…पूर्व विधायक ऐरी के समय 1995 में बनी सड़क पर अभी तक डामरीकरण नहीं
मुनस्यारी से लगे सरमोली गांव के होम स्टे टूरिज्म से आयी बहार
पढ़ें, अस्कोट-आराकोट अभियान 2024 की रिपोर्ट
कस्तूरा मृग अभ्यारण्य- सड़क नहीं होने से नेपाल तक के शिकारी हुए बेखौफ
क्यों नहीं दे रहे कनार के ग्रामीण 2019 से वोट
अस्कोट-आराकोट अभियान 2024 की प्रारंभिक अस्थाई रिपोर्ट के अंश…
..गतांक से आगे
…दारमा घाटी के लोगों ने 2022 में इस परियोजना के खिलाफ एक हफ्ते लंबा आंदोलन चलाया। फिलहाल बांध का काम रुका हुआ है। लेकिन ग्रामीणों को आशंका है कि, सरकार जल्द से जल्द इस बांध को बनाने पर आमादा है।
कस्तूरा मृग अभ्यारण्य से घिरे पय्यापौड़ी, कनार, जारा-जिबली मैतली आदि गांवों के लोगों को अभयारण्य के कठोर कायदों के कारण कई तरह की समस्याओं का सामना करना पड़ रहा है। क्षेत्र में सड़कें नहीं बन पा रही हैं। बिजली छह साल पहले 2018 में आयी है। संचार, स्वास्थ्य, शिक्षा की सुविधाओं का लाभ भी अभयारण्य से घिरे गांवों को नहीं मिल रहा है। बलुवाकोट से पय्यापौड़ी की यह सड़क पूर्व विधायक काशी सिंह ऐरी के कार्यकाल में 1995 में बनी। लेकिन आज तक इसमें डामर नहीं किया गया। कनार गांव, बरम से करीब 15 किमी की पैदल दूरी पर स्थित है।
अभयारण्य के नियमों के कारण गांव को सड़क से नहीं जोड़ा गया है। कनार गांव के तोक तेजम निवासी राम सिंह ने कहा कि, सरकार कहती है कि, सड़क बनाने से कस्तूरा मृग के शिकार की घटनाएं बढ़ जाएंगी। जबकि, सच्चाई यह है कि, सड़क बनने से ही कस्तूरा मृग बच सकता है।
उन्होंने कहा कि, कनार गांव तक सड़क बन जाती तो वन विभाग की गश्त होती। गाहे-बगाहे अफसर, पुलिस भी यहां पहुंचती। इससे शिकारी गिरोहों की लगाम कसती। सड़क है नहीं। इसलिए छिपला केदार में नेपाल, कुमाऊं से लेकर गढ़वाल तक के शिकारियों के झुंड कस्तूरा, भालू, गुलदार समेत कई वन्यजीवों का बेखौफ शिकार कर रहे हैं।
उनका कहना था कि, शिकारियों के कारण अब यहां काकड़ तक के दर्शन तक तक दुर्लभ हो गए हैं। यही हाल जड़ी-बूटियों और बांज के पेड़ों पर मिलने वाले झूला के दोहन का भी है।
सड़क नहीं बनने के कारण नेताओं से नाराज कनार के लोगों ने 2019 के बाद से वोट देना बंद कर दिया है। गांव में 587 वोटर पंजीकृत हैं। गांव वालों ने 2019 के लोकसभा, 2022 के विधानसभा और इस बार के लोकसभा चुनाव का बहिष्कार किया। ग्रामीणों का कहना है कि, इस बार उनके गांव में केवल चार वोट पड़े। वोट डालने वाले सरकारी कर्मचारी थे। उन्हें वोट नहीं डालने पर कार्रवाई का डर था। चुनाव बहिष्कार वापस लेने को मनाने के लिए अफसर भी गांव पहुंचे। लेकिन गांववालों ने साफ कह दिया कि, रोड नहीं तो वोट नहीं। गांव वाले कहते हैं कि, विकास की बड़ी बड़ी बातें करने वाले यदि हमें एक सड़क नहीं दे सकते तो हमें भी उनकी जरूरत नहीं हैं।
अस्कोट अभयारण्य की स्थापना दुर्लभ हिमालयी जीव कस्तूरा के संरक्षण के लिए की गई है। लेकिन इस नेक उद्देश्य पूरा करने के लिए सरकार गंभीर नहीं है। जिस इलाके में आम आदमी का प्रवेश तक वर्जित है, वहां तस्करों का तंत्र बेरोक-टोक अपने अवैध कामों को अंजाम दे रहा है।
तेजम गांव के राम सिंह कहते हैं कि, छिपलाकेदार पहाड़ी की जड़ में बसे इन गांवों के लोगों को जंगल में प्रवेश करने की मनाही है। न कोई वन उपज जंगल से उठा सकते हैं, न ही पशुओं को वहां चराने ले जा सकते हैं। इसका अंजाम यह हुआ कि, तस्करों ने कुछ गांव वालों को पैसे का लालच देकर कीड़ा जड़ी से लेकर जड़ी बूटियों, झूला आदि के दोहन में लगा दिया। सरकार की नजर में यह काम गैर कानूनी है। लेकिन इस पर रोक लगाने वाला यहां कोई नहीं है। यदि इन इलाकों को सड़क और संचार की सुविधाओं से जोड़ दिया जाए तो तस्करों के तंत्र का अंत किया जा सकता है और इससे सरकार की आमदनी भी होगी और कस्तूरा भी बचेगा।
हिमालयी क्षेत्र में स्नोलाइन के आसपास मिलने वाले यारसागुम्बा या कीड़ा जड़ी इन दूरस्थ क्षेत्रों की आर्थिकी का प्रमुख आधार है। इन दिनों गांव के अधिकांश युवा, छात्र कीड़ा जड़ी लेने छिपला केदार गए हुए हैं। कीड़ा जड़ी लेने जाने वाले लोगों के साथ राशन, शराब आदि बेचने वाले भी छिपला केदार जाते हैं। छिपलाकेदार में कीड़ा जड़ी 800 रुपए प्रति पीस के हिसाब से बिक जाती है। कुरखेती गांव के मदन सिंह बिष्ट ने बताया कि, छिपला केदार में गांवों के हिसाब से कीड़ा जड़ी को निकालने के लिए क्षेत्र बंटे हुए हैं। कई बार लोगों के बीच कीड़ा जड़ी निकालने को लेकर हिंसक संघर्ष भी जाता है। तेजम के राम सिंह कहते हैं, जब तक कीड़ा जड़ी का प्रचलन नहीं था तो गांव में लोग खेती-बाड़ी, रोपाई करते थे।
अब कीड़ा-जड़ी और अन्य जड़ी बूटियों के दोहन से अच्छा पैसा मिल जाता है, इसलिए गांव में खेती बहुत कम रह गई है। कीड़ा जड़ी का दाम साढ़े बारह लाख रुपए किलो तक मिल जाता है। कीड़ा जड़ी के बदले मिलने वाले पैसे से लोग नए घर, जेवर बना रहे हैं। कुछ लोगों ने पिथौरागढ़, भाबर में जमीन भी ले ली है। कीड़ा जड़ी से मिलने वाले पैसे से कुछ लोग नशे के आदी भी बन चुके हैं। कीड़ा जड़ी खरीदता कौन है, इस पर गांव वाले साफ साफ कुछ नहीं बताते। हालांकि, कुछ लोग कहते हैं कि, नेपाल के ठेकेदार इसे खरीदते हैं, वहीं इसका दाम भी तय करते हैं।
27 मई की शाम जब यात्री दल कनार गांव पहुंचा तो समय पर अस्पताल नहीं पहुंचने के कारण 48 साल के जीत सिंह परिहार की मृत्यु हुई थी। जीत सिंह कीड़ा जड़ी लेने गांव वालों के साथ छिपला केदार गए थे। 26 मई को उनके पेट में भीषण दर्द हुआ। ऐसे में वह खुद ही छिपला केदार से घर के लिए रवाना हुए। रास्ते में हालत ज्यादा बिगड़ जाने पर साथी उन्हें एक डंडे में चादर से बांध कर घर तक लाए। इलाके में कहीं भी अस्पताल की सुविधा नहीं है। 15 किमी दूर बरम से एक एएनएम को फर्स्ट एड के लिए संपर्क किया गया।
अस्पताल पहुंचाने के लिए हेलीकॉप्टर की मदद भी गांव वालों ने मांगी। लेकिन अंततः डोली में बरम ले जाते समय गांव से डेढ़ किमी दूर जीत सिंह ने दम तोड़ दिया। 28 मई को जब यात्री दल कनार गांव से आगे बढ़ रहा था तो आसमान में हेलीकॉप्टर की आवाज गूंज रही थी। कुरखेती गांव के मदन सिंह ने बताया कि, यह हेलीकॉप्टर जीत सिंह के बेटे को अस्पताल ले जाने के लिए आया है। बीमार होने के कारण यह युवक न तो अपने पिता की अंतिम यात्रा में शामिल हो सका, न ही मुखाग्नि दे सका।
खेतीखान गांव में भी लोगों ने बताया कि, अस्पताल नहीं होने के कारण बेमौत मरने की कई घटनाएं उनके गांव में हुईं हैं। गांव में किसी बीमार पड़ने या प्रसव के लिए डोली से मरीज को बरम ले जाना पड़ता है। ऐसे में कई महिलाओं की रास्ते में ही डिलीवरी हो जाती है। मौके पर किसी तरह स्वास्थ्य सहायता नहीं मिलने पर कभी नवजात तो कभी महिला की मौत हो जाती है।
केंद्र सरकार की ओर से गरीबों को हर माह पांच किलो मुफ्त राशन दिया जाता है। दवलेख गांव से मुफ्त राशन लेने के लिए करीब आठ किमी की
पैदल ढलान पार कर लुम्ती जाना पड़ता है। दवलेख की एक महिला ने बताया कि, जब वह यह राशन लेने लुम्ती जाती हैं तो दूसरे थकान के मारे उठ नहीं पाती।
उन्होंने कहा कि, यदि घोड़े से यह राशन मंगाएं तो चार सौ रुपए भाड़ा चुकाना पड़ता है।
कनार, मैतली, दवलेख, जारा-जिबली गांवों में दलितों की आबादी नाममात्र की है। लोगों ने लोहार, दर्जी आदि के काम के लिए दलितों को अपने गांवों में बसाया है। इन्हें, घर बनाने और खेती के लिए जमीन भी दी है। लेकिन इस जमीन का मालिकाना हक दलित परिवारों को नहीं मिला है। कुरखेत गांव के मदन सिंह ने बताया कि, क्षेत्र में लोहारों को फसल का एक निश्चित हिस्सा, जिसे खल कहा जाता है, देने की परंपरा आज भी है। इसके बदले लोहार कृषि यंत्र बनाकर लोगों को देते हैं।
कुमाऊं के निचले इलाकों में ढोल बजाना, मढ़ना और छलिया डांस, दलित समुदाय का पेशा है। लेकिन कनार, मैतली, जारा-जिबली, खेतीखान, दवलेख गांवों में सवर्ण कहा जाने वाला समुदाय खुद यह काम करता है। जारा-जिबली गांव के बैकोट तोक निवासी पूर्व वन पंचायत सरपंच रूप सिंह धामी ने बताया कि, इस इलाके में ढोल बजाने और उसे मढ़ने का काम सवर्ण ही करते हैं।
धामी ने बताया कि, इस इलाके में दैन और बौं दमौ बजाने का चलन है। दैन दमौ यानी बड़ा ढोल जड़ाऊ, सराऊ और हिमालयी थार की खाल से मढ़ा जाता है। इन वन्य पशुओं की खाल ग्रामीण जंगल से लेकर आते हैं। रूप सिंह धामी ने बताया कि, जब जाड़ों में भारी हिमपात के कारण ये हिमालयी वन्यजीव चट्टानों से गिरकर दम तोड़ देते हैं तो गांव वाले इनकी खाल निकाल लेते हैं। इससे ढोल मढ़ा जाता है।
बौ दमौ यानी छोटे ढोल को काकड़ या भेड़ की खाल से मढ़ा जाता है। कनार का विशालकाय ढोल अब पूरे उत्तराखंड में अपनी जगह बना चुका है। क्षेत्र के मंदिरों में पूजा पाठ के काम में ब्राह्मण समुदाय की भागीदारी बहुत कम है। ठाकुर लोग खुद ही अपने मंदिरों में पूजा करते हैं। केवल कथा, पाठ, गोदान जैसे काम की ब्राह्मणों से कराए जाते हैं।
मुनस्यारी से लगे सरमोली गांव ने होम स्टे टूरिज्म के जरिए सामुदायिक पर्यटन का नया मॉडल तैयार किया है। भारत सरकार ने पिछले साथ सरमोली को देश के सर्वश्रेष्ठ पर्यटन गांव का पुरस्कार दिया है। गांव में तीस से अधिक होमस्टे हैं। जिन्हें हिमालयन आर्क नाम की कंपनी बनाकर संचालित किया जा रहा है।
सरमोली में होमस्टे का संचालन करने वाली दीपा नित्वाल ने बताया कि, प्रत्येक होमस्टे की बुकिंग ऑनलाइन की जाती है। होमस्टे बारी बारी से बुक किए जाते हैं। बिना बुकिंग आने वाले पर्यटकों को कमरा नहीं दिया जाता है।
दीपा ने बताया कि, होमस्टे से जुड़ी महिलाओं ने अपना वाट्सएप ग्रुप बनाया है। पर्यटकों की ओर से अभद्रता किए जाने की स्थिति में महिलाएं ग्रुप में संदेश भेजी हैं और सारी महिलाएं मदद के लिए एकत्र हो जाती हैं।
सरमोली गांव में अभियान दल के साथ बैठक के दौरान समाजसेवी मल्लिका विर्दी ने बताया कि, सरकार के स्तर पर सरमोली को मुनस्यारी नगर पंचायत में शामिल करने की तैयारी की जा रही है। यदि ऐसा हो गया तो हम अपने पंचायती वन पर सदियों पुराना अधिकार खो देंगे। साथ ही नगर पंचायत में शामिल होने के बाद गांव वाले खुद वन पंचायत सरपंच नहीं चुन पाएंगे। बल्कि नगर पंचायत सरपंच को मनोनीत करेगी।
इससे पर्यटन विकास के नाम पर गांव के वन क्षेत्र पर दबाव बढ़ सकता है। सरमोली और आसपास के गांवों की वन्यता पर भी इसका विपरीत असर पड़ सकता है। बैठक में मौजूद महिलाओं का कहना था कि, हम किसी भी कीमत पर अपने गांव को नगर पंचायत में शामिल नहीं होने देंगे। चाहे इसके लिए आंदोलन ही क्यों न करना पड़े।
बिर्थी फॉल का आकर्षण अब स्थानीय अर्थव्यवस्था का रूप से ले रहा है…जारी
Total Hits/users- 30,52,000
TOTAL PAGEVIEWS- 79,15,245