वरिष्ठ पत्रकार व लेखक व्योमेश चन्द्र जुगरान कई राष्ट्रीय अखबारों में उच्च पदों पर कार्य कर चुके हैं। अंकिता हत्याकांड के बाद उत्तराखण्ड की रिसॉर्ट संस्कृति को लेकर जनता में भारी आक्रोश देखा जा रहा है। उत्तराखण्ड के इन रिसॉर्ट से उपजे ‘हालात’ पर कई सवाल खड़े करती वरिष्ठ पत्रकार व्योमेश जुगरान की एक रिपोर्ट-
देवभूमि उत्तराखंड में तेजी से पनप रहा कथित ‘रिसॉर्ट टूरिज्म’ यहां के पारंपरिक तीर्थाटन से बड़ी लकीर खींचने पर आमादा है। ऋषिकेश के निकट वनन्तरा रिसॉर्ट इसी का उदाहरण है, जहां पिछले दिनों 19 साल की एक लड़की जिन्दा नहर में फेंककर मौत की नींद सुला दी गई। लड़की इसी रिसॉर्ट में जॉब करती थी और उसने देह व्यापार के दलदल में धकेले जाने का प्रतिकार किया था। इस कांड को भले ही रिसॉर्ट के मालिक और उसके दो साथियों ने अंजाम दिया, मगर खून के छीटें पुलिस, पटवारी, नागरिक प्रशासन और नेता, सबके कपड़ों पर नजर आए।
हमने तो इस संवेदनशील हिमालयी राज्य की सरकारों से पर्वतीय जन-जीवन से जुड़े विलेज, हैरिटेज और इको टूरिज्म की आस लगाई थी, मगर यह तथाकथित ‘रिसॉर्ट टूरिज्म’ कैसे इतना बलशाली हो गया कि लड़की यदि ना कहे तो नहर में धकेल दो। असल में नेता-नौकरशाह और भूमाफिया की गिरोहबंदी उत्तराखंड में सबकुछ करा ले रही है। इसी गिरोहबंदी के चलते राजाजी नेशनल पार्क से सटी प्रतिबंधित भूमि में पर्यटन के नाम पर वनन्तरा जैसे रिसॉर्ट खड़े हो जाते हैं और इलाके में नशाखोरी से लेकर देह व्यापार तक, हर तरह का अवैध कारोबार पनपने लगता है। Ankita Murder case
आज पहाड़ में जगह-जगह अवैध ढंग से कथित टूरिस्ट रिसॉर्ट खड़े होते जा रहे हैं। इन्हें प्रमोट करने वाले कौन लोग हैं और कहां से आ रहे हैं, इस बारे में स्थानीय ग्रामीण अनजान हैं। शिकायत करने पर ग्रामीणों को डराया-धमकाया जाता है क्योंकि प्रशासन भी इन अवैध धंधेबाजों से मिला होता है। पहाड़ में पर्यटन विकास की ये अधकचरी नीतियां यहां के तीर्थस्थलों की पवित्रता, मौलिकता, प्राकृतिक परिवेश, भूमि नियोजन, परिवहन प्रबंधन, कानून व्यवस्था और सांस्कृतिक विशिष्टता के लिए चुनौती बनती जा रही हैं। धनबल और राजनीतिक रसूख के बूते खाद-पानी प्राप्त करने वाली प्रवृत्ति पर्यटन के ‘बैंकॉक’ और ‘थाई मॉडल’ वाले खतरों का संकेत देने लगी है।
रामनगर के निकट कार्बेट नेशनल पार्क के आसपास अंदर तक जंगलों के बीच कायम दर्जनों रिसॉर्टों की दिनचर्या रात बारह बजे से शुरू होती है। ऊंची आवाज वाले आर्केस्ट्रा और भौंडे गीत-संगीत के बीच युवक-युवतियां यहां रात-रात भर धमाल मचाते देखे जा सकते हैं। कार्बेट की सैर और यहां के शांत और रमणीक वातावरण के शौकीन सौम्य पर्यटकों के लिए यह स्थिति अत्यंत पीड़ादायक और लज्जाजनक हो जाती है। इस बारे में कई मर्तबा शिकायतें करने के बावजूद सरकार के कान में जूं तक नहीं रेंगती।
यही हाल रानीखेत के नीचे गगास घाटी का है। गगास इस इलाके में बहती लघु सरिता है जिसके तटवर्ती क्षेत्र में अत्यंत उपजाउू सेरे हैं। इस घाटी को सब्जी की टोकरी भी कहा जाता है। गगास के इस पार करीब 32 गांवों की भूमि बाहरी लोगों के हाथों बिक चुकी है जिस पर धन्नासेठों के आलीशान विला और रिसॉर्ट खड़े हो चुके हैं। साफ देखा जा सकता है कि कैसे यहां की दसियों नाली जमीन ऊंचे-ऊंचे फाटकों के भीतर बंद है। अब वहां न गांवों का गोचर हो सकता है और न वे पगडंडियां जो कभी गांवों को एक-दूसरे से जोड़ती थीं। यहां तक कि गांवों के जलस्रोत भी इन्ही फाटकों में कैद हो चुके हैं। कहना मुश्किल है कि गगास नदी के उस पार बचे हुए सेरे कब तक सुरक्षित हैं। खासकर तब, जब निकटवर्ती द्वाराहाट और चौखुटिया के उपनगरीय बाजारों में रियल स्टेट एजेंटों के साइनबोर्ड जमीनों की सौदेबाजी के लिए ग्रामीणों को खुलेआम ललचा रहे हों। Resort culture in Devbhoomi uttarakhand
एक के बाद एक आने वाली उत्तराखंड की सरकारों ने पहाड़ में पर्यटन उद्योग के नाम जमीनों की लूट-ससोट को पनाह दी है। यहां तक कि जो थोड़ी बहुत कानूनी अड़चनें थीं, भू-भक्षियों के दबाव में उन्हें भी दूर कर दिया गया। 2018 में राज्य के भूमि कानून में धारा 143-क और धारा 154 (2) जोड़ते हुए पहाड़ों में भूमि खरीद की अधिकतम सीमा खत्म कर दी गई। साथ ही, पर्यटन को उद्योग का दर्जा देकर पर्यटन की परिभाषा में ऐसे तमाम सेक्टर शामिल कर लिए कि उद्योग के नाम पर भूमि का मनचाहा इस्तेमाल आसान हो गया। सरकार ने तब अपने निर्णयों को यह कहकर खरा साबित करने की कोशिश की कि इससे भीतरी पहाड़ में पर्यटन व उद्यमिता को प्रोत्साहन मिलेगा और रोजगार के अवसर पैदा होंगे। लेकिन कहीं न कोई बड़ा उद्योग लगा और न रोजगार की संभावनाएं जगीं। अलबत्ता पूंजी निवेश की आड़ में जमीनों की लूट का रास्ता और आसान हो गया।
पर्यटक को उद्योग का दर्जा देने में किसी को कोई ऐतराज नहीं होना चाहिए लेकिन यह तो सोचना होगा कि ऐसा क्या कर लिया गया है अथवा किया जाएगा कि अन्य उद्योगों के साथ आने वाली बुराइयां पर्यटन उद्योग के मामले में दूर रहेंगी ! यह प्रश्न तो उठेगा कि हमारे पास इस उद्योग को संभाल पाने लायक आधारभूत संरचना है भी कि नहीं ! और यह भी कि एक उद्योग के रूप में हम पर्यटक को क्या बेचना चाहते हैं ! जब भी इन प्रश्नों से सामना होगा, यहां मौजूद तीर्थों की शुचिता और मौलिकता की बात जरूर उठेगी। तब परंपरागत संस्कृति से जुड़े हमारे अनूठे मेले, स्थानीय उत्पाद, नदियां, झीलें, पथारोहण, साहसिक खेल, वन विहार, पक्षी विहार, वन्यजीव अभ्यारण्य और परिवहन, भोजन व ठहरने के इंतजामात इत्यादि मुद्दे सतह पर होंगे और हमें खुद से पूछना होगा कि एक हितकारी पर्यटन के मद्देनजर इन मुद्दों के साथ हम कहां खड़े हैं !
निसंदेह स्थानीय लोगों को होने वाली आय और उनकी बदलती आर्थिक स्थिति का आकलन ही हमें पर्यटन उद्योग की अहमियत समझा सकता है। आर्थिक लाभ तभी संभव है, जब हम पर्यटकों की संख्या बढ़ाएंगे। लेकिन कमजोर और आधे-अधूरे नियोजन के बीच ‘वृहद पर्यटन’ क्या संसाधनों पर दबाव नहीं बढ़ाएगा ! यह बात समय-समय पर उठती भी रही है कि पर्यावरण की दृष्टि से संवेदनशील उत्तराखंड के पहाड़ों में ‘वृहद पर्यटन’ खतरनाक नतीजे लाएगा। अधिकांश विशेषज्ञ मानते हैं कि पर्यटन सेक्टर भी बड़े उद्योगों वाली बुराईयां से अछूता नहीं है, लिहाजा खासकर हिमालयी क्षेत्र में इसे बहुत तैयारी और सावधानी के साथ प्रवेश दिया जाना चाहिए।
उत्तराखंड में वृहद पर्यटन का सीधा प्रभाव संसाधनों की खपत और कानून व्यवस्था पर पड़ता दीख भी रहा है। इसी साल मई-जून में उत्तराखंड की सारी सरकारी मशीनरी पर्यटकों की लंबी-लबी कतारों से जूझती देखी गई। केदारनाथ तक में तीन-तीन किलोमीटर लंबी कतारो को देखकर प्रशासन के हाथ-पांव फूल गए। उन दिनों हरिद्वार से रोजाना 80 हजार वाहन गुजर रहे थे और लोगों को औसतन चार-पांच घंटे के ट्रैफिक जाम से जूझना पड़ रहा था।
क्षमता से दुगने-तिगुने यात्रियों के आ धमकने से कई जगह उन्हें स्कूलों और खुली जगहों पर तंबुओं में ठहराना पड़ा। तो क्या अधिकाधिक पर्यटकों के प्रवाह का दांव उल्टा पड़ रहा है। ‘वनन्तरा कांड’ ने इस चिन्ता को और बढ़ा दिया है।
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