डेढ़ सौ साल पहले दून-मसूरी रोड पर अकेले या निहत्थे यात्री के सफर पर रोक थी

बाघ/ गुलदार के डर से ब्रिटिश काल की रात्रि डाक बग्घी सर्विस में चार बंदूकची होते थे

19 सदी में दूनघाटी में गोरों ने बनाया था पहला ‘बाघ मारू’ दस्ते….?

अविकल उत्तराखंड

देहरादून। आजकल देहरादून समेत प्रदेश के अन्य इलाकों में बाघ व गुलदार के हमले बढ़ते जा रहे हैं। ये जंगली जानवर कई बच्चों को निवाला बना चुके हैं। कुछ दिन पहले सिंगली गांव में आंगन से गुजर रहे बच्चे को गुलदार उठा कर ले गया। नानकमत्ता इलाके में खेत में घास काट रही मां के सामने 5 साल के बच्चे को गुलदार ने मार दिया। दून के व्यस्तम इलाके कैनाल रोड के पास एक बच्चे को गुलदार ने सांय 6.30 बजे घायल कर दिया। इस घटना के बाद दून के कुछ इलाकों में कर्फ्यू लग गया है। शाम होते ही लोग घर में दुबक जा रहे हैं। रात्रि जागरण कर कनस्तर पीट कर गुलदार को भगाया जा रहा है। पुलिस व वन विभाग के कर्मी देर रात्रि गश्त पर हैं। लोगों को लाउडस्पीकर से एहतियात बरतने को कहा जा रहा है। वन विभाग ने इन इलाकों में पिंजड़े भी लगाए हैं। लेकिन गुलदार पकड़ से बाहर है और दहशत बरकरार है.. प्रसिद्ध साहित्यकार जयप्रकाश उत्तराखंडी ने ब्रिटिश काल में दून में बाघों के आतंक पर विशेष रिपोर्ट लिखी है..


जयप्रकाश उत्तराखंडी, प्रसिद्ध इतिहासकार

मसूरी/दून। जिस देहरादून में आज लोग बाघ के आंतक से खौफज़दा हैं, उसी दूनघाटी में कभी 19 वीं सदी में बाघ भालू या जंगली जानवरों से हिफाजत के लिए शौकिया या किराये के बंदूकची उपलब्ध थे। आये दिन देहरा शहर से राजपुर-मसूरी मार्ग पर बाघ भालू के हमलों से बचाव के लिए 17 फरवरी 1842 को देहरादून के सुप्रीडेन्डट(डीएम) Frederick Williams ने किराये पर या निस्वार्थ भाव से सेवा देने को तैयार गैरसरकारी बंदूकची रखने का आदेश जारी किया।

राजपुर से देहरादून मार्ग के बीच 1830-40 के बीच बाघों के हमले की 39 घटनायें दर्ज की गयी, जिसमें करीब 23 लोग मारे गये। 1860-90 के दशक में राजपुर से देहरादून रोड पर अकेले या निहत्थे यात्री का सफर वर्जित था। 1842 में दून-मसूरी में सबसे पहला ‘बाघमारू दस्ता’ मसूरी की मेकग्रेगोर कम्पनी ने बनाया, जिसमें कंपनी के गोरे साझेदारों के नौजवान रिश्तेदार थे। मसूरी राजपुर देहरादून और सहारनपुर में ऐसे कई हिफाजती दस्ते बने। 1880-90 के दिनों में सहारनपुर से राजपुर तक चलने वाली रात्रि डाक बग्घी सर्विस में चार के करीब बंदूकची होते थे।

इन सारे प्रयासों के बावजूद और एक दौर में साल दर साल बढते शिकार के बाबजूद दूनघाटी या पहाड से बाघ गुलदार या जंगली जानवर खत्म नहीं हुए। युद्धस्तर पर दूनघाटी के जंगल खेत शहरीकरण ने तबाह किए, फिर भी जंगली जीव नष्ट नहीं हुए।जंगली जीव नष्ट नहीं हो सकता, वह लौटकर वापिस आयेगा..आज वे अपने पुराने घर, जो अब कंकरीट के जंगल में बदल गया, वहाँ घुसकर इंसानी आबादी में अपना भोजन खोज रहे हैं।

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