लेखक-पत्रकार संजय श्रीवास्तव
18 अगस्त 1945 के बाद ये चर्चाएं कभी थम नहीं पाईं कि विमान हादसे में नेताजी सुभाष चंद्र बोस का निधन नहीं हुआ था बल्कि वो बच गए थे. क्या वाकई ऐसा था. अगर वो जिंदा थे तो फिर उनका क्या हुआ. रहस्य की ना जाने कितनी ही परतों को समेटे हुए नेताजी सुभाष पर वरिष्ठ पत्रकार संजय श्रीवास्तव की किताब “सुभाष बोस की अज्ञात यात्रा” उन्हीं पहलुओं पर समग्र तरीके से देखती है. साथ ही सुभाष से जुड़ी अन्य बातों पर प्रकाश डालती है. पेश है इसी किताब का एक अंश. उनके बड़े भाई सुरेश चंद्र बोस की वो रिपोर्ट, जिसमें उन्होंने साफ कहा कि सुभाष को जापानियों ने सुरक्षित सोवियत संघ की सीमा में पहुंचा दिया. इसके बाद ये खबर प्रचारित की कि वो विमान हादसे का शिकार हो गए.
1956 में जब जवाहर लाल नेहरू की सरकार ने नेताजी सुभाष चंद्र बोस के निधन की सच्चाई की जांच के लिए 1956 में मेजर जनरल शाहनवाज खान की अगुवाई में एक जांच आयोग का गठन किया. तब ये तीन सदस्यीय आयोग था. जिसके अन्य दो सदस्य सुभाष चंद्र बोस के बड़े भाई सुरेश चंद्र बोस और बंगाल के आईसीएस अधिकारी एसएन मित्रा थे. जब चार महीने बाद आयोग ने अपनी 181 पेजों की रिपोर्ट पेश की तो इसके कई निष्कर्षों से सुरेश चंद्र बोस सहमत नहीं थे. उन्होंने इस रिपोर्ट पर हस्ताक्षर करने से मना कर दिया. बकौल उनके ये रिपोर्ट सही नहीं थी. उन्होंने उसी समय कहा कि वो अपनी एक असहमति रिपोर्ट पेश करेंगे, जिसमें उनके अपने निष्कर्ष होंगे, जो जांच के दौरान तमाम गवाहों से हुई बातचीत और साक्ष्यों पर आधारित होंगे.
सुरेश चंद्र बोस ने चार महीने बाद अपनी जो असहमति रिपोर्ट जारी की, उसमें उन्होंने लिखा, ये समझना जरूरी होगा कि सरकार ने जांच कमीशन क्यों बिठाया. जब एचवी कामथ ने संसद में सुभाष चंद्र बोस को लेकर सवाल उठाया था तो पांच मार्च 1952 को उसके जवाब में प्रधानमंत्री नेहरू ने कहा था, मेरे दिमाग में कोई संदेह नहीं है, मैने ऐसा तब भी नहीं किया था और आज भी मेरे दिमाग में कोई शकसुबहा नहीं है कि सुभाष चंद्र बोस का निधन हो चुका है. अब मैं सोचता हूं कि ये सब शक के दायरे से बाहर है. इसकी कोई जांच नहीं की जा सकती.
जब जांच आय़ोग तोक्यो पहुंचा, तब चार मई 1956 की रात थी. इसको कोलकाता के कुछ अखबारों ने कवर किया, जिसमें शाहनवाज खान ने कहा था, उनका मुख्य मिशन लोगों से इंटरव्यू करने का होगा, खासकर उन लोगों का, जिसके पास सुभाष बोस के निधन संबंधी प्रत्यक्ष साक्ष्य हों. इससे जांच के शुरुआती चरण में ही जाहिर हो जाता है कि जांच आयोग के चेयरमैन की मंशा इस जांच को शुरू करने से पहले ही क्या थी और वो क्या उद्देश्य लेकर चल रहे थे. ये अजीब बात थी, क्योंकि ये सर्वप्रचारित था कि नेताजी का निधन हवाई हादसे में हो चुका है लेकिन इस खबर की प्रामाणिकता पर पूरे देश को संदेह था. दूसरी बात ये भी कि ये तो पहले से तय एक दृष्टिकोण था, हमें इसी की सच्चाई का पता लगाना था लेकिन ये महसूस हुआ कि जांच आय़ोग के चेयरमैन दूसरे दृष्टिकोण वालों के इंटरव्यू नहीं करना चाहते थे. मेरा कहना था कि इंटरव्यू में लोग जो भी कहें, हमें कम से कम उस ओर भी ध्यान देना चाहिए. अगर उसमें दम है तो निष्कर्ष निकालते समय उस बारे में भी सोचना चाहिए. हमें अपने दिमाग को खोलकर जांच करनी चाहिए कि विमान हादसे में नेताजी का निधन हुआ था या नहीं. हमें पहले से दिमाग में ये नहीं बिठा लेना चाहिए कि नेताजी का निधन विमान हादसे में हुआ था.
दरअसल चेयरमैन ने पहले से ही अपना दिमाग बना लिया था कि उनका निष्कर्ष यही रहने वाला है कि तोयहोकु में विमान हादसा हुआ था और इसके परिणामस्वरूप उसमें नेताजी का निधन हो गया. सरकार पहले से ही इसी लाइन पर चल रही थी. कई बार ये बयान सरकार की ओर से संसद में आ चुके थे. प्रधानमंत्री और उनकी सरकार यही मानकर बैठी थी. जब ऐसा ही था तो जांच का औचित्य क्या रह जाता है, अगर हमें यही दृष्टिकोण पाना था तो जनता के पैसों को फिजूल में खर्च कर जांच क्यों करानी चाहिए थी.
तब ये जाच क्यों हुई थी, ये सीधा सा सवाल था.हालांकि मैं उस बात की ओर जाना नहीं चाहता कि जांच आय़ोग ने क्या किया और क्या नहीं किया लेकिन ये जरूर कहूंगा कि जांच आयोग के तौर पर वो अपने काम को सफलता तक नहीं पहुंचा सके. यकीनन वो इसमें सफल नहीं रहे. ये पुख्ता धारणा है. जो पूरे साक्ष्य हैं वो यकीनन कसौटी पर खरे नहीं उतरते कि विमान हादसा हुआ था और नेताजी का उसमें निधन हुआ था.
तो ऐसे में मेरे पास कोई और विकल्प नहीं है कि निष्कर्षों, कारणों और तर्कों के आधार पर अपनी बात रखूं. मेरे निष्कर्ष सरकार और देशवासियों के सामने पेश हैं.
क्या थी नेताजी की योजना
ये 1944 के शुरू में ही नजर आने लगा था कि जापान की हालत दूसरे विश्व युद्ध में खराब होने लगी है, उसे समर्पण करना ही होगा. बस बात समय की थी. नेताजी की जिंदगी का एक ही उद्देश्य था कि भारत की आजादी के लिए लड़ाई किस तरह जारी रखी जाए. वो ना तो उन देशों की ओर देख सकते थे, जो पूर्व में हैं और अमेरिका, ब्रिटेन के असर में थे. वो जापान में रहकर भी अपना काम आगे नहीं बढ़ा सकते थे, क्योंकि जापान लगातार मित्र देशों यानि गठबंधन की सेनाओं से घिरता जा रहा था. ऐसे में उन्हें नए और सुरक्षित विकल्पों की ओर देखना था. वो रूस को इस काम के लिए मुफीद पा रहे थे. इसलिए भविष्य की गतिविधियां वहीं करना चाहते थे. वो जापान में रूस के राजदूत से संपर्क करना शुरू कर चुके थे.
जब जापानियों ने आत्मसमर्पण कर दिया. तब जापान सरकार ने नेताजी के अभियान के सफल नहीं होने पर निराशा जाहिर की. ऐसे में उन्होंने कोशिश की कि नेताजी की इच्छा का सम्मान करते हुए उनके अनुरोध पर उन्हें रूस की सीमा में पहुंचा दें. लेकिन प्रत्यक्ष तौर पर ना तो जापान ऐसा कर सकता था और ना ही रूस चाहता था कि ऐसा किया जाए. आखिर रूस उस समय गठबंधन देशों में शामिल था और जापान, जर्मनी के खिलाफ लड़ाई लड़ रहा था, उस समय जापान समर्पण कर रहा था और समर्पण की नियम-शर्तों के साथ बंधा था. नेताजी ने इसे स्वीकार किया. अपने अगले कदम के तौर पर उन्होंने जापान से उन्हें मंचूरिया तक पहुंचाने का अनुरोध किया, जो अब भी जापानियों के नियंत्रण में था. सुभाष का कहना था कि वो अब रूस की सीमा में प्रवेश करने का इंतजाम खुद करेंगे.
उनके इस प्लान में जापानियों की भी सहमति थी. तब जापानी सेना के दक्षिण कमांड मुख्यालय के केंद्र दलात में इस कमांड के सुप्रीम कमांडर मार्शल काउंट तराउची ने उन्हें सायगोन से विमान से भेजने की व्यवस्था की थी. तराउची उनका अच्छा मित्र भी था. उनके साथ लेफ्टिनेंट जनरल सिदेई को मदद के लिए भेजा जाना था, जो उन दिनों मंचूरिया में जापान की सेनाओं का प्रभार संभाले हुए थे. उनकी गिनती जापान के बहादुर सैन्य अफसरों में होती थी. वो मंचूरिया के इस इलाके को अच्छी तरह जानते थे. रूसी सेनाओं से भी अच्छी तरह वाकिफ थे. उन्हें सुभाष की मदद का जिम्मा सौंपा गया कि वो उन्हें रूस की सीमा में पहुंचा दें. इसके बाद जापानियों ने घोषणा की कि नेताजी नहीं रहे.
बोस की निर्वासित सरकार में प्रचार मंत्री एसए अय्यर ने इस योजना के बारे में विस्तार से बताया. उन्होंने नेताजी के निधन की बजाए “गायब यानि डिसपीर्ड” शब्द का इस्तेमाल किया. जांच आयोग के सामने गवाही में भी उन्होंने यही शब्द इस्तेमाल किया. गवाही में दुभाषिया टी. नागिशी, लेफ्टिनेंट जनरल इसोदा, टी हाचिया, आजाद हिंद फौज मामलों के जापानी मंत्री एन. कित्जाना और कई गवाह पेश हुए. इन सभी ने नेताजी के रूस पहुंचने की योजना को सफलता से अंजाम दिया था. उन्होंने ये बात मेरे सहयोगियों के सामने स्वीकार भी की.
जनरल इसोदा ने कहा, नेताजी के लिए जिस बंबर विमान की व्यवस्था की गई थी, वो एकदम नया था, वो सायगोन एयरपोर्ट से उड़ा, तब वो एकदम सही था, इसकी पुष्टि टी. हाचिया, टी. नागेशी, एसए अय्यर और अन्य ने भी किया. ये सभी वहां मौजूद थे.
अय्यर ने हमारे सामने नेताजी के लिए डिसपीर्ड यानि गायब हो जाने की बात की. उन्हें मंचूरिया तक पहुंचाने का काम जापान और सुभाष दोनों की सहमति से ही हुआ था. योजना ये थी कि जापानी नेताजी को सुरक्षित जोन में छोड़ेंगे ताकि वो मित्र देशों की सेनाओं की पहुंच से दूर हो जाएं और अमेरिका-ब्रिटेन उन्हें गिरफ्तार नहीं कर पाएं. चूकि उस समय जापानी खुद मित्र सेनाओं के सामने समर्पण कर रहे थे, इसलिए उनकी इस घोषणा का कोई मतलब नहीं था कि नेताजी जीवित हैं. सुभाष मित्र सेनाओं के सबसे बड़े दुश्मन थे, जो उनकी आंखों में खटक रहे थे, खासकर ब्रिटेन की. लिहाजा वो उन्हें हर हाल में गिरफ्तार करना चाहते थे.
इसलिए नेताजी को विमान से छोड़ने और उन्हें अमेरिका-ब्रिटेन की पहुंच से दूर करने के बाद जापानियों ने घोषणा की कि उनका निधन हो गया है. चूंकि नेताजी विमान से यात्रा कर रहे थे इसलिए सबसे आसान था कि उनके निधन के लिए प्लेन क्रैश को वजह बनाया जाए. इस कहानी पर लोग विश्वास भी कर लेंगे. इसलिए उन्होंने यही घोषणा की.
ये कहने में मुझको कोई हिचक नहीं कि सुभाष बोस को जापान सरकार की ओर से पूरा समर्थन मिला. उनका अगला कदम दिल्ली आने के लिए मास्को जाने का था, क्योंकि वो मानकर चल रहे थे कि दिल्ली आने का रास्ता अब मास्को से निकलेगा. जापान सरकार ने इस काम में उनकी पूरी मदद की. उनकी पूरी कोशिश थी कि वो नेताजी को मित्र सेनाओं की पहुंच से दूर ले जाएं.
इस आधार पर निष्कर्ष ये हैं
- कोई वायु दुर्घटना नहीं हुई. ना ही नेताजी का निधन हुआ लेकिन इसके बाद वो कहां गए, इसके बारे में कुछ पता नहीं चलता.
- अगर वाकई नेताजी एक्सीडेंट में मृत हुए होते तो कोई प्रमाण या दस्तावेज मिलता, जो नहीं मिला.
- अगर एक्सीडेंट में मरे होते तो उनके साथ उनकी कलाई घड़ी, सिगरेट केस, लाइटर, धार्मिक किताबें, गीता, पर्स, लैंस, सुप्रीम कमांडर की मुहर, आईएनए के बिल्ले आदि मिलने चाहिए थे, वो कभी नहीं मिले, साथ में उनकी रिवाल्वर भी.
इसमें कोई शक नहीं कि नेताजी के जितने सीक्रेट कर्नल हबीब उर रहमान जानते थे, उतना कोई और नहीं. वो अकेले भारतीय हैं जो सायगोन से आगे उनके साथ गए थे. वो पक्के तौर पर जानते हैं कि नेताजी मंचूरिया में दारेन तक गए या फिर रूस. उन्होंने इसकी बजाए यही कहा कि नेताजी तोक्यो जा रहे थे और वहां से वापस सिंगापुर आते. जबकि ऐसा था ही नहीं. शायद उनसे ऐसा ही बोलने के लिए कहा गया था.
उन्होंने ये बात जानबूझकर की, क्योंकि उनसे नेताजी और जापान दोनों से ऐसा करने को कहा था. उनसे कहा गया था कि कि वो ये बताएं कि नेताजी तोक्यो जा रहे थे. ऐसा कहकर उन्होंने जापान सरकार को भी बचाया और प्लेन क्रैश की स्टोरी सुनाई. क्योंकि जापानी सरकार के मंत्री और अधिकारियों की मंत्रणा के बाद यही कहा जाना तय हुआ था.
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गांधी जी क्या मानते थे
सुरेश चंद्र बोस की असहमति रिपोर्ट के अनुसार, महात्मा गांधी मानते थे कि सुभाष जीवित हैं. जनवरी 1946 में गांधीजी ने सार्वजनिक तौर पर कहा था कि वो मानते हैं कि बोस जीवित हैं और कहीं छिपे हैं. ये बात उनकी अंतररात्मा की आवाज कहती है. माना जाता है कि गांधीजी को भी कहीं से ये सीक्रेट रिपोर्ट मिल गई थी कि सुभाष का प्लेन क्रैश नहीं हुआ है. कांग्रेस के लोग मानते थे गांधीजी की अंतररात्मा की आवाज दरअसल उन्हें हाल में मिली कोई गुप्त जानकारी है, जो एक सीक्रेट रिपोर्ट से मिली है. ये रिपोर्ट कहती है कि वो रूस में हैं. नेहरू को बोस का कोई पत्र मिला है, जिसमें उन्होंने बताया कि वो रूस में हैं और बचकर भारत आना चाहते हैं.
सुभाष से जुड़े ऐसी तमाम बातें जो कभी दुनिया के सामने नहीं आईं, उन्हें पढ़िये सुभाष चंद्र बोस पर लिखी नवीनतम पुस्तक – सुभाष की अज्ञात यात्रा. ये अमेजन पर उपलब्ध है. इसका लिंक ये है –
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