बीते सालों में कई ट्रैकर्स गवां चुके है अपनी जिंदगी
रेस्क्यू ऑपरेशन में सरकार को उठाना पड़ता है आठ से दस करोड़ तक का खर्च
वरिष्ठ पत्रकार व्योमेश चन्द्र जुगरान
पहाड़ों में अगस्त और सितम्बर ट्रैकिंग के लिए ललचाने वाले सबसे लुभावने महीने हैं क्योंकि ऊंचाई वाले हिमरेखा क्षेत्रों में बर्फ पिघली होती है और मौसम सहनीय होता है। यही कारण है कि आधा सावन बीता नहीं कि ट्रैकिंग के शौकीन ऊंचाइयां लांघने निकल पड़ते हैं। पर, क्या यह सब पहले जितना ही सहज रह गया है ! जलवायु और मौसम संबंधी बदलावों ने उच्च हिमालय में पैदल यात्राओं को कहीं अधिक जोखिम भरा बना दिया है। जोखिम तब और बढ़ जाता है जब ट्रैक पर जाने वाले ग्रुप ट्रैकिंग एजेंसियों के लुभावने विज्ञापनों और इंटरनेट के सूचना संसार के भरोसे प्लानिंग करते हैं। उनके पिट्ठुओं में यात्रा का हर जरूरी सामान तो भरा होता है, मगर जोखिमों के प्रति तैयारी प्राय: आधी-अधूरी रहती है। यही कारण है दुर्घटना की सूरत में चूक के लिए सरकार और उसके संबंधित महकमे अपना पल्ला झाड़ सारा दोष ट्रैकर्स और उन्हें भेजने वाली कंपनियों पर थोप देना चाहते हैं। किसी हद तक यह दोषारोपण गलत नहीं लगता, पर सरकार भी बताए कि पहाड़ में साहसिक यात्राओं के लिए तयशुदा मानकों वाली सुरक्षा प्रणाली (एसओपी) लागू करने में वह फिसड्डी क्यों है ?
आज से कुछ साल पहले आधुनिक संसाधनों और तामझाम से इतर इन साहसिक यात्राओं को स्थानीयता का कवच हासिल रहता था। निकटतम गांवों से अनुभवी गाइड व पोर्टर की सेवाएं, सटीक भौगोलिक व मौसमी जानकारियां, संकट के समय बचाव की तजुर्बेकारी और पारंपरिक ज्ञान इत्यादि की ‘गठरी’ बड़े काम की हुआ करती थी। इसमें कठिन से कठिन गंतव्यों को छू कर क्षति-रहित लौट आने के ‘सबक’ बंधे होते थे। नेहरू पर्वतारोहण संस्थान के पूर्व प्रिंसपल और जाने-माने पर्वतारोही कर्नल अजय कोठियाल के अनुभव इसी बात की तसदीक करते हैं। 2013 की आपदा से तबाह केदारनाथ धाम के पुनर्निर्माण का करिश्मा कर्नल कोठियाल ने ही कर दिखाया था। उन्होंने बताया कि जब हमें जिम्मा मिला तो हमारे समक्ष सबसे पहला काम था, केदारनाथ पहुंचने के वैकल्पिक रास्ते की तलाश। इस काम में हमारी मदद इलाके के चौमासी गांव के छह लोगों ने की। वे हमें एक अज्ञात रास्ते से हथिनी हाइड तक ले गए, जहां से हमने पहली बार आपदाग्रस्त केदार बाबा को देखा। वैकल्पिक मार्ग की शिनाख्त के बाद ही ‘ऑपरेशन केदार’ संभव हो सका।
जाहिर है हिमालय में ट्रैकिंग के मद्देनजर स्थानीय लोगों के अनुभव और जानकारियां किसी महामंत्र से कम नहीं होतीं। खासकर ऊपरी हिमालय में मौसम संबंधी सूचनाओं और ‘ये करें-ये न करें’ जैसी हिदायतों का बड़ा महत्व है। लेकिन उत्तराखंड में सक्रिय दर्जनों ट्रैकिंग एजेंसियों और एजेंटों को ऐसे महामंत्रों से कोई लेना-देना नहीं होता। वे ट्रैकिंग को एक व्यावसायिक बाना पहना चुके हैं। पहले स्थानीयता का कवच था तो मानवीय क्षति की आशंका क्षीण थी लेकिन आज सूचना क्रांति के बावजूद ट्रैकर्स के लापता होने की घटनाएं सामान्य हो गई हैं। कई बार रेस्क्यू टीम उन्हें जीवित तो कई बार मुर्दा पाती है।
इसी 29 मई को उत्तरकाशी से सहस्रताल की ट्रैकिंग पर निकले नौ लोग घने कोहरे और बर्फबारी के कारण रास्ता भटकने से मर गए। कर्नाटक और महाराष्ट्र के इस दल में 22 ट्रैकर थे जिनमें 13 को एयरलिफ्ट कर रेस्क्यू किया गया। मई 2022 में रुद्रप्रयाग जिले के मदमहेश्वर-पांडवसेरा ट्रैक पर फंसे सात ट्रैकर्स को भारी मशक्कत के बाद बचाया जा सका। 2022 में ही 4 अक्टूबर को द्रौपती का डांडा-2 के अभियान पर निकले नेहरू पर्वतारोहण संस्थान उत्तरकाशी के 29 प्रशिक्षु मौत के मुंह में समा गए। जानकार लोग आज भी इन मौतों को एवलॉन्च से कहीं अधिक मानवीय भूल का नतीजा मानते हैं।
निसंदेह ट्रैकिंग के शौकीनों के लिए उत्तराखंड देश का सबसे शानदार गंतव्य है। यहां करीब 100 से अधिक छोटे-बड़े ट्रैक हैं जो उच्च हिमालय के लंबे आरोही मार्गों, दर्रों, ग्लेशियरों, झीलों, तालों, बुग्यालों, फूलों की घाटियों, पौराणिक मंदिरों और नदियों के उद्गमों इत्यादि तक ले जाते हैं। उत्तराखंड सरकार ने ट्रैकिंग रूटों पर सुविधाओं के विकास को अपनी प्राथमिकताओं में जरूर रखा है मगर ट्रैकर्स और ट्रैकिंग एजेंसियों के लिए सख्त हिदायतों वाले कायदे-कानून बनाने और उनका पालन कराने में सरकार नाकाम रही है। 2022 से ही शोर है कि उत्तराखंड सरकार ट्रैकिंग के लिए नियमावली (एसओपी) बनाने जा रही है जिसके तहत ट्रैकिंग दलों को अपने साथ सेटेलाइट फोन और प्रशिक्षित गाइड ले जाना अनिवार्य होगा। साथ ही उन्हें अपना सारा ब्योरा रिकार्ड कराना होगा।
पर, हो यह रहा है कि देश के छोटे-बड़े शहरों में दफ्तर खोलकर बैठी कंपनियां इंटरनेट व विज्ञापनों के जरिये पहाड़ में हर तरह के ट्रैकिंग टूर आयोजित कर रही हैं। यहां तक कि सरकार और प्रशासन को इन कंपनियों के बारे में तब पता चलता है जब दुर्घटना घट जाती है। सहस्रताल हादसे की जांच में हिमालय व्यू ट्रैकिंग एजेंसी का नाम सामने आया और पाया गया कि उसने आवश्यक मानदंडों का पालन नहीं किया। यहां तक कि करीब 17 हजार फीट की ऊंचाई क्रॉस करने वाले इस अभियान के गाइड के पास जरूरी सुरक्षा उपकरणों की व्यवस्था तक नहीं थी। सवाल है कि ऐसी जांचों में स्थानीय प्रशासन पर उंगलियां क्यों नहीं उठनी चाहिए ! ट्रैकर्स का रिकार्ड क्यों नहीं रखा जाता !
पहाड़ में साहसिक पर्यटन के प्रति बढ़ते रुझान को लेकर सरकार को हर तरह से फिक्रमंद होना होगा ताकि सुरक्षा के साथ-साथ राजस्व और स्थानीय लोगों की आय में वृदिध का तानाबाना बुना जा सके। वरना तो लेने के देने पड़ रहे हैं। एक-एक रेस्क्यू ऑपरेशन में सरकार को आठ से लेकर दस करोड़ तक का खर्च उठाना पड़ता है और ‘एसओपी’ न होने के कारण लापरवाह ट्रैकिंग एजेंसियों व एजेंटों का बाल भी बांका नहीं होता।
वरिष्ठ पत्रकार व्योमेश चन्द्र जुगरान
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