अविकल उत्त्तराखण्ड
देहरादून। उत्त्तराखण्ड के प्रसिद्ध लोकपर्व फूलदेई में स्कूली बच्चों की भागीदारी भी सुनिश्चित की गई है। मंडलीय शिक्षा अपर निदेशक ने समस्त प्रधानाचार्य / प्रधानाध्यापक (हाईस्कूल / इण्टर) राजकीय / अशासकीय / सहायता प्राप्त / निजी शिक्षण संस्थान को फूलदेई पर्व पर सुविधानुसार नगर में प्रभात फेरी निकालने के निर्देश दिए हैं। स्कूली छात्र पारंपरिक पोशाक में रहेंगे।
मंगलवार के आदेश में कहा है कि सोमवार 14 मार्च 2022 को प्रातः 6 बजे से नगर में प्रभात फेरी और भ्रमण (विद्यालय अपनी सुविधानुसार घौधा माता की डोली तैयार करवा कर बच्चो का सहभाग इसमें सुनिश्चित कर सकते हैं प्रतिभाग करने वाले बच्चों की पारम्परिक परिधान और पोशाकों में शामिल होने के लिए प्रोत्साहित किये जाने की अपेक्षा है।)। पत्र में श्रीनगर निवासी अभिषेक बहुगुणा के पत्र का उल्लेख किया है।
प्रेषक,
मण्डलीय अपर निदेशक,
माध्यमिक शिक्षा गढ़वाल मण्डल, पौड़ी।
समस्त प्रधानाचार्य / प्रधानाध्यापक (हाईस्कूल / इण्टर) राजकीय / अशासकीय / सहायता प्राप्त / निजी शिक्षण संस्थान, गढवाल मण्डल।
विषयः – / फूलदेई पर्व / 2021-22 दिनांक आर्च 2022 उत्तराखण्ड लोकसंस्कृति से जुड़े “लोक पर्व फूलदेई को मनाये जाने के सम्बन्ध में।
महोदय,
उपर्युक्त विषयक इस कार्यालय में अध्यक्ष /सचिव, शैल नट, गढवाल हिमालय की पंजीकृत नाटय संस्था (रजि0291) पता-अभिषेक बहुगुणा, ऐजेन्सी मोहल्ला, श्रीनगर ( गढवाल ) जिला उत्तराखण्ड का पत्र संख्या – एस/02/2022 दिनांक 05.03.2022 एवं श्री अनूप बहुगुणा, नपाप श्रीनगर एवं संयोजक फूलदेई संकान्ति का पत्र दिनांक 07.03.2022 का पत्र इस कार्यालय में प्राप्त हुआ है। प्राप्त पत्र के द्वारा अवगत कराया गया है कि हिन्दू मान्यता के अनुसार चैत्र माह से नववर्ष का प्रारम्भ माना जाता है। बसंत ऋतु के आगमन के साथ प्रकृति अपने सर्वोत्कृष्ट रूप में होती है। पूरी धरती विभिन्न प्रकार के फूलों से भरी होती है। प्रकृति के इस मनोहारी रूप के समय उत्तराखण्ड में ” फूलदेई पर्व मनाया जाता है। यह विश्व का एकमात्र ऐसा पर्व है कि जो पूर्णतः बच्चो को समर्पित है। इसी कारण उत्तराखण्ड के इस प्रसिद्ध पर्व को “लोक पर्व को बाल पर्व भी कहते है। उत्तराखण्ड के विभिन्न क्षेत्रों की मान्यताओं के अनुसार इसे कहीं 8 दिन तो कहीं 15 दिन और कुछ क्षेत्रों में पूरे महीने मनाया जाता है। इस दौरान बच्चे घर-घर की देहरियों पर अल सुबह की फूल डालकर बसन्त का स्वागत कर सभी की खुशहाली की कामना करते है। इस वर्ष 14 मार्च को चैत्र संकान्ति के साथ ही इस पर्व का शुभारम्भ किया जाना है।
शैल नट, गढवाल हिमालय की पंजीकृत नाटय संस्था द्वारा अपने पत्र के माध्यम से यह भी अवगत कराया गया है कि हमारी लोक संस्कृति से जुडी ऐसी कई समृद्ध परम्परायें व पर्व, उपेक्षा के चलते विलुप्ति के कगार पर पहुंच गये है। विगत वर्षों से इस पर्व की परंपरा के संवर्द्धन के लिए सम्बन्धित संस्था प्रयासरत हैं। यह भी अवगत कराया गया है कि इस पर्व पर विद्यालय स्तर पर निबन्ध, पेन्टिंग, भाषण, जैसी प्रतियोगिताएं नई पीढी को अपनी जड़ों से जोड़ने में सहायक सिद्ध हो सकती है। श्री अनूप बहुगुणा, सभासद नपाप श्रीनगर एवं संयोजक फूलदेई संक्रान्ति द्वारा भी अपने पत्र में उल्लेख किया गया है कि फूलदेई जिसे कि फूल संकान्ति/ फूल संग्राद भी कहाँ जाता है, यहां का प्रमुख पर्व होने के साथ प्रकृति से सीधे संबंधित है, चैत्र माह की संक्राति अर्थात पहले दिन से ही बसंत आगमन की खुशी में फूलों का मनाये जाने वाला यह पर्व ऋतुराज बसंत के आगमन और उसके स्वागत का प्रतीक भी है। विद्यालयों में अध्ययनरत छात्र-छात्राओं की इसमें सहभागिता व्यापक रूप से करने हेतु आयोजन समिति द्वारा निम्न गतिविधियों को प्रस्तावित किया गया है –
सोमवार 14 मार्च 2022 को प्रातः 6 बजे से नगर में प्रभात फेरी और भ्रमण (विद्यालय अपनी सुविधानुसार घौधा माता की डोली तैयार करवा कर बच्चो का सहभाग इसमें सुनिश्चित कर सकते हैं प्रतिभाग करने वाले बच्चों की पारम्परिक परिधान और पोशाकों में शामिल होने के लिए प्रोत्साहित किये जाने की अपेक्षा है।)
फूलदेई पर्व के बारे में जानें
फूलदेई उत्त्तराखण्ड का एक स्थानीय त्यौहार है, जो चैत्र माह के आगमन पर मनाया जाता है। सम्पूर्ण उत्तराखंड में इस चैत्र महीने के प्रारम्भ होते ही अनेक पुष्प खिल जाते हैं, जिनमें फ्यूंली, लाई, ग्वीर्याल, किनगोड़, हिसर, बुराँस आदि प्रमुख हैं । चैत्र की पहली गते से छोटे-छोटे बच्चे हाथों में कैंणी (बारीक बांस कीकविलास अर्थात शिव के कैलाश में सर्वप्रथम सतयुग में पुष्प की पूजा और महत्व का वर्णन सुनने को मिलता है.
पुराणों में वर्णित है कि शिव शीत काल में अपनी तपस्या में लीन थे ऋतू परिवर्तन के कई बर्ष बीत गए लेकिन शिव की तंद्रा नहीं टूटी. माँ पार्वती ही नहीं बल्कि नंदी शिव गण व संसार में कई बर्ष शिव के तंद्रालीन होने से बेमौसमी हो गये. आखिर माँ पार्वती ने ही युक्ति निकाली. कविलास में सर्वप्रथम फ्योली के पीले फूल खिलने के कारण सभी शिव गणों को पीताम्बरी जामा पहनाकर उन्हें अबोध बच्चों का स्वरुप दे दिया. फिर सभी से कहा कि वह देवक्यारियों से ऐसे पुष्प चुन लायें जिनकी खुशबू पूरे कैलाश को महकाए. सबने अनुसरण किया और पुष्प सर्वप्रथम शिव के तंद्रालीन मुद्रा को अर्पित किये गए जिसे फुलदेई कहा गया. साथ में सभी एक सुर में आदिदेव महादेव से उनकी तपस्या में बाधा डालने के लिए क्षमा मांगते हुए कहने लगे- फुलदेई क्षमा देई, भर भंकार तेरे द्वार आये महाराज ! शिव की तंद्रा टूटी बच्चों को देखकर उनका गुस्सा शांत हुआ और वे भी प्रसन्न मन इस त्यौहार में शामिल हुए तब से पहाडो में फुलदेई पर्व बड़े धूमधाम से मनाया जाने लगा जिसे आज भी अबोध बच्चे ही मनाते हैं और इसका समापन बूढे-बुजुर्ग करते हैं. सतयुग से लेकर वर्तमान तक इस परम्परा का निर्वहन करने वाले बाल-ग्वाल पूरी धरा के ऐसे वैज्ञानिक हुए जिन्होंने फूलों की महत्तता का उदघोष श्रृष्टि में करवाया तभी से पुष्प देव प्रिय, जनप्रिय और लोक समाज प्रिय माने गए. पुष्प में कोमलता है अत: इसे पार्वती तुल्य माना गया. यही कारण भी है कि पुष्प सबसे ज्यादा लोकप्रिय महिलाओं के लिए है जिन्हें सतयुग से लेकर कलयुग तक आज भी महिलायें आभूषण के रूप में इस्तेमाल करती हैं. बाल पर्व के रूप में पहाड़ी जन-मानस में प्रसिद्ध फूलदेई त्यौहार से ही हिन्दू शक संवत शुरू हुआ फिर भी हम इस पर्व को बेहद हलके में लेते हैं. जहाँ से श्रृष्टि ने अपना श्रृंगार करना शुरू किया जहाँ से श्रृष्टि ने हमें कोमलता सिखाई जिस बसंत की अगुवाई में कोमल हाथों ने हर बर्ष पूरी धरा में विदमान आवासों की देहरियों में पुष्प वर्षा की उसी धरा के हम शिक्षित जनमानस यह कब समझ पायेंगे कि यह अबोध देवतुल्य बचपन ही हमें जीने का मूल मंत्र दे गया फूल देई (फूलसंग्राद)की हार्दिक शुभकामनाएँ
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