उत्तराखंड महापरिषद रंगमंडल की मार्मिक प्रस्तुति – ‘सरहद’

अविकल उत्तराखंड

देहरादून। उत्तराखंड महापरिषद के रंगमंडल द्वारा भारत सरकार के संस्कृति मंत्रालय एवं नेशनल स्कूल ऑफ ड्रामा, नई दिल्ली के सहयोग से मोहन सिंह बिष्ट सभागार, लखनऊ में नाटक ‘सरहद’ का सफल मंचन किया गया। मुख्य अतिथि कर्नल सत्येंद्र सिंह नेगी (उप महाप्रबंधक, भूतपूर्व सैनिक कल्याण निगम लि., उत्तर प्रदेश) एवं विशिष्ट अतिथियों ने दीप प्रज्ज्वलित कर नाटक का शुभारंभ किया।

इस अवसर पर लेफ्टिनेंट मदन मोहन पांडेय, सूबेदार मेजर पूरन सिंह अधिकारी, सूबेदार हेमेंद्र सिंह राणा, सूबेदार रतन सिंह, उत्तराखंड महापरिषद के सैनिक प्रकोष्ठ के अध्यक्ष राजेंद्र सिंह बिष्ट, संयोजक दीवान सिंह अधिकारी, अध्यक्ष हरीश चंद्र पंत, वरिष्ठ उपाध्यक्ष मंगल सिंह रावत, महासचिव भरत सिंह बिष्ट एवं महिला अध्यक्ष पुष्पा वैष्णव उपस्थित रहे।

नाटक ‘सरहद’ की परिकल्पना एवं निर्देशन पूर्णिमा पांडेय ने किया, जबकि सहायक निर्देशन का कार्यभार रोजी मिश्रा ने संभाला। यह नाटक प्रसिद्ध लेखक एवं नाटककार सागर सरहदी द्वारा लिखा गया है।
नाटक में 1947 में भारत-पाकिस्तान विभाजन की त्रासदी और शरणार्थियों के दर्दनाक हालातों का मार्मिक चित्रण किया गया।

नाटक का भावनात्मक प्रभाव

नाटक में दिखाया गया कि आज़ादी अहिंसा से मिली, लेकिन विभाजन की भयावहता ने लाखों जिंदगियों को तबाह कर दिया। दोनों देशों के राजनेताओं ने एक-दूसरे को दोषी ठहराया और खुद को मसीहा बना लिया। लेकिन असल पीड़ा उन लोगों को झेलनी पड़ी, जो बेघर और बेसहारा हो गए।

इतिहास चाहे जितना भी दबा दिया जाए, लेकिन सच हमेशा सामने आ ही जाता है। यह नाटक सरहद के दोनों ओर के आम लोगों की पीड़ा को उजागर करने का एक ईमानदार प्रयास था।

शरणार्थी शिविर में बसे लोगों की मानसिक दशा को उकेरते हुए, नाटक में दिखाया गया कि कैसे वे अपनों के लौटने की उम्मीद में दिन-रात प्रतीक्षा करते रहते हैं। सरहद के दोनों ओर खड़े सैनिक कभी एक ही गाँव के साथी हुआ करते थे और मास्टर संतराम के विद्यार्थी भी थे।

मास्टर संतराम का एक शिष्य, कैप्टन, विभाजन के दौरान बिछड़ी उनकी बहन को खोजने में मदद करता है। जब बहन लौटती है, तो वह शारीरिक और मानसिक यातनाओं से अर्धविक्षिप्त हो चुकी होती है। अपने भाई को देख भागने लगती है, और अंततः दोनों भाई-बहन सीमा पर गोलियों का शिकार हो जाते हैं।

गुमनाम नामक किरदार इस त्रासदी को देखकर चीख उठता है और बताता है कि देश का बंटवारा करने वाले राजनेता नहीं, बल्कि वे शरणार्थी असली मसीहा हैं, जिन्होंने अपने अपनों की लाशों पर सरहदों की लकीरें खींचते देखी हैं।

कलाकारों का प्रभावशाली प्रदर्शन

नाटक में गौतम राय (हिंदुस्तानी सिपाही), सुमित श्रीवास्तव (पाकिस्तानी सिपाही), महेंद्र गैलाकोटी (मास्टर संतराम), योगेश शुक्ला (कैप्टन), अनुपम बिसरिया (गुमनाम) और अनीता वर्मा (लाड़ली) ने अपने किरदारों को अत्यंत प्रभावशाली ढंग से निभाया।

प्रकाश व्यवस्था देवाशीष मिश्रा, संगीत अभिषेक यादव एवं मेकअप हंसिका क्रिएशन द्वारा किया गया। नाटक के कलाकारों ने इतना सशक्त अभिनय किया कि दर्शकों की आँखें नम हो गईं। 1947 के विभाजन की त्रासदी को मंच पर जीवंत कर देने वाली इस प्रस्तुति की हर दर्शक ने भूरी-भूरी प्रशंसा की।

इस अवसर पर पुष्पा वैष्णव, हेमा बिष्ट, देवश्वरी पवार, अंजली बौनाल, शशी जोशी, पुष्पा गैलाकोटी, पूनम कनवाल, हरितिमा पंत, मंजू पडलिया, शोभा पटवाल, लक्ष्मी जोशी, सुनंदा असवाल, मदन सिंह बिष्ट, भुवन पटवाल, भुवन पाठक, जगत सिंह राणा, अशोक असवाल, संजय काला, पूरन सिंह जीना, सुनील उप्रेती, मोहन पंत, सुंदर पाल सिंह बिष्ट, सुरेंद्र राजेश्वरी, पान सिंह, रमेश चंद्र सिंह अधिकारी, अनुपम भंडारी, लाल सिंह, विक्रम बिष्ट, पूरन भदौला सहित अनेक पदाधिकारीगण एवं सदस्य उपस्थित रहे।

अध्यक्ष हरीश चंद्र पंत ने समापन पर सभी का आभार व्यक्त किया।

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