बूढाकेदार- जहां 74 साल पहले फहराया गया था सामाजिक समरसता का झंडा

1950 में तीन दोस्तों ब्राह्मण-क्षत्रिय व शिल्पकार ने बनाया था सांझा चूल्हा,एक छत के नीचे रहे तीनों परिवार

अस्कोट-आराकोट यात्रा-2024

अरुण कुकशाल

बूढाकेदार। सुबह के 9 बजे हैं। बूढ़ाकेदार के मेन बाजारी तिराहे पर हम सभी अस्कोटी-आराकोटी यात्री हैं। आस-पास के दुकानदार और आते-जाते लोगों की नज़रे ‘देखें, क्या जी करते हैं’ के भाव से हम पर केन्द्रित हैं।

यहाँ स्थित बूढ़ाकेदारनाथ, राजराजेश्वरी और बालखिल्येश्वर के प्राचीन मंदिरों की ओर ऐरो की शक्ल वाला बोर्ड हमारे सामने है। ‘बूढ़ाकेदार समुद्रतल से ऊँचाई 1524 मीटर’ की सूचना उसमें अंकित है।

भिलंगना घाटी की थाती कठूड़ पट्टी में स्थित यह स्थल धर्मगंगा और बालगंगा का संगम स्थल है। बूढ़ाकेदार कभी यमनोत्री-गंगोत्री-केदारनाथ पैदल मार्ग का प्रमुख पड़ाव था। यह क्षेत्र नाथ संप्रदाय से प्रभावित रहा है। ‘गुरु कैलापीर’ इस क्षेत्र का ईष्टदेवता है।

हमारे मेहमान नवाज़ सुरेश भाई के चेहरे पर हर समय स्वाभाविक मुस्कान रहती है। आज तो हम मित्रों के आने से उनका चेहरा खिला हुआ है।

हिमांशु और मनीष ने अभियान के बैनर के ऊपरी सिरों को पकड़ लिया है। गजेन्द्र रौतेला के ‘अस्कोट-आराकोट अभियान जारी रहेगा, जारी रहेगा, जारी रहेगा’ गीत की शुरुआती पंक्ति के गाते ही सभी यात्रीगण इसको दोहराते हुए जलूस में आगे बढ़ते हैं।

उपस्थित स्थानीय लोगों की उत्सुकता के भाव अब भी ये जानने को आतुर है कि ‘आखिर! माजरा है क्या?’

अरे! ये अस्कोट-आराकोट यात्रा हर दस साल में होती है। पिछली बार भी ये आये थे। वो शेखर पाठक हैं, मैं मिला हूँ उनसे।’ एक सयाने आदमी ने दूसरे कहा। और, अपने अन्य साथियों के साथ हममें शामिल हो गया है।

हमारे बाँये ओर धर्म गंगा और दायें ओर बाल गंगा का प्रवाह है। उन दोनों का एकसार शोर है। रास्ते में दिखने वाले लोगों की निगाहें भी हमारे साथ जितनी दूर जा सकती हैं, साथ-साथ चल रही हैं।

आगे के तीखे मोड़ पर दुकान से बाहर आते व्यक्ति को इंगित करते अचानक सुरेश भाई जलूस को रोक कर ऊँची आवाज में कहते हैं-
‘‘मित्रों, ये जयप्रकाश राणा हैं और आप इस समय एक ऐसे घर के पास हैं जो सामाजिक समरसता के एक अद्वितीय इतिहास का हिस्सा रहा है। ये वही घर है जहाँ आज से 74 साल पहले ब्रहामण, क्षत्रिय और शिल्पकार वर्ग के थाती और रक्षिया गांव के तीन युवाओं ने 12 वर्ष तक संयुक्त परिवार में रहकर सामाजिक समरसता का अद्भुत उदाहरण पेश किया था।

समाज में जातीय भेदभाव को मिटाने का ऐसा प्रयास देश-दुनिया में शायद ही कहीं हुआ हो।

जातीय भेदभाव से आज भी हमारा समाज नहीं उभर पाया है। समय-समय पर जागरूक लोगों ने इसके लिए प्रयास जरूर किए पर कमोवेश आज भी हमारा समाज इस मुद्दे पर सदियों पूर्व की यथास्थिति में वहीं का वहीं ठिठका हुआ खड़ा नजर आता है। कारण स्पष्ट है कि जातीय जकड़ता को तोड़ने वाले प्रयासों को जनसामान्य का समर्थन लम्बे दौर तक नहीं मिल पाता है। ऐसा ही हुआ बूढ़ाकेदार में भी।’’

इसी जगह से थोड़ा आगे चल कर वो स्थल सुरेश भाई दिखाते हैं जहाँ पहले धर्मानन्द नौटियाल की दुकान हुआ करती थी। इसी दुकान से यह सामाजिक परिवर्तन का विचार पनपा था।

मैं आगे बढ़ते हुए जलूस के साथ-साथ चलते हुए अपनी यादों को बैक गियर में ले जाता हूँ।

हम सब जानते हैं कि 26 जनवरी, 1950 को आजाद भारत का संविधान लागू हुआ था। परन्तु यह बहुत कम लोग जानते हैं कि इसी दिन देश के सबसे पिछड़े इलाकों में शामिल उत्तराखण्ड की भिलंगना घाटी के बूढाकेदार में एक अप्रत्याशित और क्रांतिकारी पहल हुई थी।

हुआ यह कि इसी दिन जातीय बंधनों को तिलांजलि देते हुए एक पंडित, एक क्षत्रिय और एक शिल्पकार परिवार ने एक साथ रहने का फैसला लिया था। धर्मानंद नौटियाल (सरौला ब्राह्मण, थाती गांव), बहादुर सिंह राणा (थोकदार क्षत्रिय, थाती गांव) और भरपुरू नगवान (शिल्पकार, रक्षिया गांव) ने मय बाल-बच्चों सहित एक साझे घर में नई तरह से जीवन-निर्वाह की शुरूआत की थी।

अलग-अलग जाति के मित्रवत भाइयों के इस संयुक्त परिवार में अब बिना भेदभाव के एक साझे चूल्हे में मिल-जुल कर भोजन बनाना, खाना-पीना, खेती-बाड़ी और अन्य सभी कार्यों को आपसी सहभागिता से निभाया जाने लगा।

यह देखकर स्थानीय समाज अचंभित था। इनके लिए सर्वत्र सामाजिक ताने, उलाहना, कहकहे और विरोध होना स्वाभाविक ही था। स्थानीय लोगों में कहीं-कहीं दबी जुबान से इनके साहस और समर्पण की प्रशंसा भी हो रही थी। परन्तु प्रत्यक्ष तौर से इनका साथ देने का साहस किसी के पास नहीं था।

यह बेहद महत्वपूर्ण है कि उक्त त्रिजातीय साम्ययोगी परिवार की रचना में किसी प्रकार का आपसी दबाव और प्रलोभन नहीं था। अपने अन्तःकरण के भावों की सहर्ष स्वीकृति ही इस अभिनव संयुक्त परिवार का आधार था।

इस क्रांतिकारी विचार को व्यवहार में लाने की पृष्ठभूमि भी रोचक है। बात सन् 1950 की है। बूढ़ाकेदार क्षेत्र में ही धर्मानन्द नौटियाल, बहादुर सिंह राणा और भरपुरू नगवान का बचपन, शिक्षा और रोजगार साथ-साथ ही रहा। तीनों मित्र सर्वोदय विचार के प्रमुख कार्यकर्ता होने के कारण ग्रामस्वराज्य आन्दोलन में सक्रिय रहते थे। सामाजिक जागरूकता के कार्यों को करने में उनमें किसी प्रकार का जातीय भेद नहीं था। आजीविका के लिए धर्मानन्द नौटियाल की गाँव मेें ही दुकान थी। बहादुर सिंह राणा खेती-बाड़ी और भरपुरू नगवान शिल्पकारी कार्य से जुड़े थे।

नौटियाल की दुकान पर उस समय के प्रचलन के अनुसार आने-जाने वालों के लिए जाति के हिसाब से तीन हुक्के हर समय तैयार रहते थे। तीनों मित्रों में बातें अक्सर सामाजिक समानता की ही होती थी। आपसी बातचीत में उनको ध्यान आया कि, हम ही आपस में इस जातीय भेद से नहीं उभर पा रहें हैं, तो अन्य को क्या उपदेश देे पायेंगे।

लिहाजा, सबसे पहले तीन हुक्कों में दो को हटा कर सभी जातियों के लिए एक ही सार्वजनिक हुक्का रहेगा, ये तय हुआ। यही नहीं धीरे-धीरे आपसी समझ में आयी परिपक्वता और सकारात्मकता ने तीनों परिवारों को एक साथ रहने की ओर प्रेरित किया। थाती गाँव में तीनों ने अपनी सार्मथ्य और हुनर का उपयोग करते हुए एक तिमंजिला साझाघर बनाया जो कि उनके त्रिजातीय संयुक्त परिवार के सपनों और प्रयासों के साकार होने का हमसफर और गवाह बना।

उक्त तीनों महानुभावों ने इस साझेघर की प्रत्येक गतिविधि को सामाजिक चेतना का प्रेरक और वाहक बनाने का प्रयास किया। अस्पृश्यता को मिटाने के लिए समय-समय पर सभी जातियों का सामूहिक भोज, दलितों के मंदिरों में प्रवेश और विवाह में डोला-पालकी का समान अधिकार, सामूहिक उद्यमशाला का संचालन, सार्वजनिक पुस्तकालय, भू-दान, प्रौढ़ शिक्षा, बलि प्रथा को रोकना, उन्नत खेती और पशुपालन आदि के लिए रणनीति बनाने और उसे व्यवहार में लाने के प्रयासों का संचालन का केन्द्र यह साझाघर बन चुका था।

यह उल्लेखनीय है उसी दौर में इसी बूढाकेदार क्षेत्र में सवर्णों द्वारा समय-समय पर दलितों को मंदिर प्रवेश से रोकना, उनके पारिवारिक विवाह में डोला-पालकी का विरोध करना और अन्य तरह की सामाजिक प्रताड़नायें भी प्रचलन में थी।

इसी इलाके के अध्यापक दीपचंद शाह की बारात को डोला-पालकी की वजह से 21 दिनों तक जंगलों में भटकते हुए रहना पड़ा था। दीपचंद ने बाद में अध्यापकी छोड़कर पटवारी बनना कबूल किया ताकि वे ज्यादा मजबूती से सामाजिक अन्याय का विरोध कर सके।

तीन मित्रों का उक्त सहजीवन लगभग 12 साल तक बिना किसी कटुता के निर्बाध रूप में चला। जैसे भाई-भाई आपस में एक समय के बाद एक दूसरे से अलग परिवार बना लेते हैं, उसी प्रेमपूर्वक तरीके से यह संयुक्त परिवार भी 12 साल बाद जुदा हुआ था। परन्तु उनकी अन्य सभी सामाजिक कार्यां में पारिवारिक साझेदारी आगे भी चलती रही। इन अर्थों में यह अभिनव प्रयास किसी भी दृष्टि से असफल नहीं था।

हम सभी लोग उस संयुक्त परिवार के हिस्सा रहे धर्मानन्द नौटियाल के पैतृक घर के चौक में हैं। उनके सुपुत्र धीरेन्द्र प्रसाद नौटियाल सभी का स्वागत करते हुए गदगद हैं।

‘मि त अचानक अयूं यख, हे! भगवान कन खुशि आयी आजो दिन। जब हम सभ्भि भै-बैणों तें मिलणों मौका मिलि।’’ (मैं तो अचानक आयी, हे! भगवान कैसी खुशी आयी आज के दिन कि हम सभी भाई-बहिनों को मिलने का मौका मिला है।) धर्मानन्द नौटियाल की सुपुत्री आशा गैरोला जिनका ससुराल घनसाली से आगे पिलखी गांव है, उस संयुक्त परिवार के सभी जनों से मिलते हुए बार-बार कहती जा रही हैं।

दिवंगत हुए धर्मानन्द नौटियाल, बहाुदुर सिंह राणा और भरपूर नगवान के आगे की तीसरी और चौथी पीढ़ी का यह मिलन सामाजिक समरसता को वो जीवंत दृश्य है, जिसकी कामना हम सबको है। परन्तु, उसे व्यवहार में लाने की हिम्मत हम जुटा नहीं पा रहे हैं।

शेखर पाठक कहते हैं कि ‘‘बेहतर हो कि पूर्व में हमारे समाज में हुए ऐसे प्रयासों को अधिक से अधिक प्रभावी माध्यम से आज सामने लाया जाय। समाज की वर्जनायें तभी टूटेंगी जब हर वर्ग और जाति में धर्मानन्द नौटियाल, बहादुर सिंह राणा और भरपुरू नगवान जैसे जागरूक और साहसी लोग अपनी सामाजिक सक्रियता और सेवाभाव से समाज का नेतृत्व करेंगे।’’

अस्कोट-आराकोट अभियान का जलूस ‘अस्कोट-आराकोट अभियान जारी रहेगा, जारी रहेगा, जारी रहेगा। अपने गाँवों को तुम जानो, अपने लोगों को पहचानो…’ गीत गाता हुआ अब आगे बूढ़ाकेदार मन्दिर की ओर है।

परन्तु, मुझे ही नहीं मेरे सह-यात्रियों को भी यह महसूस हो रहा है कि सामाजिक विषमताओं को तोड़ने की हिम्मत देता पुण्य -प्रसाद हमें बूढ़ाकेदार मन्दिर पहुँचने से पहले ही मिल चुका है।…..

अरुण कुकसाल
26 जून, 2024
यात्रा जारी है…..

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