जीएम मक्काः पोषण सुरक्षा या पर्यावरणीय जोखिम’?

जीएम मक्का और भारतीय किसान स्वर्णिम भविष्य की राह या जोखिम भरा कदम ?

डॉ. ममतामयी प्रियदर्शिनी

कुछ सालो से मक्के की वैश्विक तौर पर बढ़ती मांग, पोल्ट्री और जानवरों के चारे के रूप में इसके बढ़ते उपयोग और एथेनॉल के उत्पादन में इसकी मुख्य भूमिका के कारण मक्के के उत्पादन को तेजी से बढ़ाने के लिए भारत सरकार की तरफ से कई स्तर पर लगातार प्रयास किए जा रहे हैं। इसी बीच द हिन्दू बिजनेस लाइन के हवाले से एक नयी खबर सामने आ रही है कि भारत सरकार द्वारा जीएम मक्के के आयात को शून्य या कम आयात शुल्क पर अनुमति देने पर विचार किया जा रहा है। इस खबर से जीएम मक्के के आयात का समर्थन करने वाले लोगों और नॉन जीएम, हाइब्रिड बीजो के उत्पादन को बढ़ाकर भारत को इस क्षेत्र में आत्मनिर्भर बनाने की कवायद करने वाले किसानों, कृषि वैज्ञानिको और पर्यावरणविदो के बीच एक गरमा गरम बहस छिड़ गयी है। जीएम मक्के की पैरवी करने वाले लोगों का मानना है कि जीएम मक्का, मक्के की मांग और आपूर्ति के बीच की खाई के अंतर को पाट सकता है और बढ़ती घरेलू खपत की आवश्यकताओं को पूरा कर सकता है। जबकि इसके आयात का विरोध करने वाले लोग, जीएम मक्के के उपयोग से मानव स्वास्थ्य पर खतरे, पारिस्थितिक स्थिरता और कृषि प्रणालियों में आनुवंशिक विविधता के नुकसान जैसे दुष्परिणामों को लेकर आशंकित हैं। इस चर्चा के केंद्र में एक अत्यंत महत्वपूर्ण मुद्दा है: क्या जीएम मक्का के आयात को मंजूरी देना, भारत में खाद्य स्वायत्तता और आत्मनिर्भरता की ओर एक आवश्यक और व्यावहारिक कदम है या क्या यह एक ऐसा पैन्डोरा-बॉक्स है जिसके खुलने पर कई ऐसे अनचाहे परिणाम सामने आयेंगे जो हमारे देश की दीर्घकालिक जैव पारिस्थितिकी एवं आर्थिक उन्नति के क्षेत्र में एक भयानक खतरा बन सकते हैं?

बिहार भारत के महत्वपूर्ण मक्का उत्पादक राज्यों में से एक है। विगत कुछ सालो में केंद्र सरकार ने यहाँ सैंतालीस इथेनॉल संयंत्रों को मंजूरी दे दी है। हमारे देश की राष्ट्रपति महोदया ने हाल में ही पटना में बिहार के चौथे कृषि रोड मैप (2023-2028) का शुभारंभ किया था। इस दौरान उन्होंने भी इथेनॉल को बढ़ाने पर जोर दिया था। बिहार में लगभग 750,000 हेक्टेयर में मक्के की खेती होती है, जो भारत के कुल मक्का क्षेत्र का लगभग 9-10% है। आईसीएआर (ICAR) के आंकड़ों के अनुसार, यहाँ मक्के की औसत उपज लगभग 5.3 टन/हेक्टेयर है, जो इस देश की राष्ट्रीय औसत उपज, लगभग 2.5-3 टन प्रति हेक्टेयर से अधिक है। इसका श्रेय किसानों की मेहनत के साथ साथ अच्छे गैर-जीएम हाइब्रिड किस्मों, बिहार की कृषि- जलवायु परिस्थितियों और उन्नत कृषि प्रथाओं को जाता है। अभी कुछ ही दिनों पहले हमारे फाउंडेशन, प्रसुभगिरी द्वारा बिहार के विभिन्न ग्रामीण क्षेत्रों में आयोजित ‘कृषि कल्याण यात्रा’ के दौरान, हमारी स्थानीय टीम ने वहां के किसानों से उनकी कृषि चुनौतियों के बारे में जानने की एक कोशिश की थी। जब मक्के की खेती करने वाले किसानों से पूछा गया कि वे अपने खेतों में मक्के की उपज बढ़ाने के लिए जीएम मक्का के बीज अपनाने से कैसे लाभान्वित होंगे, तो वो जीएम मक्का के फायदे से कम और नुकसान के प्रति ज्यादा सशंकित दिखे। विक्रम, पटना क्षेत्र के एक जागरूक किसान और समाजसेवी श्री उमाकांत शर्मा ने हमारे सवाल पर बड़े ही स्पष्ट शब्दों में कहा, हमारे खेतों से ही हमारा जीवन यापन होता हैं, यह कोई प्रयोगशाला नहीं है जहाँ हम कुछ भी उपजा कर अपने खेतों को खराब होने देंगे। जब तक इन बीजों का भारतीय मिट्टी पर, भारतीय हानिकारक कीटों के लिए लंबे समय तक पूर्ण परीक्षण नहीं किया जाता, तब तक हम जीएम् मक्के के बीजो को प्रश्रय नहीं दे सकते।। उनके शब्द हल्के में लेने वाले नहीं हैं। वो उनकी इस चिंता को दशति हैं कि स्थानीय परिस्थितियों में व्यापक परीक्षण के बिना जीएम फसलों की शुरुआत के संभावित दुष्परिणाम क्या हो सकते हैं? दतियाना गाँव के एक अन्य किसान श्री मनोज शर्मा, जिनके पास लगभग 40 एकड़ जमीन है, ने जी एम मक्के की बीटी कपास के साथ तुलना की। उन्होंने कहा, बी टी कपास ने हमारा कितना नुकसान किया है ये किसी से छिपा नहीं है। हम किसान, फिर से इस लुभावने अनदेखे सपनो के बिना पर अपने आपको दुबारा कुछ विदेशी बीज कंपनियों के झांसे में नहीं आने देंगे। श्री रजनीश कुमार, जो एक किसान उत्पादक संगठन (एफपीओ) से जुड़े हैं उन्होंने जीएम मक्का के दीर्घकालिक प्रभावों पर व्यापक अध्ययन के बिना आने वाली पीढ़ियों के स्वास्थ्य को खतरे में डालने की आशंका व्यक्त की। भारत के अन्य प्रमुख मक्का उत्पादक राज्यों के कई किसान संगठनों और पर्यावरणविदों को भी कमोवेश यही डर सता रहा है। दक्षिण भारत के सबसे बड़े किसान संघों में से एक, कर्नाटक राज्य रैथा संघ ने 2024 से 2026 तक MLS4301 और MLS 2531 ट्रांसजेनिक कपास और मक्का किस्मों के क्षेत्र परीक्षणों के लिए राज्य जैव प्रौद्योगिकी समन्वय समिति द्वारा NOC देने के निर्णय का विरोध किया है। मध्य प्रदेश के कई किसान संगठनों ने भी जीएम मक्का के छोटे पैमाने के किसानों की आजीविका पर संकट के बारे में गहरी चिंता व्यक्त की है। के हाथ में अपनी संप्रभुत्ता नहीं सौंप सकते पर

मक्के की खेती के क्षेत्र में भारत चौथे स्थान और उत्पादन में सातवें स्थान पर है, जो विश्व के मक्का क्षेत्र का लगभग 4% और कुल उत्पादन का 2% है (स्रोत: IIMR)। देश ने अब तक जीएम मक्का बीजो को अपनाने से परहेज किया है। यह एहतियात हमारे उन सिद्धांतों के अनुरूप हैं जो कई यूरोपीय देशों ने अपनाए हैं, जिसमें उन्होंने जैव-विविधता, पर्यावरणीय प्रभाव, कीट प्रतिरोध और दीर्घकालिक सुरक्षा अध्ययनों की कमी जैसे मुद्दों को देखते हुए जीएम मक्का के आयात पर प्रतिबंध लगाया है। हाल ही में मेक्सिको सरकार की जीएम मक्का पर अमेरिकी व्यापार विवाद के प्रति प्रतिक्रिया ने इस डर को और भी ज्यादा बढ़ा दिया है। मेक्सिको ने आनुवंशिक रूप से संशोधित मकई से जुड़े संभावित स्वास्थ्य जोखिम को दर्शाते हुए कई वैज्ञानिक साक्ष्य प्रस्तुत किए हैं, जो जैविक रूप से संशोधित मक्का के संभावित स्वास्थ्य खतरों को दशति हैं, विशेष रूप से BT किस्मों से जुड़े एपिजेनेटिक परिवर्तन जो आने वाली पीढ़ियों में हस्तांतरित हो सकते हैं, तथा मक्के के एंटीबायोटिक प्रतिरोधक क्षमता में वृद्धि या पोषण मूल्य में कमी हो सकती है।

आज जब जीएम मक्के के आयात पर रोज चर्चा हो रही है, हमारा भारत किसानों का देश है, अतः हमारी सरकार को भारतीय किसानों के हित को ध्यान में रखना सर्वोपरि है। यहाँ किसानों के लिए उनकी जमीन, महज जीवन यापन का साधन नहीं बल्कि आर्थिक उन्नति के सपनों की कुंजी है। वे केवल प्रौद्योगिकी से डरने वाले या नासमझ लोग नहीं हैं, बल्कि वे ये जानते हैं कि जीएम फसलों का मृदा स्वास्थ्य, कीट प्रतिरोध और मानव स्वास्थ्य पर बुरा प्रभाव हो सकता है। अतः नीति निर्धारकों को जीएम मक्का के आयात की जल्दबाजी करने के बजाय, भारत में उच्च उपज देने वाली संकर मक्का किस्मों के विकास और प्रचार पर अधिक ध्यान केंद्रित करना होगा जैसा कि बिहार के किसान उमाकांत शर्मा ने उदाहरण के रूप में इंगित किया है। इसके अतिरिक्त, सरकार के लिए यह महत्वपूर्ण है कि जीएम फसलों को अपनाने के पहले इन आशंकाओं को ध्यान में रखा जाए, खासकर भारत जैसे राष्ट्र में जहां कृषि केवल आर्थिक गतिविधि नहीं है बल्कि सांस्कृतिक परंपराओं, सामाजिक प्रणालियों और पारिस्थितिक प्रक्रियाओं का एक ताना बाना है। वर्तमान समय में, मक्के की आपूर्ति की चुनौतियों को हल करने के लिए जीएम मक्का आयात जैसे अस्थायी समाधानों पर निर्भर होने के बजाय, भारत को उन कृषि पर्यावरणीय विधियों में निवेश करना चाहिए जो जैव-विविधता, मृदा उर्वरता और जलवायु परिवर्तन लचीलापन को प्रोत्साहित करती हैं। अंततः, जीएम मक्का का आयात करने या न करने का निर्णय, सभी हितधारकों, यथा किसानों के प्रतिनिधियों, वैज्ञानिकों, सामाजिक संगठनों आदि द्वारा व्यापक तथा आपसी चर्चाओं पर आधारित होना चाहिए। कुल मिलाकर हमें शॉर्टकट के प्रलोभनों में ना पड़कर, मक्के की खेती में आने वाली चुनौतियों के प्रति स्थायी समाधान अपनाना चाहिए, अपने गैर-जीएम मक्का किस्मों के बीजों, तकनीकी ज्ञान को महत्व देना चाहिए, विविध कृषि जैव-विविधता को बढ़ावा देना चाहिए और किसानों को, जो सही मायने में हमारे अन्नदाता हैं, उन्नत बीज द्वारा अमृतमय भोजन के उत्पादक और उनकी भूमि के संरक्षक के रूप में सशक्त बनाना चाहिए।

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