तिलोगा-अमरदेव नाटक के जरिए दर्शकों ने देखी गढ़वाल की प्रेम कहानी

ऐतिहासिक मोहब्बत के पन्नों से रूबरू करा गयी ‘तिलोगा-अमरदेव’ की कहानी

दिनेश शास्त्री

देहरादून। मेघदूत नाट्य संस्था ने अपने रजत जयंती वर्ष में तिलोगा – अमरदेव नाटक के मंचन के जरिए रविवार की शाम को यादगार बना दिया।तिलोगा अमरदेव प्रणय प्रसंग करीब चार सौ वर्ष पुराना घटनाक्रम है।


सोलहवीं शताब्दी के प्रारम्भिक वर्षों में ही महाराजा अजय पाल ने गढ़वाल के सभी राजवंशों को जीत कर अखंड गढ़वाल राज्य की स्थापना के साथ राजधानी पहले 1512 ई. में देवलगढ़ और फिर 1517 में श्रीनगर स्थापित कर दी थी। उनकी ही संतति में सत्रहवीं शताब्दी में फतेहपति शाह गढ़वाल नरेश हुए। यह प्रणय प्रसंग उसी कालखंड का माना जाता है।


अजयपाल ने जिन गढ़ों को जीता था, उनके गढ़पति सामंत बना दिए गए थे। उन्हीं में एक गढ़ था – भरपूर गढ़। बदरीनाथ मार्ग पर आज के तीन धारा के पास ऊपर पहाड़ पर यह गढ़ आज भी खड़ा है। इस गढ़ के सामंत बसता ठाकुर का छोटा भाई था अमरदेव सजवाण। गंगा के पार और व्यासघाट के ऊपर तैड़ी गांव है। यहां के थोकदार की रूपसी बेटी थी तिलोगा। विषुवत संक्रांति पर व्यासघाट के मेले में दोनों की आँखें कब चार हुई, पता ही न चला।
प्रेम भी ऐसा जिसका रास्ता सावन में उफान पर बह रही गंगा भी न रोक सकी।


उधर तिलोगा की सगाई पास के बुटोला राजपूत परिवार के एक युवक से तय हो चुकी थी। लेकिन प्रेम का बीज तिलोगा और अमरदेव के हृदयों में अंकुरित हो चुका था। व्यासघाट के मेले में उनकी आँखें एक बार मिली तो फिर ऐसी मिली कि  एक दूजे को दिल दे बैठे।


यूं कहें कि दो दिलों के इस रूहानी संबंध में अब दिल दो नहीं रहे बल्कि एक हो गए। प्रेम का यह  गणित बड़ा विचित्र और जटिल होता है। यहां गणित से ज्यादा रसायन और मनोविज्ञान कारक होता है।सावन की घनघोर रातों में तैड़ी से तिलोगा छिल्ले जलाकर भरपूर की ओर रोशनी से इशारा करती है और भरपूर का बांका जवान अमर देव जान हथेली पर प्रचंड वेग से बहती गंगा को पार कर तैड़ी पहुंचता है। जब प्रेम उफान पर हो और एक प्रेमी दूसरे प्रेमी से मिलने को आतुर हो तो भला गंगा क्यों नहीं राह देती। गंगा भी तो प्रेम की पराकाष्ठा को समझती है, यदि ऐसा न होता तो धरती पर आने के बाद उसे महाराज शांतनु से प्रेम नहीं हो जाता। गंगा की उत्तुंग लहरों पर तैर कर अमरसिंह प्रेमातुर तिलोगा के पास पहुंच जाता है। तिलोगा को भरोसा है कि अमरदेव जरूर आएगा। तिलोगा के भरोसे को कायम रखते हुए अमरदेव पहुंच जाता है तिलोगा के पास।


गुपचुप प्रेम की यह गाथा कई दिन तक चलती रही लेकिन कहते हैं न कि इश्क और मुश्क ज्यादा दिन तक छुपाए नहीं छुपते। सो तिलोगा और अमरदेव के प्रेम की चर्चा भी पूरे इलाके में फैल गई। फिर वही हुआ जो आमतौर पर होता आया है। गढ़ू सुम्याल अथवा मालूशाही के साथ हुआ। अजमीर गढ़ी के सामंत भध्यो असवाल जिसने गढ़ नरेश की हुक्मअदूली की थी, उसका सिर कलम करने वाले अमरदेव सजवाण को बुटोला तड़ियालों ने छल से घेर कर मार डाला।


अमरसिंह की अंतिम कराह जब तिलोगा के कानों तक पहुंची तो वह नंगे पैरों दौड़ी चली आई अपने प्रेमी की पार्थिव देह के पास। तिलोगा को अपना जीवन व्यर्थ लगा और वहीं कटार अपने सीने में घोंप कर जान दे दी। लेकिन प्राणोत्सर्ग से पूर्व तिलोगा ने अपना वक्ष स्थल गांव की उस बावड़ी में फेंकते हुए श्राप दे डाला कि आज के बाद इस गांव में कोई बांद न हो और वह अमरदेव की पार्थिव देह से लिपट गई। दोनों जीते जी एक न हो सके लेकिन प्रेम में डूबी आत्माएं अनंत में एकाकार हो गई। तब कदाचित गंगा ही बिलख कर रोई होगी कि क्यों उसने अमरदेव को राह दी? वह बावड़ी यानी जलधारा भी खूब रोई होगी, जिसमें तिलोगा ने अपने वक्ष क्षत विक्षत कर डाले। वह जलधारा आज भी रो रही है, कोई उसका पानी नहीं पीता। शायद सावन की उस झड़ी में आसमान भी रोया होगा। अमरदेव की देह को जहां दफनाया गया, वह चबूतरा भी रोया होगा। आज भी उसे हेय दृष्टि से देखा जाता है।


बहरहाल तिलोगा और अमरदेव सदा सदा के लिए इतिहास में अजर हो गये। इस घटना के बाद तैड़ी और भरपूर गढ़ी में शत्रुता इस कदर हो गयी फिर कभी इन दोनों गाँवो में रिश्ते नाते नहीं हुए।
रंगकर्मी एस.पी. ममगाईं ने इसी कथानक को बेहद खूबसूरती के साथ टाऊन हॉल में रविवार को अपने कलाकारों के साथ पेश किया। बसता ठाकुर की भूमिका नंदकिशोर त्रिपाठी ने निभाई। बसता ठाकुर अमरदेव के बड़े भाई थे। उनकी पत्नी और अमरदेव की भाभी जयंती की भूमिका में इंदु रावत ने शानदार अभिनय किया। तिलोगा की भूमिका मिताली पुनेठा और अमरदेव की भूमिका अनिल दत्त शर्मा ने निभाई।


स्वामी प्रभुदास के रोल में उत्तम बंदूनी, भध्यो असवाल की भूमिका में विजय डबराल, तिलोगा की सहेली चैती के रूप में पूनम राणा, रामी के रूप में रश्मि जैना, जमन सिंह की भूमिका में गिरीविजय ढौंढियाल के अलावा अभिनव द्विवेदी, सिद्धार्थ डंगवाल, अनिल भंडारी, कुहू, गौरी, सपना, मौली जुगराण, ममता, मोनिका आदि ने शानदार अभिनय की छाप छोड़ी।
कहना न होगा कि सभी कलाकारों ने अपनी भूमिकाओं के साथ न्याय किया। नाटक की प्रस्तुति से लगा कि निसंदेह इन कलाकारों ने गहन प्रशिक्षण लिया है। वैसे भी श्री ममगाईं को स्कूल ऑफ ड्रामा माना जाता है और वे ज्यादातर छात्र छात्राओं को अवसर देते हैं।


नाटक के लिए संगीत आलोक मलासी ने तैयार किया था जबकि कोरियोग्राफर पूनम राणा थी। जागृति डोभाल, अमिता मोहित, मोनिका ढौंढियाल, प्रदीप शर्मा ने रूप सज्जा में योगदान दिया।
नाटक का शीर्षक गीत मुहम्मद इकबाल आजर ने लिखा था, जो पूरे कथानक का संकेत दे रहा था। आकाशवाणी के वरिष्ठ उदघोषक विनय ध्यानी ने कथासार प्रस्तुत किया। एस.पी. ममगाईं ने अपने निर्देशन से लोहा मनवाते हुए सिद्ध किया कि उम्र किसी अभियान को सिरे चढ़ाने में कोई बाधा नहीं होती।
मेघदूत के अशोक मिश्रा और सचिव दिनेश बौड़ाई ने प्रस्तुति में पर्याप्त योगदान दिया। कहना चाहिए कि मेघदूत की यह प्रस्तुति लंबे समय तक दर्शकों को याद रहेगी।

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