पूर्व में भी मंदिरों की प्रतिकृति बनती रही है. मूल मंदिर की प्रतिष्ठा हमेशा बनी रही
वरिष्ठ पत्रकार दिनेश शास्त्री
देहरादून। कई शताब्दी पहले जब कार्तिकेयपुरी यानी जोशीमठ से कत्यूरी राजाओं को खदेड़ा गया होगा उन्होंने कुमाऊं की कत्यूर घाटी में अपना नया राज्य बनाया।बदरी केदार समेत अपने तमाम आराध्य देवों के के उन्होंने जागेश्वर में मंदिर बनाए।
जागेश्वर में बदरीनाथ और केदारनाथ मंदिर आज भी हैं। सवाल उठता है कि क्या उस उपक्रम से इन तीर्थों की महिमा कम हुई? उत्तर है कदापि नहीं। बल्कि यह उनकी भावना का प्रकटीकरण था और अपने आराध्य की वंदना उनकी दिनचर्या का हिस्सा था तो उन्होंने जागेश्वर में भगवान केदारनाथ और बदरीनाथ के मंदिर बनवाए।
भगवान शंकर के बारह ज्योतिर्लिंगों में दारुका वन के नागेश्वर तीर्थ का उल्लेख है। कुमाऊं में कुछ लोग पठांतर करते हुए “नागेशम दारुकावने” को जागेशम दारूकावने निरूपित करने का प्रयास करते हैं तो उससे जागेश्वर वह प्रतिष्ठा नहीं पा सकता।
वास्तविक नागेश्वर ज्योर्तिलिंग तो गुजरात के सौराष्ट्र तट पर द्वारका शहर और बेट द्वारका द्वीप के बीच मार्ग पर स्थित है। आत्मिक संतोष के लिए यह उपक्रम हो सकता है किंतु तीर्थ का महात्म्य पठान्तर से कतई नहीं बदलता। इसी तरह तीर्थनगरी ऋषिकेश में तिरुमला तिरुपति मंदिर की प्रतिकृति बनी तो मूल तिरुपति की प्रतिष्ठा वहां निरूपित नहीं हो सकती। चंद्रभागा तट के पास बदरीनाथ मार्ग पर आज भी ऋषिकेश में वह मंदिर मौजूद है तो क्या तिरुपति जाने की इच्छा रखने वाले ऋषिकेश के तिरुपति मंदिर जाकर वह भाव व्यक्त कर सकते हैं? जवाब है – नहीं। तिरुपति की प्रतिष्ठा ऋषिकेश में नहीं हो सकती। इसके लिए तो वहीं जाना पड़ेगा।
पिछली शताब्दी में करीब अस्सी के दशक में हरियाणा के फरीदाबाद में गढ़वाल सभा के संस्थापकों ने वहां अपने समाज को एकसूत्र में पिरोने के लिए बदरीनाथ और केदारनाथ मंदिर बनवाए थे। उससे पहले संभवत साठ के दशक में दिल्ली में गढ़वाल हितैषिणी सभा ने पंचकुइयां मार्ग पर बदरीनाथ मंदिर के नाम पर गढ़वाल भवन बनवाया तो क्या बदरीनाथ मंदिर की प्रतिष्ठा कम हुई? नहीं न। देश की आर्थिक राजधानी मुंबई में भी प्रवासी गढ़वालियों ने बदरीनाथ मंदिर की स्थापना की। इसी तरह पुणे में भी बदरीनाथ मंदिर बना है तो उसे भी इसी तरह माना जाए?
मुझे याद आ रहा – वर्ष 1974 में केदारनाथ धाम से कमोबेश भगवान केदार के ज्योर्तिलिंग की अनुकृति के रूप में एक शिला को गाजे बाजे के साथ आंध्र प्रदेश ले जाया गया था, तब तो किसी ने विरोध नहीं किया था बल्कि केदारनाथ धाम के लोगों ने खुद उन लोगों का सहयोग किया था।
केदारनाथ की वह शिला पूरे सम्मान के साथ पैदल आंध्र प्रदेश पहुंचाई गई थी तो क्या केदारनाथ धाम की प्रतिष्ठा कम हुई? नहीं न। हर साल केदारनाथ आने वाले तीर्थ यात्री वापसी में अपने साथ वहां की शिला निशानी के तौर पर अपने साथ ले जाते हैं और उन शिलाओं को अपने घर मंदिर में स्थापित करते है तो इससे केदारनाथ धाम की प्रतिष्ठा कम नहीं होती बल्कि बढ़ती ही है। वे लोग नित्य प्रति भगवान केदारनाथ का स्मरण करते हैं तो अब प्रवासी गढ़वालियों द्वारा दिल्ली के बुराड़ी में केदारनाथ मंदिर के निर्माण के लिए धाम से शिला ले जाई गई है तो हंगामा खड़ा हो गया है।
वस्तुत केदारनाथ की विधायक श्रीमती शैला रानी के निधन से केदारनाथ विधानसभा सीट रिक्त हुई है और अगले कुछ दिन में वहां चुनाव होंगे तो मोबिलाइजेशन के प्रथम चरण में यह विवाद खड़ा किया जाता दिख रहा है। विरोध के इस आंदोलन को ऊर्जा अभी हाल में हुए बदरीनाथ विधानसभा उपचुनाव का नतीजा है।
कांग्रेस ने बदरीनाथ में भाजपा को धूल चटा दी है तो उसी की पुनरावृत्ति केदारनाथ में करने के लिए फील्डिंग सजाई गई लगती है। कांग्रेस की आपत्ति यह है कि दिल्ली के बुराड़ी में निर्माणाधीन केदारनाथ मंदिर का भूमि पूजन मुख्यमंत्री ने क्यों किया और क्यों केदारनाथ से शिला ले जाई गई?
गजब की राजनीति है भाई। सवाल पूछा जा सकता है कि क्या उत्तराखंड के प्रवासियों द्वारा देश के विभिन्न क्षेत्रों में बनाए गए केदारनाथ और बदरीनाथ मंदिरों की सभी रिप्लिका के विरोध में आंदोलन करेंगे? आखिर नफरत के बाजार में मुहब्बत की दुकान जो खोलनी है। सच तो यह है कि विरोध की इस राजनीति का कोई औचित्य नहीं है।भगवान केदारनाथ कहीं नहीं जा रहे हैं, भगवान वहीं रहेंगे और धाम की प्रतिष्ठा भी वहीं है।
केदारनाथ के नाम से दिल्ली में मंदिर बनाए जाने से धाम की प्रतिष्ठा न तो कम होगी न उसका महत्व ही कम होगा। भगवान के नाम पर आप भी वही सब करने लगे जो दूसरे करते आ रहे तो फर्क क्या रहा? लिहाजा कोई सकारात्मक बात कीजिए, धर्म जैसे संवेदनशील मामले में कम से कम दखल हो तो वही अच्छा है।
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