स्मृति शेष-कुमकुम-
जरा हटके …जरा बचके …ये बॉम्बे है मेरी जान | कभी आर-कभी पार लागा तीरे नजर

जरा हटके …जरा बचके …ये बॉम्बे है मेरी जान की कुमकुम नही रही। प्रसिद्ध फील समीक्षक, वीर विनोद छाबड़ा ने कुमकुम को कुछ इस तरह श्रद्धांजलि दी

गुज़रे दिनों की मशहूर एक्ट्रेस कुमकुम का मुंबई में 28 जुलाई को निधन हो गया। वो छियासी साल की थीं। सच तो यह है कि आज की पीढ़ी कुमकुम को नहीं जानती है।

लेकिन पुराने मशहूर गानों की फ़ेहरिस्त उठा कर देखें तो बेशुमार गानों में कुमकुम ज़िंदा दिखाई देंगीं, पूरे जोश से बिंदास फुदकती और नाचती दिखाई देंगीं। उनका असली नाम ज़ेबुनिस्सां था या मेहरूनिसा ठीक ठीक मालूम नहीं। लेकिन पब्लिक के दिलों में वो कुमकुम के नाम से ही बसी थीं। वो बिहार के शेखूपुर जिला के हुसैनाबाद इलाके में 12 अप्रेल 1934 को जन्मीं थीं। उनके पिता वहां के नवाब हुआ करते थे।

कुमकुम भले जन्मीं बिहार में मगर उनकी पढ़ाई-लिखाई लखनऊ और बनारस में हुई। कुमकुम ने पंडित शंभू महाराज से कथक सीखा था। जब वो सिनेमा में आयीं तो उनकी नृत्य प्रतिभा की तुलना वैजयंती माला, पद्मिनी और रागिनी सरीखी उच्च कोटि की नृत्यांगनाओं से होने लगी।

याद करें – दिलीप कुमार के सामने मधुबन में राधिका नाचे रे…(कोहिनूर), कान्हा जा रे, लोग कहें तू तन का काला मैं कहूं तू मन का काला…(तेल मालिश बूट पालिश), जया जया हे जगदम्बे माता…(गंगा की लहरें), जुल्मी हमारे सांवरिया हो राम कैसे गुज़रेगी हमरी उमरिया हो राम….(मिस्टर एक्स इन बॉम्बे), दगा दगा वई वई…(काली टोपी लाल रुमाल), दीया न बुझे री आज हमारा…(सन ऑफ़ इंडिया). ये आज भी श्रेष्ठ क्लासिकल नृत्यों में गिने जाते हैं।

सिर्फ नृत्य ही नहीं कई अन्य लोकप्रिय गानों में भी कुमकुम दिखीं, चली रे चली रे गोरी पनिया भरन को चली…मेरे महबूब क़यामत होगी…खूबसूरत हसीना…सुल्ताना सुल्ताना तू न घबराना रोकेगा न तुझे ज़माना…छेड़ो न मेरी ज़ुल्फ़ें सब लोग क्या कहेंगे…मचलती हुई उछलती हुई हमारे संग संग चलें गंगा की लहरें…ये रंगे महफ़िल ये हुस्ने बहारां ऐसे में ख़रामा ख़रामा अल्लाह करे तू भी आ जाए…रेशमी सलवार कुरता जाली दा रूप सहा न जाए नखरे वाली दा…यदि याद न आ रहा तो यू-ट्यूब का सहारा ले सकते हैं।

प्यासा 1957 में वहीदा की सहेली बनी कुमकुम

कुमकुम की शुरूआती फ़िल्में आंसू और मिर्ज़ा ग़ालिब भले कही जाती हैं। लेकिन वो पब्लिक के दिलों में समायी गुरूदत्त की ‘आर-पार’ (1954) से। गुरू जगदीप पर एक गाना फिल्माना चाहते थे – कभी आर कभी पार लागा तीरे नज़र…मगर उन्हें लगा कि वो इस गाने के भाव समझने में जगदीप अभी बच्चे हैं, लिहाज़ा उन्होंने कई नायिकाओं से बात की मगर कोई तैयार नहीं हुई – सिर्फ एक गाने के लिए? न बाबा न, ठप्पा लग जाएगा। तब कुमकुम सामने आयी। इस तरह उन्होंने सिनेमा वर्ल्ड धूम मचाई।

गुरू ने अगली फिल्म ‘सीआईडी’ (1955) में एक छोटा सा रोल दिया, कॉमेडियन जॉनी वॉकर के सामने। मशहूर गाना – ऐ दिल मुश्किल है जीना यहाँ, ज़रा हट के ज़रा बच के ये है बॉम्बे मेरी जां….उन दोनों पर ही फिल्माया गया। आगे चल कर गुरू की प्यासा (1957) में भी वो वहीदा की सहेली के रूप में दिखी। लेकिन गुरू जैसे बड़े सहारे के बावजूद उनकी मंज़िल दूर थी। ये वो मुकाम नहीं था जिसे वो अपनी लियाक़त के हिसाब से हासिल करना चाहती थीं।

जानी वॉकर के साथ

कुमकुम महबूब ख़ान ने ‘मदर इंडिया’ (1957) में उन्हें राजेंद्र कुमार की पत्नी बनाया। उन्हें लगा महबूब ही उनकी नैया पार लगाएंगे। और महबूब ने उन्हें ‘सन ऑफ़ इंडिया’ में हीरो कंवलजीत की हीरोइन बनाया। ये वही कंवलजीत हैं जो कालांतर में वहीदा रहमान के रीयल लाईफ पति बने।

बहरहाल, कुमकुम के लिए ये बड़ा ब्रेक नाकाफ़ी साबित हुआ। फिल्म फ्लॉप हो गयी और साथ में कुमकुम के सपने भी। वो पहली भोजपुरी फिल्म ‘गंगा मैया तोहरे पिहरी चढ़इबो’ की नायिका रहीं और ‘लागी नहीं छूटे राम’ में भी। बाद में रामानंद सागर ने ‘आँखें’ में अच्छा रोल दिया और फिर ‘ललकार’ में धर्मेंद्र की पत्नी की भूमिका। फ़िल्में भी चलीं लेकिन कुमकुम जहाँ थीं वहीं रहीं। अब उन्हें बहनों के रोल ऑफर होने लगे। इस बीच सागर की ‘जलते बदन’ (1973) में हीरोइन बनी लेकिन ये भी फ्लॉप रही। समीक्षकों को हैरानी हुई, ये फिल्म सागर ने बनाई ही क्यों?

ये त्रासदी नहीं तो क्या है कि कुमकुम ने 115 फ़िल्में की और इस बीच वो कई फिल्मों में दिलीप कुमार, धर्मेंद्र, राजेंद्र कुमार, देवानंद के साथ भी दिखीं । शम्मी कपूर के साथ ‘मेमसाब’ वो सेकंड लीड में थीं और ‘चार दिल चार राहें’ में पत्नी की भूमिका में। लेकिन नायिका बी और सी ग्रेड की फिल्मों की रही। अच्छी एक्ट्रेस थीं और कुशल नृत्यांगना भी। उनकी जोड़ी किशोर कुमार के साथ मिस्टर एक्स इन बॉम्बे, श्रीमान फंटूश और गंगा की लहरें में खूब जमी। फ़िरोज़ ख़ान के साथ ‘एक सपेरा एक लुटेरा’ खूब चली। लेकिन बात वही रही कि किशोर और फ़िरोज़ तो बहुत आगे निकल गए मगर कुमकुम पीछे ही रह गयीं।

सब कुछ होते हुए भी अपेक्षित सफलता न मिलने का एक ही कारण होता है किस्मत का साथ न होना। सिनेमा की दुनिया में ये बहुत ज़रूरी तत्व माना जाता है। उन दिनों गॉसिप मैग्ज़ीनों में ये चर्चा भी रहती थी कि कुमकुम से सिर्फ झूठे वादे किये गए जिन्हें उन्होंने सच समझ कर भूल की। शायद उन्हें फ़िल्मी पॉलिटिक्स की समझ नहीं थी। जब उनकी समझ में ये सब आया तो बहुत देर हो चुकी थी, उम्र भी बढ़ चुकी थी। ऐसे में वो एक बिज़नेसमैन से शादी करके सऊदी अरब चली गयीं।


कुछ भी हो ये बहुत तसल्ली की बात है कि कुमकुम को भले ही फिल्म इंडस्ट्री में टॉप पोज़िशन नहीं मिली मगर वो लाखों सिनेमा प्रेमियों के दिलों में रहीं। मुझे याद है पर्दे पर उनको देखते ही दर्शकों की बाछें खिल जाती थीं। वो कितनी लोकप्रिय थीं, इसका सबूत ये भी है कि उनकी मृत्यु की ख़बर को मीडिया ने प्रमुखता दी है। मुझे कई बार पाठकों ने अनुरोध भी किया कि कुमकुम पर लिखें। लेकिन आज-कल के चक्कर में लिख न सका और आज लिखा भी तो श्रद्धांजलि देने के लिए। अफ़सोस।

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