पत्रकार- लेखक संजय श्रीवास्तव की कलम से
मुझे तो हमेशा ऐसा लगता रहा कि जैसे दौड़ का दूसरा नाम मिल्खा है. कोई मिल्खा कहता था और अपने ट्रैक पर दौड़ते एथलीटों की तस्वीरें दिमाग के सामने आकार बनाने लगती थीं. उनका इतने सालों से हमारे बीच रहना ही किसी लीजेंड का ये विश्वास दिलाना था कि मैं कोई कल्पना नहीं हूं बल्कि हाड़-मांस का ही बना हूं. लेकिन इस्पात की फौलादी भी हूं. उनका जीवन तो ऐसा था मानो एक जीवन ना जाने कितनी ही जिंदगियां.
बंटवारे के दौरान उनके सामने पिता का कत्ल हो जाता है. मरते हुए पिता बेटे की जान के फिक्रमंद थे. वो चिल्लाते हैं – भाग मिल्खा भाग. मिल्खा जान बचाकर पास के जंगल में भाग जाते हैं. रात जंगल में बिताते हैं. सुबह किसी तरह से दिल्ली जाने वाली ट्रेन में सवार होते हैं. उन्हें पहली नौकरी एक स्वीपर की मिलती है. 10 रुपए की पगार पर. दरअसल मिल्खा की पूरी कहानी गजब की जिजीविषा, संघर्ष और असीमित मानवीय क्षमताओं और संभावनाओं की भी कहानी है. वो ऐसे उदाहरण हैं, जो बताता कि इस जीवन में आप अपनी जिंदगी को कहां से कहां तक पहुंचा सकते हैं.
खैर उनकी कहानी पर आते हैं. जन्म पंजाब में हुआ जो अब पाकिस्तान का हिस्सा है. हालांकि उनके पिता मुजफ्फरगढ़ के गोविंदपुरा के कोटअड्डू में किसान थे. हालांकि उनके पूर्वज राजस्थान से वहां जाकर बस गए थे. पिता के पास छोटी सी जमीन थी. हंसी-खुशी परिवार चल रहा था. गांव मोहब्बत वाला था. लेकिन बंटवारे का सांप्रदायिक दानव एक दिन बाहरी लोगों के झुंड के साथ गांव भी पहुंचा. तब मिल्खा सिंह 15 साल के थे. मुल्तान के इस रिमोट क्षेत्र को माना जा रहा था कि यहां लोग जैसे हैं वैसे ही रहेंगे. बंटवारे की आग की लपटें यहां नहीं पहुंचेंगी.
जब पहुंची तो मिल्खा की दुनिया देखते ही देखते उजड़ गई. गांव में आपसी रिश्ते बहुत अच्छे होते हुए भी बाहरी उपद्रवियों और गांव के घात लगाए लोगों के झुंड ने सबकुछ उजाड़ दिया. तब मिल्खा गांव की ही मस्जिद में लगने वाले स्कूल में दूसरे धर्म के बच्चों के साथ पढ़ते थे. तब दौड़ नहीं बल्कि कबड्डी और कुश्ती बच्चों से लेकर बड़ों के पसंदीदा खेल होते थे.
उपद्रवियों ने पिता को जब मौत के घात उतारा तो ये सब मिल्खा की आंखों के सामने हुआ. जमीन पर धराशाई होते होते पिता चिल्लाए-भाग मिल्खा भाग. उस दिन मिल्खा ऐसा भागा कि किसी की पकड़ में नहीं आया. पास के एक जंगल में रात भर के लिए शरण ली. फिर किसी तरह अगल दिन ट्रेन पकड़कर दिल्ली आया. बल्कि यूं कहिए कि उसे लोग बचाकर दिल्ली ले आए. लेडीज कूपे में छिपाकर.
पुरानी दिल्ली के प्लेटफार्म पर उन दिनों शरणार्थियों का रैला लगा हुआ. कालरा बीमारी भी फैल रही थी. वो वहीं तीन हफ्ते तक रहे. उन्हें लग रहा था कि उनका पूरा परिवार मारा जा चुका है. तब गांव के ही परिचित शरणार्थियों में किसी ने बताया, तेरी बहन तो जिंदा है. वो भी भारत आ गई है. फिर वो बहन की तलाश में जुटे. भाई ने बहन को तलाश ही लिया.
शरणार्थी कैंप में आसरा तो सिर छिपाने का था. लेकिन खाने और पहनने के लिए तो कुछ चाहिए था. तब मिल्खा ने पहली नौकरी तलाश की. वो थी दुकान के क्लीनर की. वेतन 10 रुपए महीना. साथ में उन्होंने 09वीं क्लास में दाखिला भी ले लिया. लेकिन खाने और रहने की इस जद्दोजेहद में कौन स्कूल जा पाता है. जिंदगी बहुत मुश्किल थी. एक बार वो ट्रेन से बगैर टिकट यात्रा करते हुए भी पकड़े गए. तब बहन ने अपने जेवरात बेचकर उनकी जमानत कराई.
खैर, इसी बीच उनको पता लगा कि सेना की भर्ती पुरानी दिल्ली में हो रही है. एक नहीं तीन बार वो रिजेक्ट हुए. खैर फिर रिश्ते के एक भाई की मदद से वो 1952 में सेना में चुन लिए गए. बस यहीं पर मिल्खा और दौड़ एक दूसरे के पर्याय बन गए. उन्होंने 80 इंटरनेशनल रेस में हिस्सा लिया. 77 में जीत. 1958 में जब वो कामनवेल्थ गेम्स में जीते तो सबकी नजरों में आकर फेमस हो गए.
मिल्खा का नाम लिया जाने लगा. उसी दौरान भारत-पाकिस्तान के बीच स्पोर्ट्स मीट हुई. मिल्खा को वहां जाने का न्योता दिया गया. हालांकि वो नहीं जाना चाहते थे. शायद बंटवारे की दुखद स्मृतियों के चलते. लेकिन किसी तरह उन्हें इसके लिए मना लिया गया. वो पंजाब में अपने गांव गए. बचपने के दोस्तों से मिले. ये उनका ऐसा अनुभव था, जिसने उनकी कटुता को काफी हद तक कम कर दिया.लेकिन असली मंच तो उनका इंतजार कर रहा था. जब पाकिस्तान में ट्रैक पर दौड़े तो ऐसा दौड़े मानो कोई हवा में उड़ रहा हो. तभी अयूब खान ने उन्हें देखकर कहा – अरे ये तो फ्लाइंग सिख है. हालांकि दौड़ की उनकी जड़ें भी उनके गांव से जुड़ी हैं.क्योंकि स्कूल के लिए उन्हें कोटअड्डू से रोज 10 किलोमीटर दूर जाना होता. हर रोज वो उनके दोस्त नंगे पैर ही स्कूल तक की दौड़ लगाते थे. गरमी में वो तपती जमीन पर दौड़ा करते थे. यही वो जिंदगी थी, जिसने उनकी आगे की जिंदगी के लम्हों में भरपूर तरीके से दौड़ को भर दिया.
मिल्खा की प्रेम कहानी भी गजब की है. श्रीलंका में वो अपनी पत्नी निर्मल से मिले, जो भारत की ओर से वहां वालीबाल टीम में शिरकत कर रही थीं. प्यार हुआ. 1962 में शादी हो गई.
मिल्खा सिंह ने कुछ समय पहले एक इंटरव्यू में कहा-वो अपनी जिंदगी में तीन बार रोए.पहला तब जब अपने परिवार को आंखों के सामने मरते हुए देखा. दूसरा तब जब रोम ओलंपिक में रिकार्डतोड़ दौड़ के बाद भी गोल्ड क्या कांस्य भी जीतते रह गए. तीसरा तब जब उन्होंने अपनी बॉयोपिक फिल्म भाग मिल्खा भाग देखी.
मिल्खा दौड़ में भी चैंपियन थे और जीवन में भी. जीवन का हर पल उन्होंने भरपूर जिया. बेबाक थे. कुछ लोगों को लगता था कि वो आत्ममुग्ध और बड़बोले थे. लेकिन जो भी थे, वो अलग थे और ऐसे थे जिन्होंने दिखाया कि जिंदगी में आप चैंपियन कैसे बनते हैं. असली जिंदगी तो तभी है जब आप जीवन को मिल्खा की तरह दुखों का सीना चीरकर भी जी सकें.
संजय श्रीवास्तव,वरिष्ठ पत्रकार। कई बड़े मीडिया संस्थानों में कार्य कर चुके हैं। वर्तमान में नेटवर्क 18 , नोएडा में कार्यरत हैं।
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