डॉ. ममतामयी प्रियदर्शिनी
हमारे देश की खाद्य सुरक्षा और कृषि स्थिरता की समस्याओं का हल खोजने के प्रयासों में मक्का की खेती को एक महत्वपूर्ण भूमिका दी जाती है। आजकल, भारत में आनुवंशिक रूप से संशोधित (जीएम) मक्के के आयात और गैर-जीएम मक्के के उत्पादन को लेकर लगातार बहस हो रही है। बीटी कॉटन के आयात में सरकार की हड़बड़ाहट जैसे पिछले कड़वे अनुभवों से सबक लेते हुए यह बात बार-बार उभरकर आती है कि भारत के किसानों की स्वायत्तता को विदेशी कंपनियों के हाथों में सौंपना सही नहीं है। सरकार को आयातित जीएम मक्के को जादू की छड़ी मानने की बजाय गैर-जीएम मक्के की खेती पर ध्यान केंद्रित करना चाहिए। यह भारत के किसानों और उपभोक्ताओं के लिए अधिक श्रेयस्कर होगा।
भारत में मक्के की खेती के लिए अनुकूल परिस्थितियां उपलब्ध हैं, जैसे कि अच्छे किसान, उपजाऊ मिट्टी, अनुकूल जलवायु और उन्नत बीज। जरूरत है तो बस सरकार की तरफ से किसानों को उचित प्रोत्साहन देने की और देश के मक्के के किसानों की क्षमता पर भरोसा करने की। रिसर्च, सप्लाई और मार्केटिंग में निजी कंपनियों को बढ़ावा देने की भी जरूरत है। इसके अलावा, सरकार को यह विश्वास रखना चाहिए कि बिना जीएम मक्के का आयात किए भी भारत मक्के के क्षेत्र में विश्व का सबसे बड़ा उत्पादक देश बन सकता है।
भारत मक्के के उत्पादन में वैश्विक स्तर पर अग्रणी देशों में गिना जाता है। कर्नाटक, मध्य प्रदेश, बिहार, तमिलनाडु, तेलंगाना, महाराष्ट्र, आंध्र प्रदेश जैसे राज्यों में मक्का की खेती प्रमुखता से की जाती है। हाल ही में खबर आई है कि असम के किसान भी मक्के की खेती तेजी से अपना रहे हैं। भारत में गैर-जीएम मक्का की खेती करने वाले किसानों की सफलता की कहानियाँ अन्य छोटे और मंझोले किसानों को भी उत्साहित कर रही हैं। इन किसानों को समझ आ रहा है कि आज मक्के की बढ़ती मांग के कारण चावल और गेहूं से इतर मक्के की खेती में आर्थिक विकास की कुंजी छुपी हुई है।
महाराष्ट्र के नासिक जिले से आने वाले श्री संदीप शंकर शिरसाठ इसका एक जीता-जागता उदाहरण हैं। उन्होंने आत्मिक बल, उन्नत बीजों और सरकारी योजनाओं का लाभ उठाकर मक्के की खेती करके अपनी आर्थिक स्थिति को ऊँचा किया। संदीप शिरसाठ ने 2018 में मात्र आधे एकड़ भूमि पर मक्के की खेती शुरू की थी, और अब उन्होंने इसे 1.5 एकड़ तक बढ़ा दिया है। उनकी सिंचाई पद्धतियाँ भी काबिलेतारीफ हैं, जिसमें उन्होंने वर्षाजल संचयन और तालाब का उपयोग किया है। उनकी कुल लागत लगभग 20,000-25,000 रुपये प्रति एकड़ है, जबकि बिक्री 80,000-90,000 रुपये तक होती है। कोई प्राकृतिक आपदा या बाहरी व्यवधान न होने पर उन्हें 55,000-65,000 रुपये प्रति एकड़ की शुद्ध आय होती है। पिछले कुछ सालों से उन्नत बीजों का उपयोग करने से उपज 25-35 क्विंटल से बढ़कर 45 क्विंटल प्रति एकड़ हो गई है। पोल्ट्री फीड कंपनियों और स्थानीय व्यापारियों से उन्हें उचित मूल्य मिलता है, जो गैर-जीएम मक्का के लिए एक मजबूत बाजार का संकेत है।
हालांकि, उनकी राह में कई चुनौतियाँ हैं, जैसे समय पर उन्नत बीजों की उपलब्धता और सरकारी प्रोत्साहन की कमी, जो उनके उत्पादन को प्रभावित कर सकती हैं। हमारे देश में ऐसे सफल उदाहरणों की कोई कमी नहीं है। गैर-जीएम मक्के के बीजों में भारत के किसानों की आर्थिक निर्भरता का रास्ता छुपा हुआ है। इनके उत्पादन में टिकाऊ खेती के तरीकों का उपयोग किया जाता है, जिससे रसायनों पर निर्भरता कम होती है और जैव विविधता को बढ़ावा मिलता है। गैर-जीएम मक्के की खेती स्थानीय पौधों की किस्मों को संरक्षित रखती है। कुछ बीज अनुकूल परिस्थितियों में ट्रांसजेनिक बीजों से ज्यादा या समान उपज दे सकते हैं।
भारत में मक्के की बढ़ती मांग और सप्लाई की कमी को पाटने के लिए जीएम मक्के के बीजों का आयात एकमात्र रास्ता नहीं है। कुछ स्वास्थ्य विशेषज्ञ, उपभोक्ता और पर्यावरणविद इसके संभावित दीर्घकालिक स्वास्थ्य परिणामों को लेकर चिंतित हैं। गैर-जीएम खाद्य पदार्थ और उत्पाद दुनियाभर में तेजी से लोकप्रिय हो रहे हैं। भारतीय किसानों को गैर-जीएम मक्के पर ध्यान केंद्रित करने की जरूरत है, ताकि वे आकर्षक गैर-जीएम निर्यात बाजारों का लाभ उठा सकें।
निष्कर्ष
भारत जैसे देश में जहाँ किसानों का कल्याण सरकार की सबसे महत्वपूर्ण प्राथमिकताओं में से एक है, टिकाऊ खेती के तरीकों और एकीकृत कीट प्रबंधन को अपनाना प्राथमिकता होनी चाहिए। जीएम फसलों से होने वाले पारिस्थितिक प्रभावों के डर से किसान गैर-जीएम किस्मों की ओर लौट रहे हैं। हमारे देश की विशाल कृषि भूमि में गैर-जीएम मक्का किस्मों को बढ़ावा देकर मक्का उत्पादन पर आत्मनिर्भरता प्राप्त करने की क्षमता है। फ्रांस और इटली जैसे देश बिना जीएम पर निर्भर हुए भी मक्के की उपज में अग्रणी हैं। ये देश खेती के उन तरीकों को प्राथमिकता देते हैं, जो मिट्टी के स्वास्थ्य और जैव विविधता को संरक्षित रखते हैं, और आनुवंशिक रूप से संशोधित फसलों से संबंधित जोखिमों से बचते हैं।
संदीप जैसे मक्के के कई किसानों ने दिखाया है कि गैर-जीएम मक्के की उपज अत्यंत लाभदायक हो सकती है। कम इनपुट लागत और गैर-जीएम किस्मों के बीजों को बढ़ावा देने के लिए अधिक नीतिगत हस्तक्षेप के साथ यह लाभप्रदता गैर-जीएम मक्के को भारतीय किसानों के लिए एक आर्थिक रूप से व्यवहार्य विकल्प बनाती है। कृषि विकास और खाद्य सुरक्षा के जटिल मार्ग पर भारत के आगे बढ़ने में गैर-जीएम मक्के की खेती को मुख्यधारा में लाने से यह देश दुनियाभर में बेहतर कृषि नेतृत्व की ओर अग्रसर हो सकता है और साथ ही साथ अपने देश और बाहर गैर-जीएम खाद्य वस्तुओं की बढ़ती मांग को पूरा कर सकता है।
डॉ. ममतामयी प्रियदर्शिनी
पर्यावरणविद एवं सामाजिक कार्यकर्ता
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