पुस्तक समीक्षा- श्रेय-प्रेय के प्रति तटस्थ: ‘खाकी में स्थितप्रज्ञ’
अविकल उत्तराखंड
एक समीक्षक के तौर पर हमारी निजी मान्यता है कि ‘खाकी में स्थितप्रज्ञ’ को ‘भंवर एक प्रेम कहानी’ के विस्तार के क्रम में पढ़ा जाना चाहिए. इस रचना-यात्रा में फर्क केवल इतना सा दिखाई पड़ा कि पूर्व रचना और इस कृति के अंतराल में लेखक मध्यम पुरुष से प्रथम पुरुष में आ गए. यहां तक कि वंशवृक्ष में पितामह-मातामह का विस्तृत शजरा पेश करने में उन्होंने कतई संकोच नहीं किया।
बृहदारण्यक उपनिषद के बीजमंत्र और गोविंद निहलानी की ‘अर्धसत्य’ से प्रेरित, आदर्शवाद और साहस से लबरेज, लॉ एंड ऑर्डर ड्यूटी पर जाता नौजवान पुलिस अधिकारी मन ही मन मंथन कर रहा होता है- ऐसी कौन सी परिस्थितियों होती हैं जिसमें पुलिस को अपनी ही जनता पर गोली चलाने की आवश्यकता पड़ती होगी।
इस सच्चाई से साक्षात्कार होते उन्हें जरा भी देर नहीं लगती. उस अनुभव को बयां करते हुए उनकी साफगोई और सपाटबयानी दिखाई पड़ती है- हजारों की हिंसक भीड़ रेल यात्रियों पर भीषण हिंसा कर रही है. डेथ टोल दर्जन भर से ऊपर चला गया है. नृशंस हिंसा का तांडव जारी है.नौजवान पुलिस अफसर के सामने कर्तव्य-क्षेत्र उसका आह्वान कर रहा है. हिंसक भीड़ को चेतावनी देते हुए हवा में पिस्तौल लहराते हुए दौड़ लगाते ही, वह एक छात्र से पेशेवर पुलिस अधिकारी में तब्दील हो जाता है।
इस रचना में पूर्व पुलिस महानिदेशक अनिल रतूड़ी जी ने साढे तीन दशक के सेवा-अनुभवों से सिस्टम की कार्य-प्रणाली को उजागर किया है. एक पुलिस अधिकारी के रूप में विभिन्न जिम्मेदारियों का निर्वाह करते हुए वे जिन अनुभवों से गुजरे, उसका लेखा-जोखा काफी रोचक और सूचनाप्रद है।
यह उस दौर का तब्सरा है, जब मंडल आयोग, जन्मभूमि आंदोलन के चलते राजनीति का रुख बदल रहा था. साझा सरकारों का दौर शुरू ही हुआ था.राजनीतिक घटनाक्रम की दृष्टि से वह उथल-पुथल भरा काल था. यह वही समय है जब चुनाव सुधार सख्ती से लागू हो रहे थे।
उर्दू के राजभाषा घोषित होते ही सांप्रदायिक दंगे शुरू हो गए. हताहतों की संख्या तीस से ऊपर चली गई. सामान्यतया की बहाली के लिए सख्ती से कानून लागू करने पर जोर देने के फलस्वरूप सामान्य जनजीवन तो बहाल हो गया, लेकिन इसके एवज में उन पर जांच बैठ गई।
किसान यूनियन के करिश्माई अध्यक्ष की गिरफ्तारी का प्रसंग हो या कद्दावर नेताओं की नाराजगी के बावजूद वीवीआईपी सुरक्षा में मानक प्रक्रिया (एसओपी) को सख्ती से लागू करने पर जोर, पूर्व प्रधानमंत्री को कहना ही पड़ा- “आई लाइक योर कमिटमेंट टू ड्यूटी”।
लेखक की स्मृति बेजोड़ है. रोचक और बेबाक शैली में अनुभवों को साझा करते हुए यह सिलसिला और तारतम्य कहीं टूटता हुआ नहीं दिखाई देता।
दंगा नियंत्रण की चुनौतियों को इस कृति में बड़ी रोचकता से व्यक्त किया गया है- चाहे वह विधानसभा सत्र के दौरान भीषण पथराव की घटना हो या इमामबाड़े की कानून व्यवस्था का मसला, गोगा गैंग एनकाउंटर की घटना हो या स्टूडेंट यूनियन की बंदी की अपील को योजनाबद्ध तरीके से विफल करने की योजना पर अमल, ढांचा गिरने के बाद सांप्रदायिक दंगों पर दोषी की रिहाई के लिए महामहिम का दबाव हो या डीआरएम दफ्तर में अपराध कारित करने के बाद एविडेंस नष्ट करने की घटना, स्थितप्रज्ञ होकर कर्तव्यपालन में उन्होंने कहीं कोताही नहीं बरती।
यहां पर यह उल्लेख करना जरूरी जान पड़ता है कि उनके पीलीभीत तैनाती के दौरान प्राप्त अनुभवों को खास तौर पर देखा जाना चाहिए-
आतंकवाद से ग्रस्त जनपद में उस दौरान स्थिति बड़ी भयावह थी. वीरता पदक से अलंकृत अफसर को जब वहां तैनाती का आदेश मिला तो वह फौरन से पेश्तर मेडिकल लीव चले गए. रात्रिभोज के अवसर पर पुलिस महानिदेशक के आवाह्न पर ड्यूटीबाउंड अफसर के रूप में रतूड़ी जी ने स्वेच्छया (वॉलंटरिली) इस चुनौती को स्वीकार किया।
दांपत्य जीवन में खूबसूरत तालमेल का कितना सुंदर उदाहरण है. रेखांकित किए जाने योग्य बात यह है कि मध्यमवर्गीय समाज के सदस्य होने के नाते आतंकवादग्रस्त जनपद में रवाना होने से पहले दंपत्ति ने बीमा करवाया।
वहां जाकर जहां एक ओर उन्होंने अपनी सशक्त नेतृत्व शैली में पेशेवर दक्षता का उदाहरण पेश किया, वहीं मानवीय मूल्यों की रक्षा में कोई कसर नहीं रख छोड़ी, अधीनस्थों का मनोबल बढ़ाया, कॉबिंग, सर्च अभियान के जरिए आतंकवादियों के मनोबल को न्यूनतम धरातल पर रख छोड़ा, वहीं समानांतर रूप से ऑपरेशन गुडविल के क्रम में दोनों पाटों में पिस रहे अन्याय, पक्षपात, पूर्वाग्रह, ज्यादती के शिकार निर्दोष नागरिकों को बेलआउट कराने में भरसक मदद की।
प्राय: एक बरस सूझबूझ भरे उठाए कदमों के दूरगामी परिणाम मिलने ही थे, जनजीवन सामान्य होने के क्रम में तत्कालीन पुलिस महानिदेशक की टिप्पणी द्रष्टव्य है- कप्तान साहब! आपने आतंकवादी को नहीं, आतंकवाद समाप्त करने की दिशा में सराहनीय प्रयास किया है।
पॉलीटिकल मास्टर्स उनसे जिन कारणों से नाराज थे, उनका समाधान उनके पास नहीं था. सीधी रीढ़ की शख्सियतों के पास वह समाधान हो भी नहीं सकता. समूचे प्रांत में वह एकमात्र कप्तान थे जो कांस्टेबल की जनपद भर्ती बोर्ड के अध्यक्ष नहीं थे, उनके बरक्स वाहिनी के ‘भरोसेमंद’ सेनानायक पर भरोसा जतलाया गया. या फिर सहकारिता चुनाव में निर्विरोध निर्वाचन की कामना करने वाले प्रतिनिधि की नाराजगी. परिणाम वही बाध्य प्रतीक्षा, तबादला दर तबादला।
जहां जिम्मेदारी मिली, वहीं उन्होंने पूरे मनोयोग से कर्तव्यपालन किया. यही वह ताप है जो भीतर ही भीतर हमें समृद्ध और परिपक्व बना जाता है।
सत्तारुढ़ रहने के दौरान उनके प्रति बेरुखी अख्तियार करने वाले पूर्व मुख्यमंत्री की आशंका पर वे आम आदमी और लोकतंत्र की रक्षा की विधिवत् गारंटी देते हैं।
यह जो अवमूल्यन है, केवल लॉमेकर्स की तरफ से नहीं है, मशीनरी में भी वह गिरावट दिखाई देती है. रतूड़ी जी दंगाइयों से घिरे हैं, वह अधीनस्थ अफसर, जो इमदाद लेकर आया था, घटनास्थल तक नहीं पहुंच पाता, क्योंकि वह पहुंचना ही नहीं चाहता. सेवानिवृत्ति उसके सर पर है. उससे पहले वह किसी किस्म की जांच नहीं चाहता, सकुशल रिटायरमेंट उसका परम लक्ष्य है।
राष्ट्रीय पुलिस अकादमी का अनुभव इस कृति का सबसे लंबा अध्याय है. जहां उन्होंने मुस्तैदी से प्रायः चार वर्ष बिताए.
यह अनुभव क्रमशः उत्तराखंड राज्य में वामपंथी घटनाओं के न्यूनीकरण, एसडीआरएफ गठन से कोविड-19 तक जाते हैं.
यह उस आदर्शवादी खुद्दार नौजवान के सेवाकाल के अनुभव हैं, जो नौकरी और जीवन से सबक सीखता है. विषम परिस्थितियों से निपटने के दौरान हर बार वह अपने हृदय में झांकता है, विवेक को जाग्रत रखता है. पेशेवर लाइफ और प्राइवेट लाइफ को विभाजित नहीं किया जा सकता. वह दोनों में सामंजस्य और निरंतरता बनाते हुए करियर को बेदाग बनाए रखने की हर संभव कोशिश करते हुए अंततः उसमें सफल साबित होता है।
समीक्षक-आईएएस ललित मोहन रयाल

