नया परोसने की होड़ और विवाद

स्मृति शेष-स्वर्गीय पीयूष पांडे

वरिष्ठ पत्रकार नागेंद्र की कलम से

आज सुबह जब पीयूष पांडेय के निधन की खबर आयी तो यह लेख याद आया जो मैंने 1 सितम्बर 2019 के संडे नवजीवन में लिखा था… यह पीयूष के एक ताजा विज्ञापन पर था जिसने सबका ध्यान खींचा था। आज जब उनके तमाम विज्ञापनों की बात हो रही है, फेवीकोल के उस विज्ञापन और इस लेख की चर्चा ज़रूरी लगी। विज्ञापनों की दुनिया में पीयूष पांडेय की दुनिया हमें उनके नए मुहावरों के कारण हमेशा अलग लगी।
दुर्भाग्यपूर्ण और दुखद है कि इस इंसान के जाने की सूचना जब उनकी बहन और प्रख्यात गायिका-अभिनेत्री इला अरुण के एक्स पर आज अचानक आयी, तब तक यह खबर आम नहीं थी कि पियूष बीस दिन तक कोमा में रहे। श्रद्धांजलि स्वरूप छह साल पुराना यह लेख और कमेंट में वह चर्चित विज्ञापन, जिसने इसे लिखने को मजबूर किया –

नया परोसने की होड़ और विवाद

कुछ दिन से अचानक टीवी की आवाज पर ध्यान अटक जा रहा था। आवाज किसी ‘गाने’ की थी, कुछ लोकधुन, कुछ-कुछ अपने पूरब की माटी से उठनी गंध की मानिंद। जब तक उधर ध्यान देता आवाज़ बंद हो जाती।  इत्तिफ़ाक ही था कि कल फिर से यही धुन कहें या कि गीत सुनाई दिया। बहुत ध्यान से सुनते-देखते हुए भी समझना मुश्किल हो रहा था कि यह है क्या? इसी उधेड़बुन में ‘गाना’ या ‘गीत’ जो भी है, खत्म हो गया और कुछ समझ नहीं आया? उधेड़बुन समाप्त हुई जब अंतिम दो-तीन सेकंड में बड़ी खामोशी, बिना किसी शब्दिक हस्तक्षेप के यह राज खुला। परदे पर कुछ लिखकर आया, जो बता रहा था कि यह किसी चीज (उत्पाद) का विज्ञापन है।

https://youtu.be/1oo1cEUlN9o?si=yV3I60G7C8-S91bP&sfnsn=wiwspwa

विज्ञापन की दुनिया में यह एक नए तरह का, शायद अपने तरह का मौलिक प्रयोग भी हो। जो भी है, सुखद है। यह फेविकोल का एक विज्ञापन है। खोजने पर पता चला कि कंपनी ने इसे अपने साठ साल पूरा होने पर कुछ अलग तरह में सेलीब्रेट करने के इरादे से लांच किया है। हालांकि फेविकोल का यह पहना विज्ञापन नहीं, जिसे इनोवेटिव कहा जा सके। लेकिन यह उसके अब तक के तमाम विज्ञापनों में से कुछ न कुछ निकालते-जोड़ते हुए एकदम अलग ही दुनिया में पहुंचा देता है। एक ऐसी दुनिया में जहां लोक भी है, धुन भी और उससे निकली अद्भुत लय भी… “शर्मा की दुलहिन जो ब्याह के आई,  संग टू-सीटर सोफ़ा ले आई। पड़ गो नाम शरमाइन के सोफा… हाय रे हाय शरमाइन क सोफा। शरमाइन बेटी का ब्याह कराइन, सोफ़ा में नवा कपड़ा चढ़ाइन…।” मतलब यह एक सोफे की कहानी है जो पीढ़ी दर पीढ़ी, बस चंद बदलावों के सहारे चलती रहती है। कहना न होगा कि यह फेविकोल के बदलावों की कहानी है, जो बताती है कि यह या इसके कारगर और टिकाऊ बदलाव उसके बिना संभव नहीं थे। कल्पनाशीलता का यह चरम है। ऐसी जगह ले जाकर छोड़ता है कि लगता है अब इसके आगे भला क्या? और आप मुस्कुराकर रह जाते हैं।

इस विज्ञापन में कुछ-कुछ वैसा ही आकर्षण है, जैसा नब्बे के आसपास गुलज़ार वाला जंगल बुक टेलीविजन पर आया था और इतवार वाले दिन जैसे ही ‘जंगल-जंगल बात चली है पता चला है, चड्डी पहन के फूल खिला है, फूल खिला है…’ गूंजता तो हम टीवी का वाल्यूम फुल कर देते और मेरा एक-डेढ़ साल का बेटा किसी चुम्बकीय शक्ति के सहारे अड़ोस-पड़ोस के उन घरों में भागकर स्वतः आ जाता, जहां से लाने के सारे प्रयास अक्सर फेल रहते थे। हम बड़े भी आराम से काम छोड़कर टीवी के सामने बैठ जाते, एकदम मजबूत वाले जोड़ की तरह। इस नए विज्ञापन में भी वही कशिश है। यह इसकी ताक़त ही है, जो बिना किसी नारेबाज़ी, बिना किसी प्रोडक्ट का हल्ला मचाए ऐसा कुछ कर जाता है कि प्रोडक्ट आपके जेहन में खुद-ब-खुद चस्पा होकर रह जाता है।

यह उस भ्रमजाल से काफी दूर है जहां एक दर्द निवारक क्रीम का विज्ञापन  देख सवाल उठता है कि दर्द हमेशा किसी साड़ी पहने महिला की कमर में ही क्यों होता है या कि ऐसा कोई भरम / मायालोक भी नहीं रचता जिसके बारे में भारत के उपराष्ट्रपति वेंकैया नायडू तक को स्वीकार करना पड़ा कि किस तरह वह भी ऐसे मायावी विज्ञापनों के चक्कर में मोटापा घटाने के झूठे विज्ञापन का शिकार बन जाते हैं।

बताते हैं कि यह फेविकोल का अब तक का सबसे लंबा विज्ञापन है। तुलना न मान लिया जाय तो इसे सुनते हुए हमें कई बार एसडी बर्मन का “ओ मांझी… ओ मांझी..” भी याद तो आ ही जाता है। डेढ़ मिनट की एड-फिल्म बही खूबसूरती से ‘प्रोडक्ट की मज़बूती’ का बयान करती है जिसमें भारतीय
सामाजिक और सांस्कृतिक परिदृश्य में बदलते प्रतिमानों के साथ तालमेल बनाते हुए कदमताल करने की कोशिश है।

बताना लाजिमी है कि चकाचौंधवाली दुनिया की इस रचनात्मकता के पीछे पीयूष पाण्डेय जैसा नाम है जिनके प्रयोगों से दुनिया वाकिफ है। पीयूष कहीं बड़ी ख़ूबसूरती से बताते दिखते हैं कि 60 साल की यात्रा को महज डेढ़ मिनट में बताकर आपको बांध देने वाला यह कोई किसी प्रोडक्ट का विज्ञापन नहीं है। यह विज्ञापन के उस कारपेंटर और उसके शिल्प का सम्मान करता है, उसे सलाम करता है, जिसके हुनर ने उस सोफ़े को इतनी लम्बी यात्रा नवाज़ी है।

एक सोफे के इर्द-गिर्द यह बड़ी रोचक कहानी चुनी गई है। यह उस टू-सीटर सोफे के ज़रिए दर्शक को कई पीढ़ियों की यात्रा करा देती है, जब कैमरा एक ऐसे युग में घूमता है जहां एक नवविवाहित को उपहार में मिले लकड़ी के एक सोफे के साथ अपने घर जाते देखते है। यह सोफ़ा वहां स्थान पाता है, लेकिन वहीं ‘फ़्रीज़’ होकर नहीं रह जाता। कहानी आगे बढ़ती है और हम उपहार बने इस सोफ़े को एक परिवार से दूसरे परिवार, एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी को दिए जाते हुए देखते हैं, लेकिन इस अंतरण में बहुत ख़ूबसूरती है और हर अंतरण में एक नवाचार भी है। बताता हुआ कि इस लम्बी यात्रा में इसने बदलाव के कैसे-कैसे दौर देखे, लेकिन हर बार किस तरह एक नई मजबूत के साथ सामने आया। यह सब कैसे हुआ, सबसे अंत में बहुत धीरे से बिना किसी आवाज़ के बता दिया जाता है, लेकिन तब तक दर्शक के दिमाग पर ‘ये फेविकोल का जोड़ है’ वाले अंदाज में चिपक चुका होता है। इसका ‘दम लगा के हइसा’ वाला विज्ञापन भी याद ही होगा जो इसका पहला टीवी विज्ञापन भी था।

टीवी विज्ञापनों में रचनात्मकता और प्रयोग कोई नई बात नहीं, लेकिन याद रह जाने जाने ऐसे क्रिएटिव विज्ञापन उंगलियों पर गिने जा सकते हैं। यहां से क्रिएटिव विज्ञापन या विज्ञापन में क्रिएटिविटी की एक नई बहस भी शुरू होती है। एक ऐसी बहस जिसमें अमूल की ‘अटरली बटरली डिलेसियश…’ की पोनीटेल (चोटी) और रंगीन बूटेदार फ़्राक वाली वाली वह मासूम लड़की जरूर याद आएगी, जो अब 50 साल से ज्यादा की हो चुकी है, लेकिन हर किसी न किसी जनसरोकार वाले या गंभीर से गंभीर मुद्दे को बड़ी सहजता से न सिर्फ एड्रेस करती रही है, बल्कि उतनी ही सहजता से हमारे घरों में अमूल को एक ज़रूरी नाम बना चुकी है। कहना न होगा कि इसके पीछे गुजरात से श्वेत क्रांति की शुरुआत करने वाले वर्गीज़ कुरियन का दिमाग काम कर रहा था। कहना यह भी न होगा कि घोड़े पर सवार यह अमूल गर्ल जब पहली बार विज्ञापन के होर्डिंग में सामने आई तो इसने रातोंरात न सिर्फ लोगों के मन बल्कि उनकी ज़ुबान से रसोई तक में भी जगह बना ली।

यह साठ के दशक की बात है। तब यह विज्ञापन बम्बई में लांच हुआ था, जो बाद में मुद्दों से भी जुड़ता चला गया। इस कड़ी का पहला क्रिएटिव तत्कालीन बम्बई के ही ‘हरे राम – हरे कृष्ण’ आंदोलन में निकला था, जिसमें रातों रात चौराहों पर उस घोड़े वाली बच्ची के साथ होर्डिंग लग गए थे, ‘हरी अमूल-हरी अमूल’…अब अंग्रेज़ी वाले ‘हरी’ का मतलब जल्दी होता है तो एक ‘हरि’ भगवान भी हैं। स्वाभाविक है कि इसे हाथों-हाथ लिया गया। बाद में ऐसे रचनात्मक विज्ञापनों का सिलसिला ही चल पड़ा, जो होर्डिंग से होते हुए टीवी और अख़बारों के स्थानीय पन्ने का ज़रूरी नाम बन चुका है और हर जरूरी मुद्दे पर अपने होने का अहसास कराता रहा है।

रचनात्मकता के इस जूनून में जब कुछ नया परोसने की होड़ चल पड़ी तो विवाद भी कम नहीं हुए। कई बार तो इन पर अश्लीलता के आरोप भी लगे। पुरुषों के अंडरवियर बनाने वाली एक कंपनी के विज्ञापन में जब घाट पर इसे एक स्त्री द्वारा भदेस अंदाज में धोते हुए दिखाया गया तो हंगामा खड़ा हो गया। वह भी क्रिएटिविटी का चरम ही था जब पूजा बेदी और मार्क रोबिंसन ने कंडोम का अत्यंत बोल्ड विज्ञापन किया था, जिसे बाद में वापस लेना  पड़ा। जींस या इनरवियर के विज्ञापनों की कमी नहीं जिन पर विवाद हुए। जूता बनाने वाली एक कंपनी का ‘मिलिंद सोमण-मधु सप्रे-अजगर’ वाला वह विज्ञापन तो याद ही होगा, जिसके कारण कंपनी के साथ ही मिलिंद और मधु को भी अदालत के चक्कर काटने पड़े थे।

असल में तो विज्ञापनों की यह दुनिया इतनी चकाचौंध भरी रही है कि इसमें अक्सर काल्पनिकता के नाम पर कुत्सा ही ज्यादा परोसी गई। गौर करें कि टेलिविज़न के पर्दे पर दिन-रात चलने वाले विज्ञापनों में कितने हैं, जो ठहरकर कुछ सोचने को मजबूर करते हैं। लेकिन फिर से बहुत कुछ है जो पहले भी थाम लेता था और आज भी रोक लेता है। कभी ‘हमारा बजाज’ बनकर तो कभी ‘टाटा नमक’ बनकर। वरना तो ज़्यादातर ऐसे ही विज्ञापन मिलेंगे जहां या तो स्त्री महज एक उत्पाद होती है या फिर कोई ऐसा कल्पनालोक कि डिओ कैसा भी हो उसकी सुगंध पर स्त्री को कहीं से भी खिंचे चले आना ही है।
(‘संडे नवजीवन’ के 1 सितम्बर 2019 अंक में प्रकाशित)

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नागेंद्र- दैनिक हिंदुस्तान समेत अन्य मीडिया संस्थानों के पूर्व सम्पादक

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