127 साल पहले दो अंग्रेज इंजीनियरों बने थे देवदूत, सूझबूझ से बचाई थी सैकड़ों जानें


आपदा से बचने के लिए पहाड़ की निचली घाटियों में सूचना तंत्र को किया था विकसित


अनिल बहुगुणा/मुकेश आर्य


पौड़ी। बिन बादल बरसात और सूखे में आई बाढ़, ये है हिमालय की दहाड़। जी हां ऊंचे-ऊंचे पहाड़, हरे-भरे बुग्याल, प्रकृति को बाहों में समेटे खड़ा देव भूमि चमोली अब त्रासदी का दूसरा नाम बन गया है। बीते रविवार 7 फरवरी को सूखे में आई बाढ़ ने पूरे राज्य को झकझोर कर रख दिया है।


गढ़वाल मंडल के अन्तर्गत आने वाले चमोली जिले को प्राकृतिक सौन्दर्य के लिहाज से काफी धनी माना जाता है। यही नहीं देवभूमि के नाम से विख्यात यह क्षेत्र देश विदेश के सैलानियों की पहली पसंद भी है। लेकिन मौजूदा समय में इस क्षेत्र को त्रासदी का दूसरा नाम भी कहा जाने लगा है। ऐसा नहीं कि इस क्षेत्र में यह घटना पहली बार हुई।

आज से करीब 127 साल पहले दो अंग्रेज इंजीनियरों की सूझबूझ ने बचाई सैकड़ों पहाड़ियों की जान बचाई थी। उत्तराखंड आपदा के इतिहास में 127 साल पहले यानी 1893 में इसी क्षेत्र में हुई आपदा का उल्लेख एचजी वालटन कृत गढ़वाल हिमालयन गजेटियर में मिलता है। जिसमें दो अंग्रेज इंजीनियरों की सूझबूझ से सैंकड़ों लोगों की जान बचाने का उल्लेख है। बताया जाता है कि 1893 में अलकनंदा की सहायक नदी बिरही गंगा पर पहाड़ टूटने से गौना या दुर्मिताल बन गया था। यह झील करीब दो मील लम्बी और आधा मील चैड़ी थी।

इस ताल में पानी भरने से वह करीब नौ सौ फीट ऊंचे बांध में तबदील हो गई। इस झील में पहाड़ टूटने की खबर पर दो अंग्रेज इंजीनियर लेफ्टिनेंट कर्नल पल्फोर्ड और उनके सहायक लेफ्टिनेंट कुकशैक वहां पहुंचे। दोनों ने अगले साल 1894 के अगस्त में ताल के भरने का स्पष्ट उल्लेख किया था। इसी बीच अंग्रेज सरकार ने इस क्षेत्र के सूचना तंत्र को मजबूत करने का काम भी शुरू कर दिया। महज एक साल के भीतर ही पौड़ी से निचली घाटी चमोली, नंदप्रयाग, कर्णप्रयाग, रूद्रप्रयाग, व्यासघाट, ऋषिकेश, हरिद्वार और श्रीनगर में सूचनाएं भीजवाने के लिए तारघर स्थापित कर दिये गये। और फिर वर्ष 22 अगस्त 1894 को ताल से पानी का रिसाव शुरू हो गया। 25 अगस्त 1894 की रात को ताल टूट गया और बिरही नदी प्रचंड वेग से बह निकली। ऋषिकेश तक जानमाल को भारी नुकसान हुआ। बिरही नदी मंे आई बाढ़ में राजा अजयपाल का बसाया पुराना श्रीनगर पूरे का पूरा बह गया। गनीमत यह रही कि इससे पहले ही श्रीनगर को पूरा खाली करा दिया गया था। जिसमें केवल एक ही व्यक्ति की जान गई।


50 साल पहले फिर गौना या बिरही गंगा ताल में बहे 70 लोग


पौड़ी। आजादी के बाद अंग्रेजी तंत्र आपदा के क्षेत्र से पूरी तरह से गायब हो चुका था। लोग निश्चिंत थे। फिर आज से करीब 50 साल पहले यानी 20 जुलाई 1970 को गौना ताल ने फिरसे वही घटना दोहरायी। लेकिन अंग्रेजी तंत्र द्वारा निचली घाटियों में बनाए गये तारघर भी जर्जर हो चुके थे। सूचना तंत्र की बड़ी चूक से चमोली क्षेत्र में भयंकर बाढ़ आई और बेलाकूची गांव पूरी तरह से बह गया। जिसके चलते इसे बेलाकूची की बाढ़ भी कहा जाता है। इस बाढ़ में करीब 70 लोग बहे और जनधन की भारी क्षति हुई।


गत वर्षों में आपदा का इतिहास


पौड़ी। वर्ष 1980 में उत्तरकाशी के ज्ञानसू में बादल फटन से करीब 28 लोगों की मौत हुई। 1991में उत्तरकाशी में भूकंप से एक हजार लोगों ने जान गंवाई। 1998 में चमोली, ऊखीमठ के मनसूना गांव में भूस्खलन से पूरा गांव जमींदोज हुआ। जिसमें करीब 69 लोगों की मौत हुई। 1998 में ही पिथौरागढ़ के मालपा क्ष्ेात्र में 350 लोग काल के गाल में समा गए। 1999 में चमोली में आए भारी भूकंप से आस पास के क्ष्ेात्र में करीब 110 लोगों की मौत हुई। यही नहीं 2002 में टिहरी के बूढ़ाकेदार के समीप अगुंडा गांव में भूस्खलन से 28 लोगों की मौत, 2003 में उत्तरकाशी के वरूणावत पर्वत में हुए भूस्खलन से दर्जनों होटल व भवन जमींदोज हो गये। 2012 में उत्तरकाशी में असीगंगा व भागीरथी घाटी में बादल फटने से 39 की मौत व सैकड़ों घर ध्वस्त हुए। इसी वर्षा रूद्रप्रयाग के ऊखीमठ में भूस्खलन से 76 लोगो की मौत जबकि तीन गांवों के भवन जमींदोज हो गये। फिर 2013 की केदारनाथ आपदा मेें हजारों ने जान गवाई।

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