स्मृति शेष- जाना अजय पंडित का..
वरिष्ठ पत्रकार हेमंत शर्मा
अजय उपाध्याय।…नहीं लिख पा रहा हूँ।….हमेशा अव्यवस्थित।इस बार भी मुझे फिर ब्यौरा दे दिया।कल ही बनारस से दिल्ली की ट्रेन में रिज़र्वेशन करवाया और पर यात्रा नहीं की।..और अनंत यात्रा पर निकल गए।मेरा पैंतालिस बरस का साथ छूट गया।लग रहा है शरीर का कोई हिस्सा अलग हो गया।चलन में अजय उपाध्याय, काग़ज़ों में अजय चंद उपाध्याय और मेरे अजय पंडित।मैनें और उन्होंने पत्रकारिता साथ साथ शुरू की।और संयोग यह था कि आगे की पत्रकारिता के लिए हम दोनो का एक ही दिन बनारस छूटा… महज कुछ घंटो के अंतराल पर।उनका गंतव्य दिल्ली और मेरा लखनऊ।
पंडित जी हिन्दी पत्रकारिता के पहले टेक्नोक्रेट संपादक थे।अद्भुत अध्येता और ज्ञानी संपादक।
मौलाना आज़ाद कालेज ऑफ इंजीनियरिंग भोपाल से इलेक्ट्रिकल इंजीनियरिंग की डिग्री लेने के बाद अजय पंडित बड़ौदा में क्राम्पटन ग्रिविज में नौकरी करने लगे।दिमाग़ में सिविल सर्विसेज़ का फ़ितूर था।सो इस्तीफ़ा दे बनारस आ गए।और बीएचयू की केन्द्रीय लाईब्रेरी में तैयारी में जुट गए।बारह बारह घंटे लाईब्रेरी में।मैं हिन्दी में एम ए कर रहा था।और उनका सिविल सर्विसेज़ में एक विषय हिन्दी था।सो पढ़ाई,नोट्स,किताब सामूहिक।वजह बीएचयू के एमए और सिविल सर्विसेज़ का हिन्दी पाठ्यक्रम हुबहू एक था।यह भी साथ का बड़ा कारण बना।
हम वर्षों हम पढ़ते ही रहे।इस दौरान हम दोनो कोई तीन साल तक केन्द्रीय ग्रन्थालय का स्थायी भाव रहे। …अजय पंडित ने खूब पढ़ा और इतना पढ़ लिया कि पत्रकारिता के अलावा उनके पास कोई चारा न रहा।वे सिविल सेवा में तो नहीं जा पाए।पर पत्रकार बन गए।तब तक पत्रकारिता में मेरे पंख निकल आए थे।८३ में जनसत्ता निकल चुका था और पढ़ाई के साथ साथ मैं बनारस में उसका स्ट्रींगर भी था।तभी एक घटना घटी और पंडित जी का रस्ता बदल गया।आज अख़बार के मालिक- संपादक शार्दूल विक्रम गुप्त के बेटे शाश्वत (जो अब दुनिया में नहीं है) उन्हें घर पर पढ़ाने के लिए एक शिक्षक की तलाश थी।पंडित जी अंग्रेज़ी और साईंस के मास्टर थे।उन्हें शाश्वत को पढ़ाने की ज़िम्मेदारी मिली।पढ़ाई के साथ साथ पंडित जी की आर्थिक स्थिति मज़बूत हुई।घर पर शाश्वत को पढ़ाते-पढ़ाते अजय पंडित का संवाद शार्दूल से होता रहा।शार्दूल को अजय उपाध्याय में भविष्य की संभावनाए दिखी।उन्होंने उनके अध्ययन का लोहा माना।….और अजय उपाध्याय सेवा उपवन ( शार्दूल का घर ) से ज्ञानमंडल (आज अख़बार का दफ़्तर) पहुँच गए।उन्हें ‘आज’ अख़बार के उस संपादकीय पृष्ठ का प्रभारी बनाया गया।जो कभी विद्याभास्कर ,चंद्रकुमार और लक्ष्मीशंकर व्यास के जिम्मे था।अजय ने संपादकीय पेज में क्रांतिकारी बदलाव किए।कई विदेश यात्राए की। कुछ ही वर्षों में आज के दिल्ली में ब्यूरो प्रमुख बना दिए गए।फिर जागरण,अमर उजाला और हिन्दुस्तान के प्रधान संपादक होते हुए।पंडित दिल्ली वाले हो गए।
अव्यवस्थित जीवन से स्वास्थ्य उनके जीवन में हमेशा चुनौती रहा।चालिस साल की उम्र से डायबटीज़ के शिकार हो गए।जिसका असर उनकी नज़रों पर पड़ा।पिछले दो साल से उनके ऑंख की रौशनी 90 प्रतिशत चली गयी।अब वे आवाज़ से पहचानते थे।
अजय उपाध्याय बहुत कम उम्र में हिन्दुस्तान अख़बार के प्रधान सम्पादक बने।उनके नेतृत्व में हिन्दुस्तान उतर भारत में तेज़ी से फैलने वाला अख़बार बना।संपादकों की मौजूदा परम्परा में वे सबसे ज्ञानवान संपादक थे।मुद्रण तकनीक से लेकर न्याय दर्शन तक। सामरिक नीति से लेकर समाज के सांस्कृतिक बनावट तक।पत्रकारिता में आपकी कमी खलेगी।बहुत याद आएँगे पंडित जी आप। प्रणाम।
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