फिजी से आईएएस ललित मोहन रयाल की प्रवासी भारतीयों पर बनी हिंदी फिल्मों पर एक विशेष पठनीय रिपोर्ट
फिल्म पूरब पश्चिम से मानसून वेडिंग तक
फिजी के 12वें विश्व हिंदी सम्मेलन के समापन के अवसर पर भारत के विदेश मंत्री जयशंकर ने अपने संबोधन में कहा कि कल फिजी के राष्ट्रपति जी से अनौपचारिक बातचीत में हमने पूछा कि आप लोग अक्सर कहते हैं कि बॉलीवुड का हम पर बड़ा गहरा प्रभाव है तो मैं जानना चाहूंगा कि आपकी पसंदीदा फिल्म कौन सी है?
महामहिम बोले- निःसंदेह रूप से ‘शोले’। फिर उन्होंने भारत-फिजी की अटूट मैत्री की कामना करते हुए ‘ये दोस्ती हम नहीं छोड़ेंगे …’ गीत गुनगुनाया।
एनआरआईज को लेकर बॉलीवुड में तमाम फिल्में बनीं। इंडियन डायस्पोरा पर आधारित सिनेमा को लेकर मन में जो सबसे पहला नाम कौंधता है, वह है मनोज कुमार की ‘पूरब और पश्चिम’।
लंदन में बसे परिवार के मुखिया मदन पुरी को अगली पीढ़ी के भारतीय संस्कृति को हेय दृष्टि से देखने और पश्चिमी मूल्यों के अंधानुकरण की चिंता सालती रहती है। भारत वहां पढ़ने गया है।
अपनी जड़ों के प्रति उसके मन में गहरे आत्मसम्मान और विश्वास का भाव रहता है। इंडिया हाउस में आयोजित एक जलसे में जब उससे पूछा जाता है कि क्या दिया है तुम्हारे भारत ने? तो वह बड़े गर्व से कहता है ‘जीरो दिया मेरे भारत ने…’
अपने आचरण और विश्वास से आखिर वह नायिका की सोच बदलने में कामयाब हो जाता है।
‘कोई तुम जब तुम्हारा हृदय तोड़ दे…’और ‘दुल्हन चली…’ जैसे मधुर और कर्णप्रिय गीत दर्शकों को खूब सुहाए।
2007 में आई ‘नमस्ते लंदन’ लगभग इसी तर्ज पर बनी। विदेशी लड़की, देसी लड़के की अरेंज मैरिज के मामलों में वहां पली-बढ़ी पीढ़ी के मन में कुछ न कुछ सांस्कृतिक भिन्नता, अंतर्द्वंद्व तो रहता ही है। अक्षय कुमार आखिर धैर्य और शांति से दुल्हन के हृदय-परिवर्तन में सफल हो जाता है।
देवानंद अभिनीत देश परदेश (1978) में बेहतर जीवन और रोजगार की तलाश में गैरकानूनी ढंग से प्रवास करने वाले लोगों की यंत्रणा और कानूनी शिकंजे में फंसने की दास्तान बयां की गई।
म्यूजिकल हिट मेलोड्रामा ‘दिलवाले दुल्हनिया ले जायेंगे’ में नायक का पिता अनुपम खेर, बेटे की मुहिम को प्रोत्साहित करते हुए कहता है- मुझे गंगा से मतलब है। टेम्स से मुझे क्या लेना-देना?
इस कड़ी में मीरा नायर निर्देशित ‘मॉनसून वेडिंग’ खूब चर्चित रही। फिल्म में हिंदुस्तानी गांव में एक विवाह समारोह को लेकर दुनिया भर से सभी रिश्तेदार जुटते हैं। समूचे घटनाक्रम को हल्के-फुल्के अंदाज में बड़ी खूबसूरती से दिखाया गया है।
एनआरआई हों या प्रवासी उनके सामने दोहरी दिक्कत होती है। जीवन मूल्यों, समायोजन की समस्या तो आती है। एक यहां का परिवेश है, जहां से वह गए हैं। उन्हें नए परिवेश में भी ढ़लना है। कई बार ऐसा होता है कि वहां की परिस्थितियां अलग होती है। जीवन मूल्य अलग होते हैं। अपनी मातृभूमि की याद भी सताती है। नेमशेक, पटियाला हाउस, सिंह इज किंग जैसी दर्जनों फिल्में इस फेहरिस्त में शामिल हैं।
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