तुम बहुत बड़े नामवर हो गए हो क्या

लेखक ललित मोहन रयाल (IAS) की कलम से मूर्धन्य समालोचक नामवर जी को श्रद्धांजलि

नामवर सिंह-19 फरवरी, पुण्यतिथि पर विशेष

‘तुम बहुत बड़े नामवर हो गए हो क्या’। नामवर का नाम एक दौर में असहमति जताने का एक तरीका बनकर रह गया था। वक्ता को हैसियत-बोध कराने का मुहावरा। किंवदंती बनने की प्रक्रिया अत्यंत जटिल होती है। नामवर सिंह साहित्यिक-वाचिक परंपरा के प्रतिमान कैसे बने।

उनकी नामवर बनने की ‘मेकिंग’ संघर्षमयी रही है। गुरु हजारी प्रसाद द्विवेदी, उदयप्रताप कॉलेज और बीएचयू को क्रेडिट देना वे कभी नहीं भूले। ‘घर का जोगी जोगड़ा’ में काशीनाथ सिंह जी ने नामवर जी के तपने-जलने और घिसकर चंदन बनने की दास्ताँ ऐसे बयान की है, मानो सबकुछ सामने घट रहा हो। खेतिहर परिवार के सबसे बड़े पुत्र से ढ़ेरों आशाएँ।

बड़े होने पर संयुक्त परिवार की ढेरों जिम्मेदारियां। उस दौर में जब वे सेवा से निष्कासित थे, लोलार्क कुंड के कमरे में उनके एकांत में कागज रंगने को लेकर काशीनाथ का मन टूक-टूक होकर रह जाता था। जिसे वो अपना सर्वस्व मानता है, जिससे वो ऊर्जा ग्रहण करता है, उसकी यह दशा देखकर उसका मन खिन्न हो जाता है।

एक दिन तो उन्होंने चुपके से भैया के टँगे हुए कुर्ते की जेब में रुपए का सिक्का डाल दिया। शायद काशीनाथ को छात्रवृत्ति मिल रही थी। भैया की दशा देखी नहीं गई। बात करने की हिम्मत नहीं पड़ती थी। शाम को भैया टहलने निकले, जब लौटे तो काशी को बुलाया। काशीनाथ को काटो तो खून नहीं।


भैया ने गंभीर स्वर में कहा मेरा काम अठन्नी से चल जाता है, चवन्नी का पान और चवन्नी की चाय, तुम अपने काम पर ध्यान दो, इधर-उधर की चिंता छोड़ो।


सुगठित गद्य की वकालत करते हुए नामवर जी की मान्यता थी कि, गद्य में चर्बी बिल्कुल नहीं होनी चाहिए। हड्डी दिख जाए तो कोई बात नहीं। वे विशेषणों से युक्त भाषा को कमजोर मानते रहे। एक से अधिक विशेषण के प्रयोग को तो वे भाषा का शत्रु मानते थे। छोटे वाक्य और रवानगी वाली भाषा। लेखन-प्रक्रिया के दौरान लेखक जिस परिच्छेद को लिख रहा होता है, अक्सर उससे अगले पैराग्राफ के चिंतन में उलझ जाता है, जिससे लिखे जा रहे गद्य का सत्यानाश होना पहले से तय हो जाता है. न तो वह इसे कायदे से लिख पाता है, न अगले परिच्छेद को. क्योंकि उसे लिखते हुए वह उससे अगले में उलझ जाता है. उन्होंने काशीनाथ सिंह को मशविरा देते हुए कहा, “किसी भी पैराग्राफ को इतने मनोयोग से लिखो कि, मानो वह तुम्हारा अंतिम पैराग्राफ है।

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