संसदीय विशेषाधिकार तब और अब-उत्तर प्रदेश व उत्तराखण्ड का तुलनात्मक अध्ययन

उत्तर प्रदेश व उत्तराखण्ड विधानसभा में लंबे समय तक संसदीय परंपराओं के गवाह रहे पूर्व प्रमुख सचिव महेशचंद्र पसबोला ने ‘संसदीय विशेषाधिकार तब और अब ‘ के जरिये एक दोनों प्रदेशों के बीच एक तुलनात्मक अध्ययन किया। किस तरह यूपी में पर्चे बांटने से जुड़े एक विशेषाधिकार के मामले में सदन, कोर्ट व महामहिम राष्ट्रपति ने संज्ञान लिया। इधर, उत्तराखण्ड विधानसभा के बैकडोर भर्ती घोटाले के बाद जारी वीडियो व आरोपों पर बन रहे विशेषाधिकार के मामले पर चुप्पी छाई हुई है- पढ़िए सारगर्भित लेख-

महेश चंद्र पसबोला, पूर्व प्रमुख सचिव, उत्तराखण्ड विधानसभा

भारत का संविधान के अनुच्छेद 105 में संसदीय विशेषाधिकार की व्याख्या करते हुए कहा गया है कि इसके अन्तर्गत अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता संविधान में की गई है। जहां तक सदन के अन्य विशेषाधिकारों का सम्बन्ध है। संविधान में यह व्यवस्था है कि भारत की संसद और राज्यों की विधान सभाओं को वे सभी स्वतंत्रता और अधिकार प्रदत्त होंगे जो संविधान लागू होने के समय इंग्लैण्ड में हाउस आॅफ कामन्स को प्रदत्त थे, जब तक कि इस आशय की अन्य व्याख्या भारतीय संविधान में सम्मिलित न की जाए।


स्दन को अपने विशेषाधिकर को लागू करने और उसका उल्लघंन करने वाले व्यक्ति चाहे वह सदस्य अथवा बाहरी व्यक्ति हो, को दंडित करने का अधिकार है। उसे किसी सदस्य या बाहरी व्यक्ति को इसकी अवमानना के लिए भी दंडित करने का अधिकार है। अवमानना की व्याख्या भी करने का सदन को अधिकार है।

सदन के विशेषाधिकार के हनन और अवमानना के भेद को स्पष्ट करते हुए, प्रसिद्ध राजनीतिशास्त्री अर्सकिन ने व्याख्या की है कि सदन, इसके पदाधिकारी अथवा सदस्य की वैध आज्ञा के उल्लघंन, इनके प्रति निन्दा जैसे सभी कृत्य किसी विशिष्ट विशेषाधिकार के हनन की कोटि में नहीं आते हैं वरन वे सदन की अवमानना हैं, जिन्हें कभी-कभी भ्रम से विशेषाधिकार का उल्लघंन माना जाता है।


लेखक लगभग तीन दशकों से भी अधिक समय तक उत्तर प्रदेश की विधानसभा तथा उत्तराखण्ड की विधान सभा का सेवक रहा है और संसदीय प्रणाली के विद्यार्थी के रूप में संसदीय विशेषाधिकार के अनेक मामलों का अध्ययन करने का अवसर प्राप्त हुआ है और अब यह अनुभव किया जा रहा है कि सदन के माननीय सदस्यों में अब संसदीय विशेषाधिकार के उपयोग के प्रति रूचि में कमी आती प्रतीत हो रही है। इस धारणा को सिद्ध करने के लिये लगभग 60 वर्ष पूर्व उत्तर प्रदेश विधान सभा में घटित एक मामले (जैसा कि उत्तर प्रदेश विधान सभा सचिवालय के अभिलेखों में वर्णित है) का तथा वर्तमान में उत्तराखण्ड में विद्यमान परिस्थिति का तुलनात्मक अध्ययन आवश्यक होगा।


पहले मामले में उत्तर प्रदेश में गोरखपुर के एक सामाजिक कार्यकर्ता श्री केशव सिंह ने उत्तर प्रदेश विधान सभा के सदस्य श्री नर सिंह नारायण पाण्डेय, सदस्य विधान सभा के विरूद्ध पर्चा छपवाकर व वितरित कराके विशेषाधिकार की अवहेलना किए जाने का मामला सदन में आया जिसमें विशेषाधिकार समिति को निर्दिष्ट किया गया तथा जिस पर विशेषाधिकार समिति ने अपना प्रतिवेदन प्रस्तुत किया।


उत्तर प्रदेश विधान सभा की 18 दिसम्बर, 1963 की बैठक में तृतीय विधान सभा की विशेषाधिकार समिति के चतुर्थ प्रतिवेदन पर विचार करने के उपरान्त सदन द्वारा यह निर्णय लिया गया कि सर्वश्री श्याम नारायण सिंह, केशव सिंह तथा हुबलाल दुबे ने श्री नर नारायण सिंह, सदस्य विधान सभा के खिलाफ पर्चा छपवाकर व वितरित कराके श्री नर सिंह नारायण पाण्डेय के विशेषाधिकार की अवहेलना की है तथा सदन की अवमानना की है।

अतः सर्व श्री श्याम नारायण सिंह, केशव सिंह तथा हुबलाल दुबे की शास्ति की जाए। तद्नुसार 19 फरवरी 1964 को श्री श्याम नारायण सिंह तथा श्री हुबलाल दुबे की शास्ति सदन में की गई, परन्तु श्री केशव सिंह निर्धारित तिथि को उपस्थित नहीं हुए। 3 मार्च, 1964 को इस सम्बन्ध में सदन में चर्चा होने के पश्चात् श्री अध्यक्ष ने यह आदेश दिया कि अब श्री केशव सिंह के विरूद्ध वारंट जारी होगा और उनको हिरासत में सदन के भीतर लाया जायगा।

तद्नुसार श्री केशव सिंह को मार्शल की अभिरक्षा में 14 मार्च, 1964 को उपस्थित किया गया और सदन के आदेशानुसार उनकी भर्त्सना की गयी। उस अवसर पर सदन के सभा भवन के अन्दर सदन के प्रति अपमानपूर्ण व्यवहार प्रदर्शित करने तथा अशिष्ट असंयत और असंसदीय भाषा में माननीय अध्यक्ष को पत्र लिखने के कारण श्री केशव सिंह को दूसरी बार अवमान का दोषी ठहराया गया और सदन द्वारा उन्हें 7 दिन के कारावास का दण्ड दिया गया और वे जिला जेल लखनऊ भेज दिये गये।


दिनांक 19 मार्च, 1964 को श्री केशव सिंह ने श्री बी सालोमन द्वारा इलाहाबाद के उच्च न्यायालय की लखनऊ बैंच में दण्ड प्रक्रिया संहिता की धारा 491 के अधीन याचिका प्रस्तुत की जिस पर उसी दिन सुनवाई कर न्यायाधीश श्री एन.यू.बेग तथा न्यायाधीश जी.डी.सहगल की न्यायालय ने श्री केशव सिंह को जमानत पर छोड़ देने के आदेश पारित कर दिए।


दि. 21 मार्च, 1964 को सदन में श्री केशव सिंह, श्री बी.सालोमन न्यायाधीश श्री एन.यू.बेग तथा न्यायाधीश श्री जी.डी. सहगल के विरूद्ध सदन के विशेषाधिकार के उल्लघंन की शिकायत की गई। शिकायत पर उसी दिन विचार करने के उपरान्त सदन ने एक संकल्प द्वारा निर्णय लिया कि उक्त दोनों न्यायाधीशों श्री केशव सिंह तथा श्री बी. सालोमन ने सदन का अवमान किया है और आदेश दिया कि श्री केशव सिंह को तुरन्त हिरासत में ले लिया जाय और उनके कारावास के दण्ड की अवधि पूरी होने तक उन्हें जिला जेल लखनऊ में बन्दी रखा जाए तथा श्री एन.यू.बेग, श्री जी.डी.सहगल और श्री बी सालोमन को हिरासत में ले लिया जाए और उन्हें सदन के समक्ष लाया जाए। अभिप्राय यह था कि पूर्वोवत व्यक्तियों को इसलिए बुलाया जाए कि उन्हें स्पष्टीकरण देने का एक अवसर दिया जाए।


इस पर दिनांक 23 मार्च को सम्बन्धित न्यायाधीशों द्वारा सदन के संकल्प के कार्यान्वयन को रोकने के लिए याचिकाएं प्रस्तुत कीं और इलाहाबाद हाईकोर्ट के 28 न्यायाधीशों ने उक्त याचिकाओं के निस्तारण होने तक के लिए रोधानादेश(स्टे आर्डर) पारित कर दिया और यह आदेश दिया कि उन्हें हिरासत में लेने के लिए कोई आदेश अथवा वारन्ट जारी न किया जाएगा और यदि कोई आदेश पहले ही जारी हो चुका हो तो वह विधान सभा के अध्यक्ष, उत्तर प्रदेश सरकार के मुख्य सचिव तथा विधान सभा के मार्शल द्वारा स्वयं अथवा उनके सेवकों अथवा अधीनस्थ कर्मचारियों द्वारा कार्यान्वित नहीं किया जाएगा।

इस पर उत्तर प्रदेश विधान सभा में दिनांक 25 मार्च, 1964 को विचार हुआ और सदन के निश्चय को ध्यान में रखते हुए श्री अध्यक्ष ने पूर्वोवत न्यायाधीशों तथा श्री बी.सालोमन के विरूद्ध जारी किए गए वारन्टों को वापस ले लिया। दि. 27 मार्च 1964 को मा. इलाहाबाद हाईकोर्ट के 23 न्यायाधीशों की एक बैन्च ने प्रश्नगत् याचिकाओं पर एक अन्तरिम आदेश जारी किया जिस पर विचारोपरान्त उत्तर प्रदेश विधान सभा की विशेषाधिकार समिति ने अपनी दिनांक 06 अप्रैल, 1964 की बैठक में यह निश्चय किया कि हाईकोर्ट का उक्त आदेश भी सदन तथा समिति की कार्यवाही में अनधिकृत हस्तक्षेप है, इसलिए समिति इस पर ध्यान देना आवश्यक नहीं समझती है।


इस बीच उत्तर प्रदेश विधान सभा और इलाहाबाद उच्च न्यायालय के मध्य विवाद का प्रश्न राष्ट्रपति महोदय द्वारा भारत के संविधान के अनुच्छेद 143 के अन्तर्गत भारत के सर्वोच्च न्यायालय की राय के लिए निर्दिष्ट किया गया। उसके सम्बन्ध में सर्वोच्च न्यायालय ने 6-1 के बहुमत से दिए गए अपने अभिमत में(जो मुख्य न्यायाधीश श्री गजेन्द्र गडकर द्वारा घोषित किया गया) कहा कि संविधान में निहित है कि सदन की शक्तियों की प्रकृति, व्याप्ति(स्कोप) और प्रभाव के सम्बन्ध में संविधान के अनुच्छेद 194 के निर्वचन को निर्धारित करने का प्रश्न अन्ततः देश की न्यायपालिका पर आश्रित है और किसी कार्य की वैधता का परीक्षण करने की न्यायालय की शक्तियों के परिसीमन(लिमिटेशन) का कार्य अनुच्छेद 211 नहीं करता बल्कि यह अनुच्छेद न्यायालयों के क्षेत्राधिकार को केवल सदन के अन्दर प्रक्रिया के विनियमन के मामलों से हटाता है।


तदुपरान्त उच्च न्यायालय ने श्री केशव सिंह की “हैबियस कार्पस” याचिका को अस्वीकृत करते हुए यह निर्णय दिया कि उत्तर प्रदेश विधान सभा का संविधान के अनुच्छेद 194(3) के अन्तर्गत किसी व्यक्ति को सदन का अवमान करने के लिए सजा देने का वैसे ही अधिकार है जैसे कि इंग्लैण्ड में “हाउस आॅफ कामन्स” को है। उच्च न्यायालय ने यह भी कहा कि न्यायालय संविधान के अनुच्छेद 226 के अन्तर्गत विधान सभा के किसी अवमान के मामले के निर्णय में अपील सुनने के लिए नहीं बैठ सकता है। उच्च न्यायालय के आदेशानुसार श्री केशव सिंह को पुनः गिरफतार करके एक दिन की शेष अवधि के लिये लखनऊ जेल में रखा गया।


उपर्युक्त प्रकरण का उल्लेख करने के पीछे आशय मात्र यह दर्शाना है कि संसदीय विशेषाधिकार के प्रति जागरूकता के कारण सदन के एक माननीय सदस्य के विरूद्ध पर्चा छपवाकर बांटने की घटना ने इतना तूल पकड़ा कि भारत के श्री राष्ट्रपति महोदय को प्रकरण मा. सर्वोच्च न्यायालय को सन्दर्भित करना पड़ा।


अब दूसरे प्रकरण में विचार करें जो उत्तराखण्ड में हाल ही में घटित घटनाक्रम से सम्बन्धित है। हुआ यों कि राज्य की एक संस्था जो राज्य की अधीनस्थ सेवाओं के पदों पर भर्ती के लिए अधिकृत है, में कथित अनियमिताओं की शिकायतें आयीं जिसकी जांच हेतु राज्य सरकार ने विशेष जांच दल का गठन किया। विशेष जांच दल ने अपनी जांच के दौरान अनियमितताऐं पाए जाने पर कतिपय गिरफतारियां की। कथित आरोपों के सन्दर्भ में व्यक्तियों और अधिकारियों की संलिप्तता सामने आने पर राज्य सरकार की किरकिरी होना स्वाभाविक था।

इस छीछालेदारी से जनता का ध्यान हटाने के लिए किसी दूसरी ओर ध्यान बंटाना आवश्यक था और इसके लिए सबसे उपयुक्त स्थान और विषय पाया गया उत्तराखण्ड विधान सभा सचिवालय। उत्तराखण्ड विधान सभा सचिवालय एक ऐसा स्थान था जिस ओर हर किसी का ध्यान आसानी से आकृष्ट किया जा सकता था तो ऐसा नेरेटिव तैयार किया गया कि उत्तराखण्ड विधान सभा सचिवालय की छवि स्मार्टसिटी देहरादून के रायपुर रोड सर्वे चौक के बारहमासी बजबजाते गन्दे नाले की तरह हो गई और जिसकी दुर्गन्ध आज सर्वत्र व्याप्त है।

उत्तराखण्ड विधानसभा स्पीकर ऋतु खंडूडी

उत्तराखण्ड विधान सभा सचिवालय में बैक डोर भर्ती के रूप में मामले को इतने अच्छे तरीके से उछाला गया कि लोगों का ध्यान राजकीय विभागों में हो रहे भर्ती घोटालों से हटकर विधान सभा सचिवालय पर केन्द्रित हो गया और हजारों की भर्ती से हटकर पांच सौ साठ की भर्ती के ही इर्द गिर्द घूमने लगा।

प्रदेश नेतृत्व ने भी मा. अध्यक्ष विधान सभा से लिखित में अनुरोध कर दिया कि विधान सभा सचिवालय में भर्तियों की जांच करवायी जाय। मा. अध्यक्ष विधान सभा को किया गया अनुरोध सार्वजनिक भी कर दिया गया। नेतृत्व की ब्रांडिग के लिऐ जो जरूरी भी था। मा. अध्यक्ष विधान सभा ने भी तत्परता दिखाते हुए विधान सभा सचिवायल में भर्ती प्रकरण की जांच हेतु सेवानिवृत्त तीन नौकरशाहों, जो जनसेवा के लिए सदैव तत्पर एवं सत्ता के गलियारों में सदैव उपलब्ध रहे की एक जांच समिति गठित कर दी।

भविष्य के लिये यह शोध का विषय रहेगा कि यह जांच समिति किस अधिनियम एवं नियम के अधीन गठित की गई और इसके गठन की सूचना सदन को जो कि अध्यक्ष विधान सभा की शक्ति का स्रोत है, को दी गई अथवा नहीं दी गई।

बहरहाल, गठित जांच समिति को विशेषज्ञ समिति की संज्ञा दी गई। अब चूंकि विशेषज्ञ समिति की संज्ञा की दी गई तो नाम को सार्थक करने के लिए समिति ने विधान सभा सचिवालय में उन नियुक्तियों जो कि भारत का संविधान के अनुच्छेद 187(3) के अन्तर्गत अध्यक्ष विधान सभा को प्रदत्त अधिकारों के अन्तर्गत बनायी गई उत्तराखण्ड विधानसभा सचिवालय(भर्ती तथा सेवा की शर्तो) नियमावली, 2011 के प्राविधानों के अन्तर्गत विनियमित कर दिया गया था को भी अवैध बता दिया गया। अन्यथा तो कानून की सामान्य जानकारी रखने वाला समझदार व्यक्ति यह नहीं कह सकता था क्योंकि ऐसा कृत्य तो विशेषज्ञ ही कर सकते हैं।

विशेषज्ञ समिति ने इस विषय पर कोई टिप्पणी नहीं की कि उत्तराखण्ड विधानसभा सचिवालय(भर्ती तथा सेवा की शर्ते) नियमावली 2011 के प्रख्यापित होने के उपरान्त उसमें किए गए कतिपय संशोधन प्रक्रियासम्मत एवं संविधान सम्मत हैं अथवा नहीं। जहां तक विधान सभा सचिवालय के 2011 से पूर्व के कर्मियों को विनियमित किए जाने का प्रश्न है तो यह उपर्युक्त नियमावली के ही नियम 3 परिभाषाएं नियमित नियम 29(1) क के अन्तर्गत किया गया और इस प्राविधान का समावेश किए जाने का आधार उमा देवी बनाम कर्नाटक सरकार के वाद में माननीय उच्चतम न्यायालय द्वारा प्रतिपादित “वन टाइम सेटलमेन्ट” के सिद्धान्त के आधार पर शासन के न्याय विभाग के परामर्श से ही किया गया।

न्यायिक प्रक्रिया में भी इस बात का ध्यान रखा जाता है सुधारात्मक दिशा में अग्रसर होने के लिए यह आवश्यक नहीं है कि विद्यमान व्यवस्था को तहस नहस कर दिया जाए और सम्भवतः इसी के मद्देनजर मा. उच्चतम न्यायालय द्वारा “वन टाइम सेटलमेन्ट” का सिद्धान्त पूर्वोक्त वाद के निस्तारण में प्रतिपादित किया गया जिसका आधार लेकर 2011 तक नियुक्त कर्मियों को विनियमित किया गया। इसको स्वीकार कर लिए जाने की दशा में विधान सभा सचिवालय में वर्ष 2001 से वर्ष 2011 के मध्य की गई भर्तियों जिनमें कि नियमों का पालन नहीं किया गया के सन्दर्भ में एक अन्य न्यायिक सिद्धान्त “डाक्ट्रीन आॅफ वशिंग औफ” भी लागू होता प्रतीत होता है जिसकी पुष्टि कानूनविद अथवा न्यायविद ही कर सकते हैं, लेखक का तो मात्र अनुमान ही है।


वर्ष 2000 में नवगठित राज्य उत्तराखण्ड की विधान सभा सचिवालय वर्ष 2001 से की गई भर्तियों की पृष्ठभूमि पर भी प्रकाश डालना समीचीन होगा। तत्समय विधान सभा सचिवालय में उ0प्र0 विधान सभा सचिवालय(भर्ती तथा सेवा की शर्ते) की नियमावली 1974 प्रवृत्त थी। पूर्ववर्ती राज्य उत्तर प्रदेश में भी उक्त नियमावली के अन्तर्गत सीधी भर्ती के लिये केवल वर्ष 1974 में उत्तर प्रदेश लोक सेवा आयोग द्वारा परीक्षा आयोजित कराई गई थी जिसके द्वारा लेखक को भी विधान सभा सचिवालय की सेवा में आने का अवसर मिला।

उसके बाद से वर्ष 2000 तक सीधी भर्ती हेतु कोई भी परीक्षा पूर्ववर्ती राज्य में पूर्वोक्त नियमावली के अनुसार नहीं करायी गयी थी। इसके अतिरिक्त राजकीय सचिवालय तथा अन्य विभागों में भी कार्मिकों की कमी थी जिसको अधीनस्थ कार्यालयों से, अधिकारियों की इच्छानुसार, कर्मचारियों को सम्बद्ध कर पूरा किया गया। इन परिस्थितियों के विद्यमान रहते सचिव, विधान सभा के लिये यह दुष्कर कार्य था कि मा. अध्यक्ष को इस बात के लिए सहमत कराया जा सकता कि विधानसभा सचिवालय में भर्तिया तत्समय प्रवृत नियमावली के अनुसार ही हों और इस प्रकार वर्ष 2011 में कामचलाऊ व्यवस्था के अन्तर्गत संविदा पर कर्मचारियों की भर्ती प्रक्रिया आरम्भ हो गई जिसने कि कालान्तर में तदर्थ नियुक्तियों का रूप ले लिया जो कि बाद के वर्षो में भी परिपाटी बन गई।

वर्ष 2011 में उत्तराखण्ड विधान सभा सचिवालय सेवा(भर्ती तथा सेवा की शर्ते) नियमावली प्रख्यापित होने के पश्चात् उपर्युक्त रीति से नियुक्त तदर्थ कर्मचारियों को विनियमित कर दिया गया। राजकीय सचिवालय तथा प्रदेश स्तरीय संस्थानों में भी जहां अधीनस्थ कार्यालयों से कर्मचारी सम्बद्ध किए गए थे और जहां तात्कालिक आवश्यकता की पूर्ति हेतु भारत के संविधान के अनुच्छेद 14 एवं 16 के प्राविधानों का पालन नहीं किया जा सका था । कालान्तर में कार्मिक विभाग द्वारा “संविलीकरण नियमावली” तथा “विनियमितीकरण नियमावली” बनाकर सम्बद्ध कर्मचारियों को विनियमित कर दिया गया। वैसे भी सरकारी कार्यालयों में आउटसोर्सिग के द्वारा सेवायोजना प्रदान किये जाने तथा संवैधानिक अथवा सांविधिक संस्थाओं में सेवानिवृत अधिकारियों को पुर्नर्योजित किए जाने में संविधान के अनुच्छेद 14 एवं 16 का अक्षरश: अनुपालन होता नहीं दिखता, जिस पर ध्यान दिया जाना आवश्यक है।


उत्तराखण्ड विधान सभा सचिवालय में बैक डोर भर्ती के प्रकरण के सन्दर्भ में जो महानुभाव आज प्रखर रूप से मुखर हैं वे वक्ता, प्रवक्ता, जनप्रतिनिधि वर्ष 2001 में भी अस्तित्व में थे और भर्ती का प्रकरण उस समय देहरादून से प्रकाशित होने वाले दो हिन्दी दैनिकों ने प्रमुखता से कई संस्करणों में प्रकाशित किया था, किन्तु किसी ने दृढता से और सदनीयती से इन नियुक्तियों का विरोध नहीं किया न ही सत्ता की मीनारों पर बैठे इन महानुभावों को विधान सभा सचिवालय का खुला हुआ बैकडोर दिखा।

यदि सदाशयता और सदनीयती से घटित हो रही अनियमितता का विरोध किया जाता तो कथित बैक डोर आज तक खुला न रहता और प्रदेश की शीर्षस्थ संवैधानिक संस्था की उसके सचिवालय के नाम पर बदनामी न हो रही होती और पांच-छःह वर्षो की सेवा के बाद लगभग डेढ़ सौ कर्मियों को सेवा से बर्खास्त करने का जो दुखद प्रकरण घटित हुआ है वह न होता। चूंकि यह प्रकरण अभी मा. न्यायालय द्वारा अन्तिम रूप से निस्तीर्ण नहीं हुआ है अतः इसके गुणावगुण पर चर्चा करना श्रेयस्कर न होगा।


आज कहा जा रहा है कि अपराध कभी भी किया गया हो, उस पर कार्यवाही जानकारी होने पर कभी भी की जा सकती है, तो इस सम्बन्ध में यही कहा जा सकता है कि भारतीय दण्ड विधान 2001 में भी प्रवृत्त था और आज भी है और विधान सभा सचिवालय में भर्ती की जानकारी वर्ष 2001 से आज तक सार्वजनिक रही है। कमी रही है तो यह कि अनियमितता करने के दोषी के विरूद्ध नियमानुसार कार्यवाही करने की ।

आज प्रयास किया जा रहा है वर्ष 2001 से विधान सभा सचिवालय में नियुक्त कर्मियों को भी बर्खास्त कर उस संस्था तो तहस-नहस करने का जिसने विगत 22 वर्षो में भारत के राष्ट्रपति के पांच निर्वाचनों, राज्यसभा के द्विवार्षिक(ग्यारह) निर्वाचनों और उत्तराखण्ड विधान सभा के सैकड़ों उपवेशनों को निर्विघ्न और सफलतापूर्वक संचालन का कार्य किया है।

प्रदेश में विगत लगभग 15 वर्षो से बिना लोकायुक्त के उनके कार्यालय के अस्तित्व पर और अपने अस्तित्व को सार्थक न सिद्ध कर पाने वाली सेवा का अधिकार आयोग जैसी सांविधिक संस्थाओं पर लेशमात्र भी सार्वजनिक चर्चा नहीं होती क्योंकि उनके कोई राजनीतिक लाभ मिलने की अपेक्षा नहीं है। अच्छा हो यदि तथाकथित विशेषज्ञ समिति द्वारा अवैध बताई गयी 2001 से की गई नियुक्तियों को भी समाप्त कर विधान सभा सचिवालय के शेष रहे कर्मियों जिनकी संख्या मात्र दो-ढाई सौ होगी, के मुंह से भी निवाला छीन लिया जाए जिससे उभय पक्षों को संतुष्ठि मिले और विधान सभा सचिवालय का संचालन किसी इवेन्ट मैनेजमेन्ट कम्पनी को सौंप दिया जाय।

वैसे भी वर्ष में मात्र दस पन्द्रह दिवसों के लिये ही बिजनैस जुटा पा लेने वाली कार्यपालिका एवं विधायिका के लिये ऐसा कर पाना कठिन नहीं होगा। परन्तु ऐसा करने की दशा में क्या प्रदेश में कानून का राज स्थापित होने का दावा किया जा सकेगा-उत्तर होगा निश्चित रूप से नहीं।


आरम्भ में विषय लेकर चले ये संसदीय विशेषाधिकार के उपयोग की, जिस पर चर्चा करते हुए उत्तराखण्ड विधान सभा सचिवालय में बैक डोर भर्ती का प्रसंग आ गया और मूल विषय से भटकाव आ गया। विषय यह था कि विधान सभा सचिवालय में बैक डोर भर्ती का प्रकरण जब ज्वलन्त प्रकरण बन गया तो वर्तमान मा. अध्यक्ष ने उनके द्वारा गठित विशेषज्ञ संस्तुति पर लगभग दो सौ से अधिक कर्मियों को सेवा से बर्खास्त कर दिया जिस पर उनका विरोध होना स्वाभाविक था और जो हुआ।

मा0 अध्यक्ष के विरूद्ध आलोचना के चलते कुछ अरुचिकर प्रसंग भी उपजाए गए जो कि सत्य से कोसों दूर हैं। जैसा कि पहले भी उल्लेख किया जा चुका है लेखक को लगभग ग्यारह वर्षो(2000 से 2011 तक) उत्तराखण्ड विधान सभा के मुख्य सेवक के रूप में कार्यकाल रहा है और शपथपूर्वक यह दावा किया जा सकता है कि वर्ष 2007 से 2012 तक की अवधि में प्रदेश के मा0 मुख्यमंत्री रहे महानुभावों में विधान सभा सचिवालय में हुई भर्तियों में लेशमात्र भी रूचि नहीं दिखाई और न ही कोई संस्तुति की।

अपितु वर्ष 2007 में शपथ लेने वाले मा. मुख्यमंत्री जी जो अपनी कठोर प्रशासनिक छवि के लिये जाने जाते थे, ने लेखक को तलब करके विधान सभा सचिवालय में की गई नियुक्तियों के सम्बन्ध में नाराजगी एवं चिन्ता व्यक्त की थी। आज जब अनर्गल आरोप लगाए जा रहे हैं तो यह खुलासा करने को विवश होना पड़ रहा है। ऐसे में वर्ष 2002 से वर्ष 2007 तक के कालखण्ड में अध्यक्ष विधान सभा के पद पर आसीन रहे महानुभाव को इसलिए लक्ष्य किया जा रहा है क्योंकि वह वर्तमान में नेता प्रतिपक्ष के पद पर आसीन हैं।

संक्षेप में यह कि यत्र-तत्र-सर्वत्र राजनीतिक दांवपेंच ही अपनाए जा रहे हैं और संवैधानिक संस्थाओं के प्रति आस्था एवं गम्भीरता का आचरण नहीं प्रदर्शित किया जा रहा है। मा. अध्यक्ष विधान सभा के विरूद्ध आलोचना करने पर आलोचना का वीडियो बनाकर उसको सोशल मीडिया पर डालने पर कोई प्रतिक्रिया किसी मा. सदस्य विधान सभा, किसी मा. मंत्री द्वारा नहीं व्यक्त की गई जबकि विधान सभा के मा. अध्यक्ष तो सदन के सभी सदस्यों द्वारा निर्वाचित व्यक्ति होता है और सभी सदस्यों का उन पर विश्वास होता है और तो और मा. अध्यक्ष की आलोचना के दौरान उनके द्वारा अपने निजी स्टाफ में कोटर्मिनस निःसम्वर्गीय पदों पर स्वेच्छा से नियुक्ति करने प्रकरण भी उछाला गया।

उस पर भी शासन के कार्मिक विभाग अथवा अन्य अधिकृत विभाग द्वारा यह स्पष्टीकरण प्रसारित नहीं किया गया कि यह तो प्रदेश पर और देशभर में प्रचलित और स्वीकृत व्यवस्था है कि संवैधानिक पदधारक महानुभाव स्वीकृत को-टर्मिनस निःसम्वर्गीय पदों पर स्वेच्छा से नियुक्ति कर सकता है। यह राजनीतिक दल के भीतर खेमेबाजी की स्पष्ट लकीरों की ओर इशारा करता है।

हम विश्व के सबसे बड़े लोकतंत्र होने का दावा तो कर सकते हैं लेकिन संसदीय लोकतंत्र कहने में हमारी जुबान अटकनी चाहिए, तभी तो हम आज सोशल मीडिया में अनर्गल वीडियो को डालने के कृत्य को तूल नहीं देते जबकि पचास वर्ष पूर्व पर्चे बांटने की घटना देश के महामहिम राष्ट्रपति का ध्यान आकृष्ट कर देती थी। संसदीय लोकतंत्र के संसदविज्ञों के पलायन पर उत्तराखंडी गीत गुनगनाने का जी चाहता है “त छुंयाल रयां गौं मा न हुगांरू लांद क्वी……”.

महेश चन्द्र पसबोला
( फरवरी 1975 से नवम्बर २००० तक उत्तर प्रदेश विधान सभा सचिवालय में)
( नवम्बर 2000
से
अक्तबर 2011 तक उत्तराखण्ड
विधान सभा के सचिव / प्रमुख सचिव पद पर)
( अप्रैल 2013 से मार्च 2016 तक अध्यक्ष उत्तराखण्ड सहकारी निर्वाचन प्राधिकरण के पद पर )

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