दिनेश सेमवाल शास्त्री
आजकल भारतभर में जलेबी चर्चा के केंद्र में है और सच मानो तो यह कोई ऐसी वैसी नहीं बल्कि बड़े काम की चीज है। समझ लीजिए जलेबी भारत का भाग्य बदल सकती है और देश के प्रत्येक नागरिक पर जो करीब डेढ़ लाख रुपए विदेशी कर्ज है, वह एक झटके में खत्म हो सकता है। एक अनुमान के अनुसार इस समय भारत पर कुल कर्ज़ 225 लाख करोड़ रुपये है और देश की आबादी करीब 142 करोड़ है, इस हिसाब से हर भारतीय पर औसतन डेढ़ लाख रुपये से ज़्यादा का कर्ज़ है। यकीन मानिए ये विदेशी कर्ज जलेबी का निर्यात करके एक झटके में चुकाया जा सकता है।अलबत्ता इसके लिए कुछ शर्तें हैं और देशभक्ति दिखाते हुए सरकार को उस पर दरियादिली दिखाते हुए बैंकों की तिजोरियां खोलनी होंगी। सच मानिए रोजगार और व्यापार की धुरी जलेबी बन सकती है।
वैसे तो सैकड़ों वर्षों से भारत में जलेबी बनाई और खाई जा रही है। इसका जायका दुनिया तक पहुंचाने में आज तक जो चूक हुई, उसे भुला दिया जाना चाहिए। काफी लम्बे समय से इसकी डीपीआर तैयार हो रही थी। होम वर्क कंप्लीट हो चुका है। जरूरत अब इसे धरातल पर उतारने की है और इस दिशा में तेजी से काम भी चल रहा है। भारत के बैंकों का एक दुर्गुण है कि वे नवाचार के क्षेत्र में नए उद्यमियों को ऋण नहीं देते। वे केवल गिनती के दो चार लोगों पर ही भरोसा करते हैं, इस कारण बेचारी जलेबी के दिन नहीं बहुर पाए लेकिन अब जलेबी के आंसू पोंछने का वक्त आ गया है।
इंतजार कीजिए जिस दिन जलेबी का, वह भी हरियाणा के गोहाना ही क्यों पूरे देश का आईपीओ बाजार में आएगा, शेयर मार्केट बल्लियों उछल जायेगा। ये अब तक का सबसे बड़ा आईपीओ हो सकता है।अगर आप मार्केट में निवेश के इच्छुक हैं तो सोना चांदी, फार्मा या रियल स्टेट को छोड़ कर सारा निवेश जलेबी के मार्केट में हो सकता है। फिर इस नए उभरते क्षेत्र में जो चूक जायेंगे उन्हें निराशा के सागर में गोते लगाने पड़ सकते हैं।
कल्पना कीजिए, जिस दिन जलेबी अमरीका या जापान ही नहीं बल्कि पूरी दुनिया में निर्यात होने लगेगी तो उस दिन का अनुमान लगाते ही आप प्रफुल्लित हो सकते हैं। इसका मुख्य कारोबार ऑनलाइन ही होगा। इसके रिसर्च और डेवलपमेंट पर इतना काम होगा कि अगर चार दिन बाद भी दुनिया के किसी कोने में पहुंच जाए तो डिब्बा खोलते ही एकदम ताजी मिलेगी। होम डिलीवरी का जो मार्केट है, जलेबी उसके लिए भी क्रांतिकारी फायदा पहुँचाने वाला होगा। कल्पना की जा सकती है कि अभी जो जमेटो, स्वीगी जैसी होम डिलीवरी सर्विस चल रही है, उसी तरह से जलेबी ब्रांड बन जाए तो आश्चर्य नहीं होगा।
जलेबी सिर्फ एक प्रोडक्ट नहीं होगा। पूरी दुनिया में इसकी एक सप्लाई चेन होगी जिसमें रोजगार की अनंत संभावनाएं हैं। प्रोडक्शन, पैकिंग, ट्रांसपोर्टेशन, डिस्ट्रीब्यूशन, थोक और रिटेल आउटलेट से लेकर होम डिलीवरी के संसाधनों का हिसाब लगाने बैठें तो जीरो कम पड़ सकते हैं। बहुत संभव है इसका बजट भारत सरकार के सालाना बजट से ज्यादा हो सकता है। मान लीजिए जलेबी की एक यूनिट में कम से कम 50 हजार लोग सीधे रोजगार प्राप्त करेंगे। इनमें लेबर, कारीगर, एचआर, कॉरपोरेट कार्मिक और सीईओ से लेकर चेयरमैन तथा एमडी तक होंगे। ऐसी अगर हर राज्य और केंद्र शासित प्रदेश में एक एक यूनिट स्थापित हो जाती है तो अब तक जितने भी लोग रोजगार में हैं, उनसे बड़ी संख्या में रोजगार जलेबी उद्योग में हो सकता है। यह भी हो सकता है जिस तरह पहले पकड़ पकड़ कर लोगों को किसी संस्थान में भर्ती किया जाता था, वह स्थिति जलेबी उद्योग में आ सकती है। विश्व युद्ध के दौरान फौज में भर्ती के इस तरह के किस्से आपने भी सुने होंगे। दूर तक देखें तो हवाई सेवा का इसमें बहुत ज्यादा स्कोप दिख रहा है। देश के हर हवाई अड्डे से जलेबी स्पेशल फ्लाइट शुरू हो सकती है, उस स्थिति की कल्पना कीजिए लोज़ीस्टिक की कितनी संभावना है।
आईटी सेक्टर भी इसके साथ ही बूम पर होगा। हर कंपनी का अपना एप होगा, अपनी सप्लाई चेन और अपना क्वालिटी कंट्रोल और आर एंड डी सेक्शन होगा। समस्या सिर्फ एक है, कच्चे माल की। दुनिया की मांग को पूरा करने के लिए हमें मैदा, चीनी तेल का आयात करना होगा। क्योंकि देश में इतना उत्पादन हो नहीं पाएगा। इसके लिए पड़ोसी देश की मदद ली जा सकती है जो हमें सिंथेटिक ही सही, कच्चा माल उपलब्ध करवा सकता है। एक उपाय हो सकता है कि जलेबी उद्योग की जरूरत पूरी करने के लिए पूरा ध्यान तिलहन, गन्ना और गेहूं उत्पादन पर केंद्रित किया जाए। बाकी फसलों को कम करना ही होगा। जब हम एक बड़े उद्योग की ओर बढ़ रहे हैं तो उसके लिए कुछ त्याग तो करना ही होगा। खेती का रकबा अगर इन तीन फसलों पर केंद्रित करना है तो दलहन तथा सब्जी का आयात करना होगा। इसकी तैयारी अभी से करनी होगी। जो डीपीआर तैयार है उसे जमीन पर उतारने के लिए सिर्फ और सिर्फ राजनीतिक क्लियरेंस की जरूरत है। जलेबी ऐसा उत्पाद होगा जिसका पेटेंट सिर्फ हमारे पास होगा। बेशक कुछ लोग तर्क दें कि पर्सियन आक्रांताओं के साथ जलेबी भारत में आई। ये तो वही बात है कि वैदिक काल से प्रातः कालीन पूजा में हम ब्रह्मा मुरारी त्रिपुरांत कारी श्लोक के जरिए सभी नव ग्रहों से शांति की कामना करते हैं लेकिन पश्चिम के लोग इन ग्रहों को खोजने का श्रेय कॉपरनिकस को देते हैं। इसी तरह जलेबी को वे लोग अपना ब्रांड बताते हैं जिनके पास न तेल घी का उत्पादन है, न मैदे का और न गन्ने का। गन्ना तो उन्होंने भारत आकर ही देखा था।
इसी मानसिकता से ग्रस्त कुछ इतिहासकारों स्थापना देते हैं कि जलेबी ईरान की मिठाई जलाबिया या जुलुबिया से ही बनी है। जबकि भारत में जलेबी का ज़िक्र गुप्त काल में ‘जल्लवा’ नाम से मिलता है। इस बात की हर जानकार छुपा लेता है। यह जलेबी के साथ अतीत में की गई ज्यादती है और अब समय आ गया है कि इसका हिसाब बराबर किया जाए। हम इस मुद्दे को इंटरनेशनल कोर्ट में ले जा सकते हैं, उसके बाद पूरी दुनिया भारत को जलेबी की रॉयल्टी भुगतान करने को बाध्य हो सकती है। वैसे समय के साथ हमारे यहां जलेबी के नाम, बनाने के तरीके और स्वाद में कई बदलाव हुए हैं। अलग अलग राज्यों में जलेबी को अलग-अलग नामों से जाना जाता है। जैसे, महाराष्ट्र में इसे जिलबी, बंगाल में जिलपी, गुजरात में दशहरा, और आंध्र प्रदेश में इमरती और झांगिरी कहते हैं। हरियाणा और पश्चिमी उत्तर प्रदेश में बड़े आकार की जलेबी को जलेबा भी कहा जाता है। इसके खाने के तरीके भी अलग अलग हैं, कुछ लोग पोहे के साथ, कुछ रबड़ी के साथ, कुछ पनीर के साथ तो कुछ खोए के साथ या दूध अथवा दही के साथ खाते हैं। कानपुर जैसे शहर में तो लोगों की सुबह ही जलेबी के साथ होती है।जलेबी एक ऐसी मिठाई है जिसे बारहों महीने खाया जाता है। इस लिहाज से यह सदाबहार उद्यम सिद्ध हो सकता है। निष्कर्ष यह कि जीवन में नवाचार और नवोन्मेष कोई भी और कभी भी कर सकता है। इसके लिए उसका हृदय से स्वागत किया जाना चाहिए। इस स्थिति में इस बात के कोई मायने नहीं रह जाते कि ऊपरी मंजिल पर बागवानी जरूर होनी चाहिए। ऐसी बागवानी कहीं भी की जा सकती है। फिलहाल आप जलेबी के आईपीओ का इंतजार कीजिए, बहुत जल्द एक क्रांतिकारी उद्योग देश की सीमाओं के बाहर सात समंदर पार तक फैलने वाला है। इंतजार है तो सिर्फ मुहूर्त का।
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