हटाये गए तदर्थ कर्मी विधानभवन के बाहर बच्चों के साथ सांकेतिक धरने पर बैठे.
स्पीकर से पूछा ,2001 से 2015 तक की गयी नियुक्ति वैध कैसे
अविकल उत्तराखण्ड
देहरादून। उत्तराखण्ड विधानसभा से हटाए गए तदर्थ कर्मियों का मसला नया रंग अख्तियार करता दिखाई दे रहा है।
सुप्रीम कोर्ट की नैनीताल हाईकोर्ट व स्पीकर के फैसले पर मुहर लगने के बाद पूर्व तदर्थ कर्मियों ने सड़क पर उतर कर मोर्चा खोल दिया है।
भारी संख्या में पूर्व तदर्थ कर्मियों ने स्पीकर के फैसले के विरोध में सांकेतिक धरना दे जमकर नारेबाजी की। प्रदर्शन में काफी संख्या में महिला कर्मी मौजूद रही। धरने में परिजन व बच्चे भी शामिल हुए।
विधानसभा के बाहर सांकेतिक धरने पर बैठे विधानसभा के पूर्व कर्मियों का कहना है कि जब डी के कोटिया कमेटी ने 2001 के बाद कि सभी नियुक्तियों को अवैध माना है तो सिर्फ 2016 के बाद नियुक्त तदर्थ 228 कर्मियों को ही क्यों हटाया। यह न्याय अधूरा है। उनके साथ दोहरा व्यवहार किया गया।
प्रदर्शनकारी हाथों में तख्ती भी लिए हुए थे। पोस्टर में लिखा था कि पिता के समय हुई नियुक्ति वैध और बाकी नियुक्तियां अवैध।
विधानसभा बैकडोर भर्ती घोटाले में अब 2001 के बाद हुई नियुक्तियों को भी रद्द करने की मांग उठने लगी है।
पूर्व स्पीकर गोविन्द सिंह कुंजवाल ने तो यहां तक कह दिया कि उनसे कोई गलती हुई है तो उन्हें जेल भेज दिया जाय। कुंजवाल ने कहा कि 2016 में उन्होंने 150 लोगों को नौकरी दी थी। अगर ये भर्तियां अवैध है तो वे 2001 से हुई भर्तियां कैसे वैध हो गयी। कुंजवाल ने कहा कि नौकरी देने वालों पर भी कार्रवाई होनी चाहिए।
उधर, पूर्व सीएम हरीश रावत ने कहा कि तदर्थ कर्मी हटा दिए गए जबकि मंत्रिमंडल में मौजूद पूर्व स्पीकर प्रेमचन्द अग्रवाल कुर्सी पर जमे हुए हैं।
इस मुद्दे पर जारी राजनीतिक जंग में भाजपा के प्रदेश अध्यक्ष महेंद्र भट्ट का कहना है कि कांग्रेस को पहले पूर्व स्पीकर यशपाल आर्य व गोविंद सिंह कुंजवाल पर कार्रवाई करनी चाहिए।
बहरहाल, विधानसभा में 2016 के बाद तदर्थ नियुक्ति की आग 2001 तक पहुंचती दिखाई दे रही है। प्रदर्शनकारियों का कहना है कि डीके कोटिया एक्सपर्ट जांच कमेटी ने 2001 के बाद हुई सभी नियुक्तियों को नियम विरुद्ध माना है। लेकिन खामियाजा हमको ही भुगतना पड़ा।
प्रदर्शनकारी नित्यानन्द स्वामी से लेकर बीसी खंडूडी के कार्यकाल में हुई नियुक्तियों पर कोई निर्णय नहीं होने पर स्पीकर ऋतु खंडूडी के फैसले को भेदभावपूर्ण करार दे रहे हैं।
इस चर्चित प्रकरण पर अभी तक कोर्ट व राजनीतिक गलियारों में ही विशेष सुगबुगाहट देखी जा रही थी। लेकिन हटाये गए तदर्थ कर्मियों के सड़क पर उतरने से यह मसला विपक्षी राजनीतिक दलों के लिए मुख्य हथियार बनता जा रहा है।
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