“यह वर्दी तुम्हारे बाप की ग़ुलामी करने के लिए नहीं है !”…गुजरात पुलिस की एक महिला कांस्टेबल का मंत्री के बेटे के साथ लंबे संवाद का यह हिस्सा दरअसल उस भांग के गहरे चढ़े नशे को काटने की शुरुआत हो सकता है, जिसकी आज बहुत ज्यादा जरूरत है। यह ‘पुलिस सुधार’, ‘राजनीति सुधार’, ‘ब्यूरोक्रेसी सुधार’ जैसी बहसों के लिये एक नया प्रस्थान बिंदु भी साबित हो सकता है।
गुजरात पुलिस की इस युवा और तेजतर्रार सिपाही का जैसा वीडियो वायरल हुआ है और इसमें जो कुछ भी रेकार्ड हुआ है, वह सब अगर वैसा ही है तो पुलिस के लिए खुद पर गर्व करने और राजनेताओं के लिए खुद पर शर्म करने की बात है। पुलिस के लिए इसलिए गर्व करने की बात है, कि उसकी एक सिपाही ने एक चलते चैराहे पर, एक कार को लॉकडाउन का उल्लंघन करने से रोका और उसके सवार को ‘कर्फ्यू’ में बेवजह बाहर निकलने और ‘फेस मास्क’ न लगाने पर नसीहत दी! इसलिए गर्व होना चाहिए कि उसने यह सब, जानने के बाद भी किया कि सामने वाला किसी नेता का बिगड़ैल लाडला है! इसलिए गर्व होना चाहिए कि उसने यह सब जानने के बाद भी अपनी बात में ढील नहीं आने दी! इस बात पर गर्व होना चाहिए कि मंत्री के फोन लाइन पर आने के बाद भी उसने अपनी बात उसी मजबूती से रखी! उनसे पूछा कि उनका पुत्र होने के कारण क्या उसे कुछ भी करने, नियम-कानून न मानने की छूट मिल जाती है! और पुलिस को इस बात पर भी गर्व होना चाहिए कि विधायक पुत्र, मंत्री पुत्र और खुद मंत्री से भी बात करते हुए उसने एक बार भी अपना टेम्पर लूज नहीं किया। मतलब उसने एक बार भी ‘पुलिसिया बदतमीजी’ नहीं की। हाँ, उसने पुलिसिया अख्तियार और उससे हासिल स्वर में नरमी भी नहीं आने दी!
… और उस राजनेता को इस बात पर शर्म करनी चाहिए कि सब कुछ जानने के बावजूद वो बेटे के फोन पर ही सही, सुनीता से बात करने (या शायद औकात बताने) लाइन पर आ गया! भले ही सुनीता के स्वर में सधा दम देख, कोई बदमिजाजी तो नहीं दिखाई, लेकिन खुद के होने का अहसास दिलाने से खुद को रोक भी नहीं पाया! ‘रुतबे वाली गाड़ी’ यानी मंत्री या विधायक लिखी प्लेट वाली गाड़ी पर बेटे के सैर करने वाले सवाल पर इतना तो बोल ही दिया कि ‘नियम कानून मत बताओ…पकड़ लो’…जाहिर है इसमें देख लेने वाला रुआब अंतर्निहित था।
लौटते हैं, पुलिस पर, उसके आला अफसरों पर…
यहीं पर थोड़ा शर्म करने, थोड़ी चिंता करने की बात है। शर्म और चिंता की बात इसलिए कि शिकायत करने पर अफसर सुनीता से कह रहे हैं- ‘आपकी ड्यूटी तो हीरा बाजार बंद करवाने की है, न कि नाइट कर्फ्यू सम्भालने की!’ (इस पर सुनीता का जवाब है- ‘रात को 10 बजे के बाद कर्फ्यू है तो किसी को कैसे आने-जाने दें, यह भी तो पुलिस
की ड्यूटी है.’) इसके बाद अफसर से ठीक-ठाक संवाद है, जो सुनीता के संयम और उनके अंदर की दृढ़ महिला और वर्दी के प्रति उनकी निष्ठा का प्रमाण है।
यह वाकया मौजूदा वक़्त में फिर से शुरू हुई एक पुरानी बहस को एक नया चेहरा देता दिखाई पड़ता है। हमें बताता है कि ‘पुलिस सुधार’ की जिस शुरुआत की हम लंबे समय से बात कर रहे हैं, दरअसल यह उसी सुधार का एक पहलू है और उस बहस का नया और एकदम ताजा प्रस्थान बिंदु भी…
लेकिन यह नया प्रस्थान बिंदु तभी बन पाएगा, जब पुलिस के अंदर के लोग अपने अंदर की सुनीताओं या ऐसे सिपाहियों की पीड़ा को न सिर्फ समझेंगे, बल्कि उनकी पीठ पर हाथरखकर, उन्हें सम्बल देकर, सम्मान के साथ पुलिस की नौकरी को नई गरिमा देने का अवसर प्रदान करेंगे।
लखनऊ की वह घटना
नेताओं की बिगड़ैल सन्तानों और नेताओं के पाले गुंडों की पुलिस से बदमिजाजी कोई नई बात नहीं। याद कीजिये लखनऊ की वह घटना जब एक रईसजादे ने एक बहादुर पुलिस वाले को लखनऊ की सड़कों पर अपनी कार के बोनट पर ‘चिपकाकर’ शहर में कितनी दूर तक घुमाया था, लेकिन उस रईस जादे का अन्ततः क्या हुआ, कुछ पता नहीं? मतलब नजीर पेश करने जैसा तो कुछ नहीं ही हुआ था!
वाराणसी की नजीर!
ज्यादा दूर न जाकर अभी चंद रोज पहले वाराणसी की बात कर लें तो फिर एक ताजा उदाहरण सामने मौजूद है. यह घटना भी पुलिस के मनोबल और राजनीति की पुलिस पर बढ़ती आक्रामकता का विद्रूप भरा उदहारण है, जब वाराणसी के लंका थाना क्षेत्र में सत्तारूढ़ दल के एक नेता के भतीजे को मास्क न पहनने पर टोकने के लिये पुलिस वालों से न सिर्फ जमकर कहासुनी हुई, बल्कि वीडियो गवाह है कि उन्हें थप्पड़ भी खाने पड़े. इतना ही नहीं बाद में इस ‘अपराध’ के लिए थाने के इंस्पेक्टर, दरोगा और कई सिपाहियों का निलम्बन तक हो गया. सीओ भी विदा हो गईं और कहा तो यह भी जाता है कि दो दिन बाद एसएसपी की भी विदाई के मूल में भी इस मामले में ‘उनके’ द्वारा मनमाफिक कार्रवाई न करना ही था. कहना न होगा कि वाराणसी प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का संसदीय क्षेत्र है और सूबे में भी उन्ही की सरकार है. सो पुलिस को उसकी ‘सीमा’ दिखाई ही जानी चाहिए थी. लेकिन भला हो इस पूरी कार्रवाई का कि इसमें कोई सुनीता दम बढाकर आगे नहीं निकली, वरना शायद वह भी एक नजीर ही बनती या बनता.
याद करने को, याद दिलाने को ऐसी तमाम घटनाएं हैं! ऐसी भी घटनाएं कम नहीं हैं जब बिगड़ैलों की करत्तूत के बाद वर्दी का रंग ही फीका पड़ा है और ऐसे भी उदाहरण हैं जब वर्दी ने अपने अंदर की ताकत को पहचाना है और समय-समय पर अपने सीनियर या सीनियरों को भी इसका अहसास कराया है।
चौबेपुर का विकास
याद दिलाने को तो वह भी घटना है जब अब से 18-19 साल पहले विकास दुबे नाम के एक नामालूम से मनबढ़ ने कानपुर में एक दर्जा प्राप्त मंत्री की भरे थाने में हत्या कर दी थी और 25 पुलिस वाले बाद में इस तरह उस हत्याकांड की गवाही देने से मुकर गए या मुकरा दिए गए थे, मानो उन्होंने कुछ देखा ही न हो. इस कदर मुकर गये थे कि उसी के बल पर ‘दोषमुक्त’ होकर बाहर आया वह गुंडा, उन्हीं की छाती पर पैर रखकर, अनवरत विकास करते हुए विकास के उस चरम पर पहुंचा कि आज 8 पुलिस वालों की हत्या तक कर डाली और जांबाजी के नाम पर पुलिस वाले उसे जिन्दा गिरफ्त में लेने की ‘अकल्पनीय’ हकीकत के बावजूद उस हकीकत को पचा नहीं पाए और उसे असमय-अनायास ढेर कर दिया. असमय और अनायास इसलिए कि जब वो हाथ आ ही गया था तो उससे कुछ ऐसे बड़े राज उगलवा लिये जा सकते थे जो खुद पुलिस को सर उठा के नौकरी करने का सम्बल दे जाता. जाने कितने ऐसे चेहरे बेनकाब कर जाता, जो पुलिस के लिए भी ‘कांटा’ बने रहते हैं.
दरअसल यह चेहरा नहीं एक प्रवृत्ति है, जिसे बेनकाब कर पुलिस दूर से दिखने वाली लकीर खींच सकती थी। याद दिला दें कि उस विकास ने ‘मंत्री’ की हत्या से पहले अपने एक टीचर की भी कुछ-कुछ मंत्री वाले अंदाज में ही हत्या की थी और पुलिस उसके गवाह भी नहीं तलाश पाई थी. यहाँ विकास के एनकाउंटर को इस शर्त पर कि ‘छूट जाता तो वो भी…’, सही ठहराने वालों से सिर्फ इतना ही कि ऐसे अपराधी जब भी अदालत से छूटे हैं, उसमें अभियोजन की कमजोर-लचर पैरवी बड़ा कारण रहा है, जिस पर अदालतें तक टिप्पणी कर चुकी हैं. मेरा मकसद भी इसी प्रवृति की ओर इशारा करने का है कि जिस दिन पुलिस चाह लेगी, न ये अपराधी रह जायेंगे, न अपराधी-राजनीति का गठजोड़ ऐसा रह जायेगा और न तब पुलिस को ऐसे दाग साफ करने के लिए किसी ऐसे डिटर्जेंट के तलाश करनी होगी, जो तमाम गुणों के बावजूद हर ऐसे दाग पर और हर बार बेमानी साबित हुआ है.
जाहिर है, यूपी के चौबेपुर थाने में 20 साल पहले हुई मंत्री की हत्या में अगर थाने में मौजूद सारे के सारे पुलिसवाले मुकर गये थे, तो उसके पीछे बड़ा कारण रहा होगा। राजनीति का दबाव भी होगा और अपने अफसरों का ‘असहयोग’ या कह लें कि ‘…फिर अंजाम भी खुद ही भुगतना…’ वाले अंदाज की आम-फहम चेतावनी। कुल मिलाकर यह कि पुलिस ने अपने अंदर के लोगों को सम्बल नहीं दिया होगा और राजनीति ने एक साथ पुलिस और गुंडे दोनों को अपने इशारे पर नचाया होगा… दरअसल विकास जैसे गुंडे इसी ‘इशारे पर नचाने’ की पैदाइश होते हैं, और पुलिस बाद में कुछ नहीं कर पाती है। कुछ करने लायक रह ही नहीं जाती है. पुलिस को ऐसे ही ‘विकास’ और विकासों को बनने देने से रोकने की शुरुआत करनी होगी… हां, जब अति हो जाए तो सारे मठ-गढ़ तोड़कर एक नई शुरुआत ही करनी होती है। और यह शायद उस शुरुआत का सबसे मुफीद समय है।
एक पुलिस वाले (अफसर नहीं) की इस बात में काफी दम है कि ‘पुलिस में सुधार से पहले, पुलिस को खुद के अंदर सुधार लाना होगा और गुजरात की सुनीता यादव इस खुद के अंदर के सुधार की मजबूत कड़ी बन सकती थी, अगर खुद पुलिस ने ही उसके जज्बे की उपेक्षा कर उसे इस्तीफ़ा देने पर मजबूर न कर दिया होता’. वैसे ताजा खबर यही है कि अफसरों ने सुनीता का इस्तीफ़ा मंजूर न करते हुए इस मामले में दोषियों पर एक्शन लेने की बात कही है. यदि वाकई ऐसा है तो इसे सुखद शुरुआत और एक पहल मानकर स्वागत किया जाना चाहिये.
दरअसल यह आचरण सुधार का मामला है और आचरण का यह सुधार बहुत दूर तक असर कर सकता है, दूरगामी नतीजे दे सकता है. बस पुलिस के हर एक अफसर, हर एक जवान को खुद के अंदर वह ताब लानी होगी… कि बहुत हुआ तो मेरा तबादला ही तो करवा दोगे… जाहिर है यह ताब लाने के लिए छोटे-छोटे हित, छोटे-छोटे लाभ छोड़ने के लिए तत्पर रहना होगा. खुद एक नजीर बनना होगा. उससे भी पहले खुद के लिए, खुद के अंदर से एक नजीर पेश करना होगा.
नागेंद्र, हिंदुस्तान अखबार के बनारस, गोरखपुर, लखनऊ, पटना, भागलपुर व दिल्ली संस्करण के सम्पादक रहे हैं। हिंदुस्तान के अलावा अन्य प्रमुख अखबारों में भी कार्य किया है। उत्तर प्रदेश व बिहार की पत्रकारिता का जाना माना नाम।कमोबेश हर मुद्दे पर प्रभावी लेखन नागेंद्र जी का विशेष गुण रहा है।
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