फिल्मी दुनिया के लॉयन और …मोना डार्लिंग अभी भी दिलों में कैद है, अजीत ने अपने किरदारों में फूंकी जान
– वीर विनोद छाबड़ा
देख तेरे संसार की हालत क्या हो गयी भगवान कितना बदल गया इंसान…मित्रों आपने ‘नास्तिक’ (1954) का ये गाना ज़रूर सुना होगा, कभी बुज़ुर्गों से तो कभी पुराने गानों के शौक़ीन गाने-बजाने वालों के मुख से। चौंसठ साल पहले राष्ट्रीय कवि प्रदीप ने इसे न सिर्फ लिखा बल्कि गाया भी था। न सुना हो तो यूट्यूब पर मिल ही जाएगा। ये हामिद अली ख़ान उर्फ़ अजीत पर फिल्माया गया था, उस दौर के हीरो थे। हैदराबाद के गोलकुंडा से भाग कर आये थे। पचास के सालों में तक़रीबन पचास-साठ फिल्मों में वो हीरो तो रहे ही थे। मगर बदक़िस्मती ये रही कि उनकी फ़िल्में सिल्वर जुबली नहीं होती थीं। लिहाज़ा बड़े फ़िल्मकार उनसे कतराया करते थे। जब बी.आर.चोपड़ा जैसे नामी प्रोड्यूसर-डायरेक्टर ने उन्हें ‘नया दौर’ (1957) के लिए दिलीप कुमार के समानांतर रोल का ऑफर दिया तो वो गहरी सोच में पड़ गए, ये सपना तो नहीं? बड़े लोग हैं, सामना कैसे करूँगा? जैसे-तैसे उन्होंने दिल को समझाया। और दुनिया गवाह है कि अजीत ने दिलीप साब के सामने कमाल की एक्टिंग की…ये देश है वीर जवानों का अलबेलों का….।
मगर ‘नयादौर’ के सुपर हिट होने बावजूद उन्हें बड़ी फ़िल्में नहीं मिलीं। के.आसिफ़ की ‘मुगल-ए-आज़म’ ज़रूर मिली जिसमें वो सलीम के वफ़ादार साथी राजपूत दुर्जन सिंह थे और अनारकली को अकबर की क़ैद से आज़ाद कराके भी लाये थे। सलीम की दोस्ती की खातिर अपनी जान भी दे दी। इसकी ज़बरदस्त क़ामयाबी के बाद भी अजीत को बी-ग्रेड फ़िल्में मिलीं। उनका दिल तो टूटा ही, फिल्मों का टोटा भी पड़ गया। हैदराबाद लौट जाने का मन बना लिया। तभी दोस्त राजेंद्र कुमार ने उन्हें प्रस्ताव दिया। साउथ के टी.प्रकाशराव को ‘सूरज’ (1966) के लिए खलनायक चाहिए। दरअसल, वो प्रेमनाथ को चाहते हैं, मगर हीरोइन वैजयंतीमाला को ऐतराज है। आप कर लो, खाली बैठे रहने से तो बेहतर है। अजीत असमंजस्य में पड़ गए, खलनायकी का ठप्पा लग जाएगा। राजेंद्र कुमार ने समझाया, खलनायक को एक्टिंग का स्कोप ज़्यादा होता है। और इस तरह वो नायक से खलनायक बन गए। रुकी हुई गाड़ी चल पड़ी।
1973 में ‘ज़ंजीर’ वरदान साबित हुई। उन्हें सेठ धर्म दयाल तेजा के निगेटिव रोल के लिए साइन किया तो प्रकाश मेहरा ने उन्हें कुछ माफ़ियाओं से मिलने की सलाह दी। और जब ज़ंजीर रिलीज़ हुई तो अमिताभ बच्चन का नया अवतार तो दिखा ही अजीत ने खलनायक के किरदार को एक नए अंदाज़ में पेश किया, बिलकुल सॉफ्ट मगर जटिल, उच्च श्रेणी की असरदार सामाजिक शख़्सियत। भीतर से वो माफिया डॉन है, नशीले पदार्थ और सोने के बिस्कुट की तस्करी करता है।
दर्शकों ने पहली बार देखा कि विलेन चीखता-चिल्लाता नहीं है और हर समय बढ़िया परिधानों में सुसज्जित रहता है। और फिर अजीत छा गए। यादों की बारात, शरीफ़ बदमाश, कहानी किस्मत की, जुगुनू, धर्मा, छुपा रुस्तम,पत्थर और पायल, खोटे सिक्के, प्रतिज्ञा, कालीचरण, चरस, जानेमन, हम किसी से कम नहीं, चलता पुर्ज़ा, कर्मयोगी, देस परदेश, मिस्टर नटवरलाल, राम बलराम आदि अनेक फ़िल्में कीं। अतिश्योक्ति न होगी अगर कहा जाए कि सत्तर के सालों में उनकी खलनायकी को कोई चैलेंज करने वाला था ही नहीं। कई लोग मज़ाक में कहते भी थे, वो हर दूसरी-तीसरी फिल्म में सोने के बिस्कुट की तस्करी करते देखे जाते हैं।
सुभाष घई जब ‘कालीचरण’ (1976) बना रहे थे तो प्रोड्यूसर, वितरक और फाइनांसर गुलशन रॉय ने अजीत को लेने का दबाव बनाया। कहते हैं अगर सामने अजीत जैसा ख़लनायक न होता तो शायद नायक शत्रुघ्न सिन्हा ज़बरदस्त एक्टिंग के लिए प्रेरित न होते। दोनों के आमने-सामने के सीन दिखते ही बनते थे। जब पुलिस ऑफ़िसर शत्रु चीखते हैं, एक दिन भूखी जनता आप जैसे गद्दारों का पेट फाड़ देगी। तब खलनायक अजीत अपने किरदार को अंडरप्ले करते हुए, बड़ी मुलायममियत से धौंसियाते हैं, ये मत भूलिए डीएसपी साहेब कि सारा शहर मुझे लॉयन के नाम से जानता है और शहर में मेरी हैसियत वही है जो जंगल में शेर की…एक्टर-राइटर सलीम खान की उनके दुर्दिन के दिनों में अजीत ने बहुत मदद की थी। सलीम ने जावेद के साथ मिल कर उनके उस अहसान का सिला उनके लिए बेस्ट डायलॉग लिख कर चुकाया। याद करिये, ‘ज़ंजीर’ में ‘लिली डोंट बी सिल्ली…और ‘यादों की बारात’ की ‘ ओह मोना डार्लिंग…’ को। माइकल, पीटर, डिसूज़ा, जैक्सन आदि उनके गैंग मेंबर होते थे जिन्हें वो हर मिनट दो मिनट पर निर्देश देते दिखते थे। उनका ये डायलॉग भी बहुत मशहूर हुआ, इसे लिक्विड ऑक्सीजन में दाल दो, लिक्विड इसे जीने नहीं देगा और ऑक्सीजन इसे मरने नहीं देगा…। खलनायकी का ये भी एक दिलचस्प अंदाज़ रहा।
नासिर हुसैन की ‘तुमसा नहीं देखा’ शम्मी कपूर को स्थापित करने वाली मूवी मानी जाती है। वस्तुतः इसके लिए नासिर ने पहले अजीत को लेना चाहा था, मगर वो मसरूफ़ थे, इसलिए शम्मी को लेना पड़ा। नासिर ने एक बार अजीत को याद करते हुए कहा था, अगर अजीत ने ‘हां’ की होती तो शम्मी की जगह वो होते। अजीत घर से भाग कर आये थे। ये बात उनके पिता को बेहद नागवार गुज़री थी। वो उनके फ़िल्मी प्रोफेशन को लेकर भी बहुत नाखुश रहे। इसे ‘हराम’ समझते थे। उन्हें ज़िंदगी भर माफ़ नहीं कर पाए। जब अजीत बड़े एक्टर बन गए तो उनके पिता ने एक बड़ा संदूक खोला। उसमें वो तमाम तोहफे रखे थे जो अजीत ने उन्हें समय-समय पर भेजे थे। उन्होंने कहा, हराम के तोहफे उन्हें कभी मंज़ूर नहीं रहे। इससे अजीत बहुत दुखी हुए थे।
1981 में अजीत को ज़बरदस्त हार्ट अटैक आया। ईलाज के लिए अमेरिका गए। फिर वो लम्बे अरसे तक गायब रहे। मगर दोस्तों के अनुरोध पर फिर बंबई लौट आये। पुलिस ऑफ़िसर, गैंगस्टर आदि कुछेक फ़िल्में की। मगर ऊब गए। हीरो-हीरोइन का सेट पर लम्बे वक़्त तक इंतज़ार और फिर नखरे उन्हें मंज़ूर नहीं हुए। वो वापस हैदराबाद चले गए। वहां 21 अक्टूबर 1998 को एक बार फिर उन्हें ज़बरदस्त हार्ट अटैक आया, मगर इस बार कोई चांस नहीं मिला। वो 66 साल के थे, एक्टर के लिए ये जाने की उम्र कतई नहीं होती। अपनी तरह के अनोखे खलनायक अजीत की जगह आज तक कोई नहीं ले सका है, उनकी विरासत संभालने वाला एक्टर बेटा शहज़ाद खान भी नहीं, जिसकी शुरूआती पहचान उनकी मिमकरी करना रही।
वीर विनोद छाबड़ा नामचीन फिल्म समीक्षक हैं। बालीबुड से जुड़े हस्तियों पर उनके लिखे लेख बहुत पसंद किए जाते हैं। फिल्मी दुनिया से जुड़ी कई छुपी कहानियों को दिलचस्प अंदाज में सामने लाते रहे हैं।
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