बोल चैतू : कोरोना संकट में नही सुनी विजय जी की आहट
अविकल थपलियाल
विजय बहुगुणा। यह नाम आते ही आंखों के सामने एक साथ कई तस्वीर उभरने लगती है। देश के बड़े नेता स्वर्गीय हेमवती नंदन बहुगुणा के सुपुत्र। मुम्बई उच्च न्यायालय के पूर्व जज। उत्तराखंड के पूर्व मुख्यमंत्री। पूर्व मुख्यमंत्री जनरल खंडूड़ी के ममेरे भाई। उत्तराखंड की राजनीति में स्वर्गीय नारायण दत्त तिवारी गुट के। 2002 में हरीश रावत को रोकने व तिवारी जी को मुख्यमन्त्री पद के लिए मनाने में विजय बहुगुणा की विशेष भूमिका। हरीश रावत सरकार गिराने में अहम रोल। केदारनाथ आपदा …गैरसैंण ….आदि-आदि।
मार्च 1989 में उत्तर प्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री व केंद्रीय मंत्री एच. एन. बहुगुणा की मौत के बाद राजनीति में उतरे। लेकिन टिकट सतपाल महाराज ले उड़े। बाद के वर्षों में पौड़ी लोकसभा चुनाव हारने के बाद टेहरी लोकसभा से किस्मत आजमाई। 2008 में हुए उपचुनाव में पहली बार सांसद बने। 2009 में फिर जीते। और 2012 में हरीश रावत को धकेल खुद मुख्यमन्त्री बन गए। उपचुनाव जीत विधानसभा में पहुंचे। 2014 की शुरुआत में कुर्सी से हटे। और फिर 2016 में हरीश सरकार गिराते हुए अपनी फौज के साथ भाजपा दुपट्टा ओढ़ लिया। एच एन बहुगुणा जिंदगी भाजपा के विरोध में खड़े रहे लेकिन विजय जी ने समय की आवाज सुन पिता की विचारधारा के उलट राह पकड़ी।
देखा जाय तो विजय बहुगुणा की संसदीय पारी 2008 के शुरुआती महीने से 2016 की जनवरी तक चली। 2016 में विजय जी के नेतृत्व में हरीश रावत की सरकार गिराई गयी। उस समय राजनीतिक हलकों में विजय जी और अमित शाह की गहरी दोस्ती की खबरें खूब आम हुई। लेकिन जब-जब भाजपा नेतृत्व ने राज्यपाल,राज्यसभा सदस्य व लोकसभा चुनाव के लिए दूरबीन लगाई तो विजय बहुगुणा का नाम दूरबीन के मुख्य फोकस में नही आ सका। 2019 के लोकसभा चुनाव में टेहरी में माला राजलक्ष्मी भाजपा की पसन्द बनी। राज्यपाल की गणित में भगत दा बाजी मार ले गए। राज्यसभा टिकट में भाजपा ने विजय बहुगुणा पर युवा अनिल बलूनी को तरजीह दी। कांग्रेस में भयंकर तोड़फोड़ कर हरीश रावत सरकार को अस्थिर करने का विजय बहुगुणा को कोई व्यक्तिगत ईनाम नही दिया। भाजपा ने अपने मूल कैडर पर ही भरोसा जताया।
2016 से अभी तक विजय बहुगुणा को तो कुछ नही मिला। लेकिन उनकी बहन रीता बहुगुणा जोशी उत्तर प्रदेश की योगी सरकार में मंत्री बनने के बाद अब सांसद है । इसके अलावा सुपुत्र सौरभ बहुगुणा सितारगंज सीट से भाजपा विधायक है। चर्चा यह भी रही है कि स्वर्गीय बहुगुणा अपने पुत्र विजय को प्रिंस कहकर पुकारते थे। विजय बहुगुणा का स्टाइल किसी प्रिंस से कम नही था। हर किसी से हाथ भी नही मिलाते थे। सजीली पोशाक खास पहचान रही। बातचीत व स्टाइल में इलीटपन खूब झलकता रहा। बतौर मुख्यमन्त्री टेबल पर फाइल का कोई चट्टा नही रहता था। कहते थे, देखो सभी फ़ाइल क्लियर कर दी।
दरअसल, कोरोना के इस आतंकी मौसम में अचानक विजय जी की क्यों और कैसे याद आ गयी। यह सवाल आपको मथने भी लगा होगा। चैतू को भी मथ रहा था। आखिर,,प्रदेश की राजनीति में उलटफेर के महारथी बहुगुणा कोरोना संकट में कहीं नजर नही आये। उत्तराखंड में कहीं राशन सामग्री बांटते ही दिख जाते। स्वर्गीय बहुगुणा होते तो गरीब मजदूरों की यह हालत देख सड़क पर जरूर उतर जाते। कोई नही छोटे बहुगुणा मैदान में नही उतरे तो क्या। दिल्ली से प्रवासियों को उत्तराखंड छुड़वाने में अपने प्रभाव का इस्तेमाल कर लेते। केंद्र से अपने गहरे सम्बन्धों का उपयोग कर अन्य प्रदेशों में फंसे पहाड़ियों की चिंता ही कर लेते। केंद्र सरकार को ही सुझाव दे देते।
प्रदेश के महारथियों में आप शुमार है। केदार आपदा से कम नही है ये कोरोना आपदा। ट्रेन व बसों में सैकड़ों कोरोना पॉज़िटिव उत्तराखंड भेजे गए। कई प्रवासी पैदल ही अपने वतन लौटे। अब तो जमाना डिजिटल का है। उत्तराखंड की चिंता से जुड़े एक अदद वीडियो ही जारी कर देते। ट्वीटर या फेसबुक में बयान ही जारी कर देते। वर्चुअल संदेश ही दे देते। खुद उत्तराखंड नही आ पाए तो क्या अपने नाम का बैनर लगवाकर समर्थकों से मास्क, सेनेटाइजर और राशन ही बंटवा देते। बतौर पूर्व मुख्यमंत्री कुछ तो हक अदा कर दिया होता। हम पहाड़ियों के दिलों में छप छपी पड़ जाती। चैतू भी रंगा की तरह खुश हो जाता। प्रणाम…शुभ रविवार।
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(अगर कोरोना काल में पूर्व मुख्यमंत्री जी ने सार्वजनिक तौर पर जनता का दर्द बांटा हो और चैतू की दृष्टि नही गई हो तो फिर हाथ जोड़कर माफी तो बनती है आदरणीय बहुगुणा जी)
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सुंदर और सटीक विश्लेषण !
बहुत शुक्रिया