फिल्मों की ममतामयी मां -लीला चिटणीस
वीर विनोद छाबड़ा
एक झोंपड़ीनुमा मकान में खाट पर लेटी मरियल सी खांसती हुई काया। उसके संघर्ष को दर्शाता चेहरे की झुर्रियों से बहता पसीना। बगल में रखी एक टूटी-फूटी स्टूलनुमा मेज़ पर रखी दवाईयों की चंद शीशियां। उन पर वो खांसती हुई काया गिर पड़ती है। इसके साथ ही शीशियां ज़मीन पर गिर कर चकना-चूर हो जाती हैं।
पहले से दुखी और अधमरी वो काया चीत्कार उठती है, हाय, ये क्या हुआ? अब तो दवा खरीदने के लिए पास में फूटी-कौड़ी भी नहीं है। ये कहते हुए वो काया पछाड़ खा कर ज़मीन पर गिर पड़ती है…किसी भी फ़िल्म लेखक-समीक्षक की क़लम से खींची गयी ये इमेज है, गुज़रे ज़माने की फिल्मों की ‘मां’ की, जिसे लीला चिटणीस जीवंत किया करती थीं। वस्तुतः वो निरूपाराय, सुलोचना और अचला सचदेव की मां की मां थीं, माताओं की माता। यानी बहुत पुरानी फ़िल्मी मां।
कर्णाटक में रहने वाले एक महाराष्ट्रीयन ब्राह्मण परिवार में लीला का 1909 में जन्म हुआ। पंद्रह-सोलह साल की उम्र में एक बड़ी उम्र वाले से शादी हो गयी। वो नागरकर से चिटणीस हो गयीं। और फिर फटाफट एक के बाद एक चार बच्चे भी जन लिए। पति से मतभेद रहे। अलगाव हो गया। चार बच्चों को पालना एक चुनौती बनी। पहले
नाटकों और फिर फिल्मों की तरफ रुख किया। बिरादरी में कोहराम मच गया, फ़िल्में तो वेश्यावृति है। लेकिन लीला ने परवाह नहीं की। वो बहुत मज़बूत थीं, बेबाक और पढ़ी-लिखी भी। कहते हैं, चालीस के सालों में औरत की आज़ादी का फैशन चला था, मगर लीला तो उससे बहुत पहले ही आज़ाद हो चुकी थीं।
लीला की शुरुआत बतौर एक्स्ट्रा के हुई। मगर जल्दी ही सागर मूवीटोन की धार्मिक फिल्मों के लीड रोल्स में नज़र आने लगीं। ‘संत तुलसीदास’ की रत्नावली की भूमिका बहुत सराही गयी। कई स्टंट फ़िल्में भी की। राम दरयानी की ‘जेंटलमैन डाकू’ में उन्होंने मर्दाना लिबास में पब्लिक को लूट लिया। उनका स्वर्णिम काल अशोक कुमार के साथ रहा। ‘कंगन’ (1939) में वो पुजारी की गोद ली हुई बेटी थीं जो ज़मींदार के बेटे से प्यार करती है। ज़मींदार पुजारी को तरह-तरह से प्रताड़ित करता है। मगर प्यार करने वाले किसी से डरते नहीं, बड़े बड़े पहाड़ लांघ जाते हैं, ईश्वर
से भी टकराने का दम रखते हैं।
इसके बाद अशोक कुमार के साथ उनकी बंधन, आज़ाद और झूला भी हिट हो गयीं। उनकी प्रतिभा के तराने घर-घर में गाये जाने ;लगे। अशोक कुमार कहते थे, चिटणीस की आखों में इतनी ममता और करुणा भरी थी कि वस्तुतः उन्हें कुछ भी बोलने की ज़रूरत नहीं थी। एक्टिंग का ये हुनर मैंने उन्हीं से सीखा था।
चालीस के सालों के उस दौर में लीला चिटणीस की लोकप्रियता का आलम ये था कि लक्स टॉयलेट साबुन वालों को उनका चेहरा अपने इश्तहार में इस्तेमाल करना पड़ा। वस्तुतः लक्स के इश्तहार में दिखने वाली वो पहली भारतीय महिला थीं, वरना इससे पहले अंग्रेज़ी फिल्मों की अभिनेत्रियों का कब्ज़ा था। मगर ऊंचाई पर बहुत देर तक खड़े रहना मुश्किल होता है। चिटणीस का भी ख़राब दौर शुरू हुआ। अशोक कुमार के साथ ‘किरण’ भी उनके सुनहरे पलों को लौटा नहीं पायी। तब उन्होंने बड़ी श्रद्धा से बदलते वक़्त को स्वीकार करते हुए दूसरी इनिंग शुरू की, जिसे सिनेमा बड़ी शिद्दत से याद करता है।
‘शहीद’ (1948) में एक तरफ वो देशभक्त बेटे दिलीप कुमार की मां थीं तो दूसरी तरफ सरकारी अफ़सर चंद्रमोहन की कर्तव्यपरायण पत्नी। पति और बेटे की कश्मकश के बीच झूलती हुई। ‘आवारा’ (1951) में वो राजकपूर की मां हैं, जिन्हें उनके पति जज रघुनाथ इसलिए छोड़ देते हैं कि उन्हें एक बदमाश ने उनसे बदला लेने के लिए किडनैप किया था। जब जज साहब को असलियत का पता चलता है तब तक वो मर चुकी होती हैं। बिमल रॉय की ‘मां’ (1952) में वो तमाम दुःख झेलने वाली केंद्रीय भूमिका में रहीं, हालात इतने बद्दतर हुए कि अपने ही बड़े बेटे के घर में नौकरानी बना दी गयी।
बीआर चोपड़ा की ‘साधना’ में वो सुनील दत्त की मां हैं जिनकी तमन्ना हैं कि आंखें बंद होने से पहले बहु का मुंह देख लें। सुनील दत्त तवायफ़
वैजयंतीमाला को नकली पत्नी बना कर ले आते हैं। वो बहुत खुश होती हैं। मगर जब उन्हें असलियत पता चलती है तो ज्वालामुखी फट पड़ता है। मगर एक लम्बे ड्रामे के बाद वो तवायफ़ को बहु के रूप में स्वीकार कर लेती हैं। उन पर फ़िल्माया ये गाना आज भी भजन-कीर्तनों की मंडली में बजता है…तोरा मनवा क्यों घबराये रे, लाखों दीन दुखियारे प्राणी जग में मुक्ति पाए रे…और याद करें ‘कालाबाज़ार’ (1960) के सिनेमा के टिकट ब्लैक करने वाले देवानंद की उस बीमार मां को, जिसे सिर्फ बेटे की फ़िक्र है…न मैं धन चाहूं न रतन चाहूं, तेरे चरणों की धूल मिल जाए तो तर जाऊं…’गंगा-जमुना’ की मां जो इसलिए बेवक़्त मर गयी क्योंकि ज़मींदार द्वारा लगाए झूठे चोरी के इलज़ाम को वो बर्दाश्त नहीं कर सकी और बदला लेने के लिए बेटा दिलीप कुमार बंदूक उठा लेता है।
देवानंद की ‘हम दोनों’ (1961) की उस मां को कोई भला कैसे भूल सकता है जो ये ख़बर सुन कर बहदवास हो जाती है कि उसका सैनिक पुत्र जंग में मारा गया है। ‘गाईड’ में वो फिर देवानंद की मां थीं, जिसे ये कभी पसंद नहीं था कि उसके बेटे का किसी नाचने वाली के साथ नाम जुड़े, लेकिन वो आखिर में पछताईं भी। ‘दोस्ती’ (1964) की उस बीमार मां याद करिये जो बेटे से कहती है, तेरी पढ़ाई पहले और मैं बाद में।
लीला चिटणीस ने संगदिल, फंटूश, नया दौर, फिर सुबह होगी, धूल का फूल, मैं नशे में हूँ, कोहिनूर, घूंघट, कांच की गुड़िया, बंटवारा, मनमौजी, असली-नकली, आशिक, दिल ही तो है, ज़िंदगी, वक़्त, औरत, इंतक़ाम, मन की आँखें, जीवन मृत्यु, भाई भाई आदि पचास से सत्तर के सालों की सौ से ज़्यादा फिल्मों में पूरे परफेक्शन और अहसास के साथ कभी विधवा तो कभी सबला मां की भूमिकाएं कीं।
कई विद्वान तो ये भी कहते रहे कि वो बनीं ही मां की भूमिकाओं के लिए थीं। वो सत्तर के सालों के बाद दिखनी बंद हो गयीं। शायद उनका वक़्त पूरा हो चुका था। 1987 में ‘दिल तुझको दिया’ में उनकी एक छोटी सी झलक दिखाई दी थी। वो अपने बेटे के परिवार के साथ रहने अमेरिका चली गयीं, फ़िल्मी दुनिया की चकाचौंध से बहुत दूर। 1981 में मराठी में उनकी आत्मकथा छपी, चंदेरी दुनियेत। इसके बाद 14 जुलाई 2003 को अमेरिका से ख़बर आयी कि Connecticut राज्य के दंबरी शहर के एक नर्सिंग होम में 93 साल की वेटरन इंडियन आर्टिस्ट लीला चिटणीस स्वर्ग सिधार गयीं।
वीर विनोद छाबड़ा नामचीन फिल्म समीक्षक हैं। बालीबुड से जुड़े हस्तियों पर उनके लिखे लेख बहुत पसंद किए जाते हैं। फिल्मी दुनिया से जुड़ी कई छुपी कहानियों को दिलचस्प अंदाज में सामने लाते रहे हैं।
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