जग्वाल के बाद नौडियाल ने कबि सुख कबि दुख फिल्म बनाई। ये दोनों फिल्में गढ़वाल की पृष्ठभूमि, बोली भाषा पर ही केंद्रित थी। वह जमाना घर फूंक तमाशा देखने का था। इसमें नया प्रयोग किया सुरेंद्र सिंह बिष्ट ने। उन्होंने गढ़वाल और कुमाऊं को समान प्रतिनिधित्व देने की गरज से नया प्रयोग किया उदंकार के नाम से इस फिल्म का पहला भाग गढ़वाल पर केंद्रित था और मध्यांतर के बाद का भाग कुमाऊं पर एक तरह से कला फिल्म थी यह। इसमें आकाशवाणी के प्रख्यात समाचार उदघोषक देवकी नंदन पांडे थे तो राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय के स्नातक चंद्रमोहन बौठियाल भी थे।
आजकल दूरदर्शन के देहरादून केंद्र में कार्यक्रम अधिशासी नरेंद्र सिंह रावत ने इस फिल्म में हास्य कलाकार की भूमिका निभाई थी। बहुत कम लोग जानते होंगे कि सुरेंद्र सिंह बिष्ट ने इस फिल्म के लिए अपनी तमाम जमा पूंजी दांव पर लगा दी थी। बिष्ट की पत्नी श्रीमती कमला बिष्ट फिल्म की निर्मात्री थी और खुद बिष्ट फिल्म के निर्देशक थे। इस तरह दो खर्चे तो उन्होंने खुद घटा दिए थे।
उदंकार फिल्म का प्रीमियर 14 फरवरी 1987 को देहरादून के कनक सिनेमा हॉल में हुआ था। फिल्म किसी एक विषय पर केंद्रित होने के बजाय समूचे उत्तराखंड पर केंद्रित थी। उसमें पहाड़ों में नारी की स्थिति, पलायन, नशाखोरी, समाज में व्याप्त अंधविश्वास, चिपको आंदोलन, राष्ट्रीय एकता और मातृभूमि उत्थान जैसे तमाम विषय समेटने की कोशिश की गई थी।
फिल्म दिल्ली में प्रदर्शित हुई तो तब जनसत्ता में कार्यरत मंगलेश डबराल ने टिप्पणी की थी कि संजीवनी बूटी की खोज में गए हनुमान की तरह संजीवनी के स्थान पर पूरा हिमालय ले आए हैं। उत्तरायण फिल्म के बैनर पर बनी उदंकार के बाद एक सिलसिला सा बन गया था और नब्बे का दशक आते आते एक दर्जन से अधिक फिल्म बन गई थी। ये अलग बात थी कि आर्थिक दृष्टि से सभी फिल्में सफल नहीं हो पाई लेकिन उत्तराखंडी फिल्मों का एक अलग मुकाम जरूर बना।
सुरेंद्र सिंह बिष्ट मूल रूप से पौड़ी गढ़वाल जिले की पट्टी -जैंतोलस्यूं के नौंदेणा गांव के निवासी थे। उनका जन्म चार जून 1948 को नौंदेणा गांव में हुआ था। वह संप्रति दिल्ली के द्वारका में अपने बेटे के साथ रह रहे थे। उनकी आरम्भिक शिक्षा गांव में ही हुई थी जबकि स्नातक की उपाधि उन्होंने दिल्ली विश्वविद्यालय से प्राप्त की।
उसके बाद उन्होंने दिल्ली दूरदर्शन में नौकरी शुरू की। वे एक बेहतरीन फिल्म एडिटर थे। उस समय टेलीविजन की इस विधा में गिनती के लोग पारंगत माने जाते थे। सुरेंद्र सिंह बिष्ट उसी पीढ़ी के एक सशक्त हस्ताक्षर थे। बाद में उन्होंने एनसीईआरटी में भी पोस्ट प्रोडक्शन के तौर पर फिल्म एडिटर के रूप में काम किया लेकिन उन्हें वह ख्याति नहीं मिल पाई, जिसके वह हकदार थे। वस्तुत वे पर्दे के पीछे के कलाकार थे, शायद इसी कारण ज्यादा चर्चित नहीं हुए। यही नहीं दिल्ली में उत्तराखंड के रंगमंच को प्रसिद्धि दिलाने में भी उनका अभूतपूर्व योगदान रहा। अपने जीवनकाल में वे सतत कार्यशील रहे तथा प्रवासियों के बीच उनका जुड़ाव अंत तक बना रहा। शनिवार नौ सितंबर को दिल्ली के निगम बोध घाट पर सैकड़ों प्रशंसकों, परिजनों, मित्रों ने नम आंखों से उन्हें अंतिम विदाई दी।
उनका जाना उत्तराखंडी सिनेमा, थियेटर और सामाजिक सरोकारों के लिए अपूरणीय क्षति है। आज की पीढ़ी तो शायद उनके नाम से ही अनजान होगी लेकिन अपने समय में वे पहाड़ के सरोकारों के पैरोकार रहे, इस बात को दिल्ली में रहने वाले लोग तो जानते ही हैं। उनका असमय चले जाना एक रिक्तता का आभास करा गया है। निसंदेह मातृभूमि की चिंता करने वाले सुरेंद्र सिंह बिष्ट की कमी नाट्य कर्मियों को बहुत खलेगी। उस दिव्य आत्मा की शांति के लिए ईश्वर से प्रार्थना ही कर सकते हैं।
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