स्मृति शेष- शेरदिल राजूभाई 

पूरा पौड़ी नगर शराब माफिया के पक्ष में छपे पोस्टरों ‘माफिया नहीं, मसीहा है.. से अटा पड़ा था

व्योमेश जुगरान

सत्तर के दशक में जब पौड़ी को एक मुकम्मल शहर हुए सालों बीत चुके थे, तब भी इसकी सरहद से लगे पौड़ीगांव, च्वींचा, कांडई और बैंग्वाड़ी गांव के लोगों से उलझना समझदारी नहीं मानी जाती थी। खासकर च्वींचा गांव इस मामले में ज्यादा ही बदनाम था। मारपीट, शराबखोरी और जुएबाजी के किस्से इस गांव के बारे में खौफ का एक माहौल बनाते थे। हालांकि ऐसा कुछेक तत्वों के कारण था, पर मोटे तौर यहां का हर युवा शहर के लड़कों के लिए एक ‘लड़ाकू दादा’ था। 


दरअसल पीढि़यों से बसे गांवों की सरहद पर कालचक्र जब शहर की तामीर करने लगता है तो यह एक मजेदार दोतरफा प्रक्रिया होती है। एक महीन सरहद दोनों को आपस में गूंथती जरूर है, पर वर्चस्व की एक कश्मकश को भी जन्म देती है। शहर का हर मकान कभी गांव का खेत था, यह बात शहर को बार-बार याद दिलाकर गांव अपना रुतबा बनाए रखना चाहता है। जंगल, गाड-गधेरे, पंधेरे, नौले, छोए पाखे-भीटे इत्यादि अब उसके नहीं रहे, यह तथ्य गांव आसानी से स्वीकार नहीं कर पाता। बदले में वह शहर की गतिविधियों में बड़ा हिस्सा चाहता है। कई तरह की द्वन्द्वात्मक प्रक्रियाओं के बीच एक प्रक्रिया यह भी होती है कि शहर में किसी बड़े ‘बदमाश’ के सिर उठाने पर उसका पहला टकराव गांव के ‘दादाओं’ से होना तय होता है। यह स्वाभाविक है क्यों कि गांव की ‘दबंगई’ का सारा प्रबंध शहर के ही भरोसे होता है।
मनमोहन सिंह नेगी उर्फ मन्नू दशक सत्तर के उत्तरार्ध में पौड़ी शहर में दाखिल एक ऐसा चेहरा था जिसकी दबंगई ने च्वींचा गांव के कथित ‘दादाओं’ के वर्चस्व को सीधी चुनौती दी। ऐसा कर उसने इस पूरे इलाके में अपना लोहा मनवा लिया। करीब एक दशक तक वह इस शहर पर ‘राज’ करता रहा। लेकिन यह भी सच है कि छिटपुट चुनौतियों के बीच उसे पहली और अंतिम निर्णयात्मक चुनौती च्वींचा गांव के ही वाशिंदे से मिली। यह चुनौती देने वाला शख्स कोई  ‘दादा’ नहीं,  बल्कि स्टेट बैंक का एक सम्मानित कार्मिक और कामगारों की लड़ाई में हरदम आगे रहने वाला कॉमरेड राजेन्द्र रावत यानी राजूभाई था। 


एक छोटे से शहर में घटित मन्नू बनाम राजूभाई का यह टकराव राजूभाई के जिगरी यार उमेश डोभाल की लोमहर्षक हत्या तक जा पहुंचा। उमेश उन दिनों पहाड़ में ‘अमर उजाला’ का घुमंतू संवाददाता था मगर उसका मन पूरी तरह राजूभाई और उनके वैचारिक आभामंडल के साथ रमा हुआ था। दोनों की यह जोड़ी तब जनपक्षीय पत्रकारिता और नई कविता को धार दे रही थी। पर, यार के कत्ल ने राजूभाई को तोड़ा नहीं, नए सिरे से गढ़ा और शेरदिल बनाया। यह पूरा घटनाक्रम हत्यारों से टकराने वाले अकेले शख्स के साहस और संघर्ष की अपूर्व गाथा है जो कई व्याख्याओं के साथ देश और समाज के लिए नजीर बनी।

यह टकराव ‘बिगबैंग’ सरीखा था जिससे अनेक धाराएं फूटीं। इन धाराओं ने न सिर्फ स्थानीयता से जुड़े जनांदोलनों को सींचा बल्कि लोगों में भ्रष्टाचार और बेइमानी में डूबे शासन तंत्र की मुखालफत का जज्बा भी पैदा किया। राष्ट्रीय स्तर पर भी इस टकराव की गूंज सुनाई दी और उमेश हत्याकांड के बहाने अभिव्यक्ति की आजादी के प्रश्न ने समूचे देश को झकझोरा। संसद में सवाल पूछे गए और सरकार को मामला सीबीआई के सुपुर्द करने को मजबूर होना पड़ा।  


इन्हीं घटनाओं के बूते भोले-भाले पहाडि़यों को पहली बार पता चला कि शराब माफिया क्या होता है और शराब कैसे शासन में घुसकर राज करती है। यह भी पहली बार मालूम हुआ कि पत्रकारिता में प्रतिशोध का परिणाम खून भी हो सकता है। खुंखरी और चाकू की दादागीरी से इतर स्टैनगन वाली क्राइमलाइन और गैंगवार जैसी शब्दावली से पहाड़ का परिचय पहली बार हुआ। इस समूचे घटनाक्रम का एक महत्वपूर्ण पक्ष यह भी था कि गढ़वाल व कुमाऊं के बीच स्थानीयता और पहाडि़यत से जुड़े सरोकारों के प्रति आपसी समझ बढ़ी और बौद्धिक संबंधों का एक बहुआयामी सेतु तैयार हुआ।

उमेश की मौत के बाद राजूभाई ने अपना जीवन पूरी तरह उन उद्देश्यों के हवाले कर दिया जिनका सपना वह उमेश के साथ मिलकर देखा करते थे। इस कड़ी में उन्होंने उमेश को स्थापित किया और खुद को बिसार दिया। उन्होंने अपनी कविताएं तह कर लीं मगर उमेश की कविताओं की तहें खोलते चले गए। इन कविताओं से उमेश का एक नया रूप सामने आया। एक तेजतर्रार और खोजी पत्रकार की छवि के बावजूद उस पर लगा पियक्कड़ी का दाग इन कविताओं के वाचन/प्रकाशन और इन पर होने वाली बहसों से धुलता चला गया। राजूभाई यही चाहते थे क्यों कि उमेश को लेकर जनपक्षधरता के उनके मिशन की गुपचुप उड़ाई जाने वाली खिल्ली का यह सटीक तोड़/जवाब था। यह पहलू राजूभाई के निस्वार्थ और अनूठे व्यक्तित्व को सामने लाता है।

राजूभाई को समझने के लिए मनमोहन सिंह को जानना जरूरी है। मनमोहन उर्फ मन्नू शानदार कद-काठी का एक स्मार्ट युवक सैन्य परिवार का एक बिगड़ैल बेटा था। मां उसे देहरादून में सक्रिय अंडरवर्ल्ड के मोहपाश से बचाने के लिए अपनी मिट्टी गढ़वाल यानी इस छोटे और शांत पौड़ी शहर में ले आई। तब शहर की आबादी कम थी। लोगों की समस्याएं और चिन्ताएं साझी थीं।। अधिकांश परिवार एक-दूसरे को पहचानते थे। रामलीला, फुटबाल और शिवरात्रि व जन्माष्टमी के मेले शहर के मिजाज में मिठास घोलते थे। अपने नायकों की तलाश, तब यह शहर रामलीला में अभिनय की प्रतिभा और फुटबॉल के कौशल के ही ईदगिर्द करता था।

नायकों की इस कतार में मनमोहन नेगी एक अलग अंदाज में आ जुड़ा। लगभग छह फुट लंबा जिमनास्ट की तरह लचीला-फुर्तीला बदन उसे औरों से अलग करता था। कसी हुई टी-शर्ट, खड़े कॉलर, फैशनेबुल बैलबाट्स, बुलेट मोटरसाइकिल दौड़ाने का शगल और शराब-सिगरेट जैसे व्यसनों से दूरी जैसी खासियतों ने उसे युवाओं के बीच बहुत कम समय में ‘हीरो’ बना दिया। शहर में क्रिकेट को लोकप्रिय बनाने के लिए उसने सागर क्लब की स्थापना की। वह खुद भी एक अच्छा क्रिकेटर था। स्थानीय डिग्री कॉलेज में विज्ञान के एक छात्र के रूप में प्रवेश लेकर उसने यह भ्रम को भी तोड़ दिया कि पढ़ाई में इस लड़के की कोई दिलचस्पी नहीं है। मन्नू के बारे में कई तरह की चर्चाएं सुनने को मिलतीं कि उसके पास स्टेनगन है, वह देहरादून के बहुचर्चित भरतू गैंग का सदस्य रह चुका है और उसे निशाने पर लेने के लिए बारू और रेशम थापा गैंग ने हाथ मिला लिया है आदि-आदि।

जल्द ही एक सनसनीखेज खबर आई कि मालरोड पर एजेंसी के निकट मन्नू और च्वींचा गांव के प्रभुदयाल के बीच तमंचेबाजी हुई है और प्रभुदयाल को अस्पताल भर्ती कराना पड़ा है। इस गोलीकांड का तात्कालिक कारण जो भी रहा हो, पर यह अंतत: वर्चस्व की ही जंग थी, जिसमें मन्नू और उसके साथी हिरासत में भी लिए गए। तरह मन्नू और च्वींचा के बीच दुश्मनी की स्थायी गांठ बंध गई। इस वारदात के बाद मन्नू का दबदबा बढ़ता चला गया और एक के बाद एक दबंगई की कई घटनाओं ने उसे स्थानीय थाने में ‘नंबरी’ का दर्जा दिला दिया। बावजूद इसके स्थानीय पुलिस के लिए वह हमेशा ‘वीआईपी गैंगेस्टर’ बना रहा।

बाद के सालों में शराब के धंधे में उतरकर उसने गढ़वाल मंडल में अपनी मोटी पत्ती सुनिश्चित कर ली। अब वह गढ़वाल, हिमाचल, हरिद्वार और सहारनपुर की शराब लॉबी का एक असरदार सदस्य था। प्रशासनिक और राजनीतिक रसूखबंदी के लिए पैसे और रुतबे की जो औकात चाहिए, मन्नू उसे हासिल कर चुका था। इसी गुरुर में उसने आड़े आने वाली हर परिस्थिति को या तो अपने पक्ष में झुका लिया या कुचल दिया। कलम का सिपाही उमेश डोभाल इसी कड़ी का किरदार था जो झुका नहीं तो मिटा दिया गया। परंतु इस बहुचर्चित हत्याकांड की जवाबी परिस्थिति ने ऐसा पटलवार किया कि न सिर्फ शराब माफिया बल्कि उसका सारा साम्राज्य खंड-खंड होकर खुद ही नष्ट हो गया। इस छोटे से शहर से पूरे देश में संदेश गया कि सत्ता और माफिया का गठजोड़ अभिव्यक्ति की आजादी को कुचलने और अन्याय को छुपाने के लिए कितना भी जोर लगा ले, कामयाब नहीं हो सकता। इस पूरे संघर्ष की नींव थे राजू भाई जो मशाल भी थे और मिसाल भी। छुएं तो बेहद नर्म और परखें तो बेहद मजबूत।

राजू भाई उसी च्वींचा गांव के रहने वाले थे जहां के लड़ाकू छोकरों को पौड़ी शहर में नए-नए आए मनमोहन नेगी का सरे बाजार कॉलर खड़े कर चलना नागवार गुजरता था। गांव के रिश्ते में ये छोकरे राजूभाई के चाचे, मामे, भाई, भतीजे, भान्जे इत्यादि थे। इन सबके लिए राजू भाई का आंगन एक सुधारगृह सरीखा था और उनका व्यक्तित्व एक आदर्श भविष्य। राजूभाई साइंस ग्रेजुएट थे। अभाव और अत्यधिक विपरीत हालात से जूझते हुए उन्होंने जब 1973 में बिरला कॉलेज, श्रीनगर से बी.एससी की परीक्षा प्रथम श्रेणी में उतीर्ण की तो सारा गांव उनकी इस उपलब्धि पर झूम उठा। अगले ही साल वह भारतीय स्टेट बैंक की परीक्षा में भी पास हो गए और बतौर लिपिक बैंक की पौड़ी शाखा में नियुक्त हुए। बचपन में ही पिता को खोने और पांच भाई-बहनों की गृहस्थी का बोझ ढोती मां की दुश्वारियों ने कच्ची उम्र में ही ने उन्हें सयाना बना दिया। देश, दुनिया, समाज, जाति, वर्ग, दौलत, गुरबत, भूख, बेकारी, शोषण, मेहनत जैसे विषयों के मर्म का कौतुहल राजूभाई को मार्क्सवाद की राह पर ले गया। पर, वह वैचारिक कट्टरपंथ के हिमायती कभी नहीं रहे बल्कि एक लचीले वामपंथी माने गए जो विचारों की प्रतिस्पर्धा में हार भी सकता है, बशर्ते परिणाम बेहतर हो।

राजूभाई अध्ययनशील तबियत के शख्स थे। कला, साहित्य, संस्कृति, लेखन, पत्रकारिता, नाटक, कविता, भ्रमण जैसी विधाएं उन्हें खूब लुभाती थीं। इनसे समाज किस तरह परिमार्जित हो, इसके लिए वह लगातार सोचते रहते थे। नैनीताल समाचार का पौड़ी अंक और नरुभाई व गिर्दा की जुगलबंदी का विचार, उनकी इसी सोच की देन थे। साप्ताहिक पौड़ी टाइम्स, नैनीताल समाचार, बिजनौर टाइम्स, जनसत्ता इत्यादि विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में राजूभाई निरंतर लिखते रहे।

बैक की स्थानीय कर्मचारी यूनियन के नेता के तौर पर वह सर्किल में एक धाकड़ कॉमरेड के तौर पर पहचाने जाते थे। वह पत्रकारों के बीच एक पेशेवर पत्रकार, लेखकों के बीच एक ईमानदार कलमची, कामगारों के बीच एक सच्चे कॉमरेड, संस्कृति कर्मियों के बीच एक विचारशील जनवादी और सबसे बड़ी बात, इनसानों के बीच एक शांत, सरल और जहीन इनसान थे। बैंक की प्रतिष्ठित नौकरी और आर्थिक मोर्चे पर मामूली दुरुस्ती राजूभाई के लिए बहुत संतुष्टिकारक थी। इस बेहतर परिस्थिति ने उनके सामाजिक और सरोकारी जीवन को गढ़ना शुरू किया ताकि वह समाज और संसार के लिए कुछ कर गुजरने के असल मकसद की ओर अग्रसर हों। गांव के बूढ़े-बुजुर्गों माताओं-बहनों की तमाम तरह की परेशानियों को सुनने और उनका हल निकालने में उनसे भरोसेमंद दूसरा कोई नहीं समझा जाता था। यही वजह थी कि वह पूरे गांव के लाड़ले थे। गांव के बाहर वह नगर के भी उतने ही चहेते थे। नगर की हर सांस्कृतिक और वैचारिक गतिविधि में राजूभाई का साथ आयोजन में अतिरिक्त ऊर्जा भर देता था। उमेश डोभाल के साथ राजू भाई की जोड़ी वाकई जिंदादिली की मिसाल थी। मामू यानी ओंकार बहुगुणा का साथ इस जोड़ी को तिकड़ी में बदल देता था। इस तिकड़ी की अड्डेबाजियों ने शहर के मिजाज में एक जनवादी सोच पैदा करने में बड़ी भूमिका निभाई। अपने वृहत्तर स्वरूप में इस मिजाज ने गढ़वाल की सीमा से बाहर कुमाऊं के सुदर इलाकों में जनचेतना और जनसंघर्ष की उभरती प्रवृत्ति को भी खाद-पानी दिया।

कई बार लगता है कि साहसिकता जब बौद्धिकता का बाना ओढ़ लेती है तो बहुत कुछ उखाड़ डालने का शऊर जन्म लेने लगता है। अति शक्तिशाली शराब माफिया के खिलाफ सीधे टकराव के पीछे राजू भाई की यही साहसिकता काम कर रही थी। उमेश की हत्या के खिलाफ  2 अप्रैल  1988 को मुख्यालय पौड़ी में प्रदर्शन को कुचलने के लिए शराब माफिया और उसका अंडरवर्ल्ड कमर कसे तैयार था। समूचा प्रशासन तंत्र ‘खरीद’  लिया गया था। पूरा पौड़ी नगर शराब माफिया के पक्ष में छपे पोस्टरों ‘माफिया नहीं, मसीहा है.. से अटा पड़ा था। शहर के कई नेता, कथित बुद्धिजीवी,  सामाजिक कार्यकर्ता और पत्रकार तक घबराकर दुबक गए थे या शराब माफिया के पाले में जा खड़े हुए थे। तब अपने गांव च्वींचा के ग्रामीणों का एक छोटा सा झुंड लेकर राजू और मामू सन्नाटे को चीरते हुए शहर की सड़कों पर निकल पड़े थे। मुनादी की जा रही थी कि उमेश का कत्ल किया गया है और कातिल यही शराब माफिया है। कुमाऊं और गढ़वाल के विभिन्न इलाकों से आए पत्रकारों ने तब स्थानीय रामलीला मैदान में बड़ी सभा की और शराब माफिया को खुलकर ललकारा। इसके बाद उमेश की हत्या के खिलाफ पूरे देश में पत्रकारों की एकजुटता और इस मामले में सीबीआई जांच के ऐलान तक की घटनाओं का पूरा चक्र है और हर घटना के केंद्र में राजूभाई मौजूद हैं। शराब माफिया की धमकियों से बेपरवाह राजू भाई ने मामू के साथ मिलकर इस हत्या के खिलाफ लखनऊ  से लेकर दिल्ली तक पत्रकार बिरादरी को एकजुट करने और तब के इस सर्वाधिक चर्चित हत्याकांड को सीबीआई के हवाले कराने में ऐडीचोटी का जोर लगा दिया। अंतत: हत्यारे पकड़े गए। 

अपने यार उमेश डोभाल के कातिलों की शिनाख्त के लिए जान पर खेल जाने वाले राजूभाई इस घटना के बहुत पहले मनमोहन नेगी की दबंगई का वार झेल चुके थे। दरअसल उनका हमेशा प्रयास रहता था कि च्वींचा गांव और मनमोहन नेगी का स्थायी बैर समाप्त हो जाना चाहिए। इसके लिए वह गांव के लड़कों को भी समझाते थे और गलतफहमियां दूर करने के इरादे से मनमोहन तक संदेश भी भेजवाते थे। कुछ मौकों पर उनकी मनमोहन से आमने-सामने बातचीत भी हुई। बावजूद इसके, मनमोहन को हमेशा लगता रहा कि उसके दुश्मनों/विरोधियों के पीछे एकमात्र दिमाग राजूभाई का ही है। इसी गुस्से में उसने उन्हें दो-दो बार लहूलुहान किया। इसके पीछे उसका इरादा यही था कि राजूभाई न सिर्फ मनमोहन का विरोध बंद करें बल्कि उसकी सरपरस्ती को भी स्वीकार कर लें। लेकिन मनमोहन का पाला फासीवाद के खिलाफ संघर्ष और परिवर्तन को आतुर अलग ही मिट्टी के बने उस शख्स से पड़ा है जो पाब्लो नेरुदा, नाजिम हिकमत, बर्तोल्ट ब्रेख्त की कविताओं को दिल में खुदवाकर जवान हुआ था। वक्त ने साबित भी किया कि उसे न डराना आसान है और न मिटाना।   

बड़ी से बड़ी मुसीबत से जा टकराना और इसे क्षण भर भी न टिकने देने वाला यह इनसान बस, उस असाध्य व्याधि को नहीं झटक सका जिसने मात्र 56 साल की अवस्था में उसके प्राण ले लिए। तकरीबन छह-सात साल पहले रोग की शुरुआत के समय राजू भाई एम्स नई दिल्ली में भर्ती थे। तब उन्हें देखकर नहीं लग रहा था कि बीमार हैं। उनके छोटे भाई रवि रावत और दोस्त मामू से पता चला कि पाइल्स बिगड़ गया है और डाक्टरों को कैंसर जैसा कुछ शक है। बाद के सालों में रोग से लड़ाई तेज हो चुकी थी और राजू भाई ने स्टेट बैंक की नौकरी से वीआरएस ले लिया है। ..और 16 दिसंबर 2009 की दोपहर यह मनहूस खबर आ ही गई- ‘शेरदिल राजू भाई नहीं रहे..। सीएमएस देहरादून के एक बेड पर आखिरी दिनों में मौत से उनका कड़ा संघर्ष चला। उनका परिवार और दोस्त लोग उन्हें इस हाल में देख तड़प उठते थे। इस लिहाज से देखें तो राजूभाई की मृत्यु उनके लिए झटका बिल्कुल नहीं थी, बल्कि मुक्ति का वह मार्ग थी जिसकी मुराद उनमें से बहुतों ने मांगी होगी। 
 
राजू भाई ने वह मशाल जीवन के अंतिम क्षण तक थामे रखी जो उमेश डोभाल की मौत के बाद जलाए रखनी बेहद जरूरी थी। वर्ष 1991 में उमेश डोभाल की याद में एक ट्रस्ट की स्थापना और उसकी पुण्यतिथि 25 मार्च को हर साल उत्तराखंड के अलग-अलग जिलों में कार्यक्रम आयोजित कर राजूभाई ने पत्रकारिता, जनसंघर्ष और जनसंस्कृति से जुड़ा एक वैचारिक स्कूल खड़ा किया। इस ट्रस्ट ने पत्रकारिता, लेखन, कविता, कला, संस्कृति, इतिहास और अन्य महत्वपूर्ण क्षेत्रों में काम कर रहे गढ़वाल और कुमाऊं के विद्वानों को एकजुट किया। साथ ही, राष्ट्रीय स्तर पर एक बड़े तबके में हिमालयी सरोकारों से जुड़ने की लालसा जगाई। यह कोई मामूली उपलब्धि नहीं थी और इसका सारा श्रेय राजूभाई को जाता है। आज उमेश डोभाल स्मृति समारोह का सालाना आयोजन एक जनपक्षीय परंपरा बन चुकी है। इसमें समाज में योगदान देते आए अग्रज विद्वानों के अलावा लेखन और पत्रकारिता में उभरती युवा प्रतिभाओं को भी सम्मानित किया जाता है।

उमेश डोभाल स्मृति समारोह के सालाना आयोजन की कड़ी में 25 मार्च 2009 को यह समारोह पहली बार उत्तराखंड से बाहर लखनऊ में हुआ जिसमें देश के अनेक नामचीन पत्रकारों, लेखकों और बुद्धिजीवियों ने हिस्सा लिया। इस अवसर पर प्रकाशित स्मारिका में ट्रस्ट के अध्यक्ष के नाते राजूभाई के ये अंतिम शब्द बहुत कीमती हैं- ‘सच कहा जाए तो यह कार्यक्रम एक व्यक्ति विशेष के नाम की बजाय पत्रकारिता की उस धारा पर ही केंद्रित होता है जिसके लिए उमेश ने अपनी जान दी।

यह धारा है, पत्रकारिता में जनपक्षधरता की धारा जो आज के मीडिया तंत्र से लुप्त होती जा रही है़। आज जिस प्रकार से बाजारवाद ने जनपक्ष को हाशिये पर ला खड़ा किया है, ऐसे में लोगों में हताशा और निराशा स्वाभाविक है। हम नहीं मानते कि ऐसे सम्मेलनों से बहुत कुछ बदल जाएगा, किंतु विचार सर्वोपरि होते हैं और भविष्य की नीतियों में परिलक्षित होते हैं। यदि कहीं आग लगती है तो धुआं उठता ही है और तभी उसे बुझाने की भी पहल होती है।’राजू भाई को कोटि-कोटि नमन…

हमारे राजू भाई-राजेन्द्र रावत राजू स्मृति समारोह

पौड़ी। उमेश डोभाल ट्रस्ट एवं अजीम प्रेम जी फाउंडेसन के तत्वावधान में राजेन्द्र रावत राजू भाई की 13वीं पुण्यतिथि पर राजेन्द्र रावत राजू स्मृति समारोह का आयोजन किया गया। कार्यक्रम की शुरुआत राजेन्द्र रावत राजू को पुष्पांजलि अर्पित कर ” हमारे राजू भाई ” लघु फ़िल्म की प्रस्तुति से हुई। इस अवसर पर वीर चंद्र सिंह गढ़वाली व्याख्यान माला का आयोजन किया गया जिसमें मुख्यवक्ता के तौर पर इतिहासविद एवं स्वतंत्र पत्रकार डॉ योगेश धस्माना जी ने राजेन्द्र रावत राजू और जनसरोकार विषय पर अपनी बात रखी उन्होंने राजू भाई को आम आदमी की आवाज बताया उन्होंने कहा वो जनान्दोलनो से लेकर हर समस्या के मोर्चे पर आम जन मानस के साथ खड़े रहे। समारोह में अशफ़ाक राम नाटक का मंचन भी हुआ।

नाटक की परिकल्पना निर्देशन और एकल अभिनय शाहजहांपुर से रंगकर्मी मनीष मुनि द्वारा किया गया। नाटक काकोरी कांड के नायकों पर आधारित था।

नाटक ने देर श्याम तक लोगों को बांध के रखा, इस अवसर पर ट्रस्ट के द्वारा चित्रकार त्रिलोक नेगी, शिक्षक प्रदीप रावत, आरती गुसांई को उनके बेहतर कार्यों हेतु सम्मानित किया गया,इस मौके पर राजेन्द्र रावत राजू स्मृति निबंध प्रतियोगिता के पुरुस्कारों का वितरण भी हुआ।

प्रतियोगिता में अनामिका जुगरान ने प्रथम, कुमकुम नौटियाल ने द्वितीय, प्राची नौटियाल ने तृतीय एवं हर्ष पंवार, देवेंद्र सिंह ने चतुर्थ स्थान प्राप्त किया। कार्यकारी अध्यक्ष बिमल नेगी जी ने राजू भाई को याद करते हुये कार्यक्रम में आये सभी लोगों का आभार व्यक्त किया , कार्यक्रम का संचालन आशीष नेगी द्वारा किया गया। इस अवसर पर ए. पी.एफ. से गणेश बलूनी, उमेश डोभाल ट्रस्ट के ट्रस्टी रवि रावत, कोषाध्यक्ष सुरेंद्र रावत, महासचिव आशीष नेगी, वीरेंद्र खंक्रियाल, यमुनाराम, मनोहर चमोली, रघुवीर सिंह रावत, अग्निमित्र रावत, रैमासी, मंदाकनी, सभासद अनिता रावत, अशोक बौड़ाई, आशीष मोहन, कमलेश मिश्रा, विनय शाह आदि लोग उपस्थित थे।

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