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आईएएस ललित मोहन रयाल की पुस्तक चर्चा में बीती एक शाम - Avikal Uttarakhand

आईएएस ललित मोहन रयाल की पुस्तक चर्चा में बीती एक शाम

आईएएस ललित मोहन रयाल की कृति काऽरी तु कब्बि ना हाऽरि पर साहित्यिक चर्चा

काऽरी तु कब्बि ना हाऽरि का चौथा संस्करण बाजार में

देवेश जोशी/ अविकल उत्तराखण्ड

देहरादून। रविवार की शाम नगर के साहित्यकारों की उपस्थिति में रतूड़ी दंपत्ति की पहल पर उनके आवास ’फुलवारी’ में चर्चित लेखक ललित मोहन रयाल Lalit Mohan Rayal की कृति ’काऽरी तु कब्बि ना हाऽरी’ पर परिचर्चा हुई। इसमें मुख्यतया रियासती समाज, सामंती मूल्य, आमजन के जीवन-संघर्ष, गढ़वाली के प्रयोग, जीवनी विधा के शिल्प इत्यादि बिंदुओं पर विस्तृत विमर्श हुआ।

कार्यक्रम की शुरुआत अपर मुख्य सचिव राधा रतूड़ी के औपचारिक संबोधन से हुई। पूर्व पुलिस महानिदेशक अनिल रतूड़ी Anil Raturi व शिक्षक देवेश जोशी ने लेखक से बारी-बारी से सवाल पूछे। डॉ.सुधारानी पांडे, प्रो.सविता मोहन, श्रीमती डॉली डबराल, शंखधर दुबे आदि विद्वज्जनों ने भी लेखक से रचना के खास प्रसंगों को रेखांकित करते कुछ सवाल पूछे। पराग गुप्ता, प्रो.डीएन भटकोटी, मुकेश नौटियाल, डॉ रामविनय सिंह, डॉ अमित श्रीवास्तव, शीशपाल गुसाईं, मुनीन्द्र सकलानी, श्रीमती अंजली श्रीवास्तव, कर्नल श्रीवास्तव, रजनीश त्रिवेदी, भुवन कुनियाल इत्यादि विद्वानों ने कार्यक्रम की शोभा बढ़ाई।

लेखक से पूछा गया कि लगभग दस फीसदी गढ़वाली भाषा के प्रयोग के साथ हिन्दी में इस किताब को लिखने का विचार (और साहस भी) कैसे आया? इस नये रास्ते में जोखिम भी था, पर आप जमाने की राह नहीं आये। इस पर कुछ बताएंगे? इस पर लेखक का उत्तर था कि वह दौर दिखाना जरूरी था और वह परिवेश भी। जो कुछ वे कहते थे, उस सब की अभिव्यक्ति आवश्यक लगी। अगर प्रयोजनमूलक या परिनिष्ठित साहित्यिक भाषा का इस्तेमाल करता तो वह कृत्रिम-सा लगता। फिर देशज भाषा में कम सामर्थ्य नहीं होती, बल्कि यूं कहें कि उसमें भाव अभिव्यक्ति की क्षमता ज्यादा सघन होती हैं। आखिर वह हिंदी की सिस्टर डाइलेक्ट ही तो है। फिर भी कोई कमीबेशी रह जाए तो फुटनोट लिखकर समाधान देने की कोशिश भी कर रहे हैं। शुभचिंतकों ने चेताया भी, पर उस समय आविष्ट-सी अवस्था में था, लिखे बिना नहीं माना।

यह पूछे जाने पर कि लंबी कहानी/उपन्यास में आंचलिकता का अपना एक विशिष्ट स्वाद होता है। एक बार लेखक, पाठक को अपने सम्मोहन में लेता है और फिर पाठक स्वयं को उस अंचल का हिस्सा मानने लगता है। फिर, भाषा भी रचना और पाठक के बीच, कोई बाधा नहीं रह जाती है। ये जादू रेणु ने किया, शैलेश मटियानी ने और शिवानी ने भी। कहा जा रहा है कि गढ़वाल-अंचल को लेकर यही जादू अब ललित मोहन रयाल ने कर दिया है – काऽरी..में । क्या कहेंगे? लेखक का उत्तर था कि ’डाइग्लोसिया’ पर जो ये सवाल है आपका, ऐसी भाषा सिर्फ मजबूत ही नहीं वरन् परिवेश, यहां तक कि क्षेत्रीय विविधता को सजीव बनाने में काफी सहायक सिद्ध होती है।

जनसमूह के व्यवहार की ये जो भाषा है, लोकोक्तियों, मुहावरों से अत्यंत समृद्ध होती है। आपने ’मैला आंचल’ का जो दृष्टांत दिया तो कहना चाहूंगा कि रेणु की मैला आंचल इस प्रयोग में एक प्रतिमान साबित हुई है। उनकी अन्य जितनी भी कहानियां हैं, चाहे वह पंचलैट हो या लाल पान की बेगम। मारे गए गुलफाम उर्फ तीसरी कसम हो या अगिनखोर, मिरदंगिया हो या रसप्रिया, मैला आंचल पढ़ने के बाद उसकी परिशिष्ट सी मालूम पड़ती हैं। मैला आंचल के जोर-शोर के बाद यह बोली तिलकामांझी विश्वविद्यालय के पाठ्यक्रम की हिस्सा बनीं।

प्रकारांतर से एक निष्कर्ष यह भी निकलता है कि इस तरह के सफल प्रयोग से उपभाषा की भाषायी दावेदारी मजबूत हुई। इसे आप हिंदी की छतरी के नीचे उपभाषा के विकास की एक सक्सेस स्टोरी भी मान सकते हैं। इस उपन्यास में जो किरदार हैं, वे गांव-जवार की बोली बोलते हैं, जो बड़ी मीठी लगती है। आप उस जनपद से अभिभूत होकर रह जाते हैं। पाठक का वहीं रहने का मन करने लगता है। अब आपके सवाल का जो दूसरा हिस्सा है, उसके जवाब में कहना चाहूंगा कि ग्रियर्सन डब्लिन में पैदा हुए। आईसीएस अफसर बनकर यहां आए। लिंग्विस्टिक सर्वे ऑफ इंडिया (,1903) यानी 120 साल पहले नागपुरिया, श्रीनगरया, दसोल्या, सलाणी, टिरियाळी, राठी, गढ़वाली की बोलियों का जो वर्गीकरण वह कर गया, हम उसका दशांश भी नहीं कर पाए।

यह भी पूछा गया कि जीवनी आम तौर पर महापुरुषों की लिखी जाती है। इससे लेखक को सुविधा ये रहती है कि कथ्य और नायक के प्रति उसके पाठकों का मन कोरी स्लेट नहीं होता है। लेखक को बस नायक के जीवन के उतार-चढ़ाव को कलात्मक बनाना होता है। किसी अपरिचित, साधारण व्यक्ति की जीवनी लिखने में ये सुविधा नहीं रहती है। पाठकों के संभावित सवाल कि मैं क्यों पढूं, मुझे क्या मतलब….लेखक के मन-मस्तिष्क में तानपूरे के स्थायी स्वर-से गूँजते रहते हैं। कथा को आगे बढ़ाने के साथ इन गूँजते सवालों से निपटना, लेखक के लिए एक अतिरिक्त चुनौती बन जाती है। काऽरि लिखते हुए आपका अनुभव कैसा रहा?

इस सवाल के उत्तर में लेखक रयाल का जवाब था कि पितृकर्म का जो एक साल होता है उसमें दिनचर्या कई तरह के विधि-निषेधों से संचालित होती है। उस पर हम पिता के व्यक्तित्व से बुरी तरह आच्छादित थे। समझ लीजिए कि सम्मोहित-से थे। मनोदशा कुछ अलग-सी थी। उनके जीवन में कितने ही उतार-चढ़ाव आए। उनका जीवन-संघर्ष रह-रहकर याद आया। मन के किसी कोने से आवाज सी आई – इनकी जीवनी लिखनी चाहिए, दूसरे मन ने ढांढस बंधाया- लिखेंगे। वक्त मिला तो जरूर लिखेंगे।

जून महीने में विचार आया- कभी क्यों लिखेंगे, अभी लिखेंगे। बरसी में आठ महीने का समय शेष था। टारगेट बांध लिया- बरसी पर रिलीज करेंगे। दूसरा सवाल जो आपका है, प्रतिक्रिया कैसी रही? कंटेंट भी कोई चीज होती है और उस पर माउथ पब्लिसिटी। पिछली पीढ़ी के पिताओं का संघर्ष कमोबेश एक जैसा था। फिर पर्वतीय जनजीवन और संस्कृति शेष हिस्सों से थोड़ा अलग-सी पड़ जाती है। और कॉमनमैन का संघर्ष तो शाश्वत् होता है। कई लोगों ने बताया उनमें प्रतिनिधि पिता की झलक दिखाई देती है।

एक सवाल ये भी पूछा गया कि होरी-धनिया-गोबर, बीसवीं सदी के पूर्वार्द्ध में उत्तर भारतीय निम्नमध्यवर्गीय किसान के प्रतीक बन गये थे। इसी तर्ज़ पर काऽरी के कथानायक मुकुंद राम रयाल, बीसवीं सदी के उत्तरार्द्ध के एक स्कूली शिक्षक के प्रतीक बन कर उभरते हुए दिखते हैं। ऐसा शिक्षक जिसकी छोटी-छोटी खुशियाँ हैं, छोटे-छोटे लक्ष्य।

घर और नौकरी दोनों मोर्चों पर चुनौतियाँ बड़ी हैं। जो, अल्पसंतोष, शांतिप्रियता और कर्मनिष्ठा जैसे सद्गुणों को भी कमजोरी मान फायदा उठाने वालों से भी घिरा रहता हो। काऽरी में ऐसा बहुत कुछ है जो कथानायक और उनके समकालीन शिक्षकों के जीवन में कॉमन रहा है। पर, ऐसा भी बहुत कुछ है जो विशिष्ट है, दुर्लभ है और अपनी मिसाल आप है। इस विशिष्टता को रेखांकित करने, पुनर्स्मरण करने और फिर लिपिबद्ध करने में अपनायी गयी आपकी रणनीति के बारे में जानने की जिज्ञासा है।

इस पर लेखक ने कहा, कि जैसा हमने पाया वे सरल, निर्लिप्त, निरपेक्ष, निष्कलंक, स्थितिप्रज्ञ इंसान थे। इस किताब में कहीं पर आया है कि वे स्वर्ग से निष्कासित देवता जैसे थे। वे जैसे थे, यथातथ्य लिखने की कोशिश की। अवसर कुछ ऐसा था कि सब कुछ रिकॉल होता चला गया। वे कर्मवाद के जीते-जागते उदाहरण थे। सब कुछ आता चला गया। फॉर्मेट में उनके जीवन की कुछ प्रमुख घटनाएं रेखांकित की। कृषि-पशुपालन में तो उनके प्राण बसते थे। शिक्षण उनका पेशा था। परिवार में सहधर्मिणी के नजरिए से बच्चों के नजरिए से लिखना शुरू किया तो उनका जीवनचरित आकार पाता चला गया।

पिता पर भी सवाल पूछा गया कि पिता पर बोलते, सोचते और लिखते हुए अक्सर दो ही भावों की संभावना होती है। एक ऋणी भाव। जैसा कि युधिष्ठर ने भी यक्ष को अपने उत्तर में बताया कि पिता ही है जो आकाश से ऊँचा है। दूसरा शिकायती भाव जो कि बड़े से बड़े नायकों को भी कभी न कभी रहा है। अमिताभ बच्चन भी एक बार इस भाव से गुजरे हैं। लेखन की बात करें तो इन दोनों भावों की आधारभूमि से भी लिखा जाता रहा है, और आगे भी लिखा जा सकता है। आपने इन दोनों ही भावों से अलग द्रष्टा-भाव से लिखा है। इसमें कथानायक की कमजोरियों को भी आपने कथा का हिस्सा बनाया है। जैसे ऑपरेशन थियेटर में अच्छे डॉक्टर को सिर्फ़ पेशेंट ही दिखता है, कोई रिश्ता या परिचय नहीं, ऐसे ही काऽरी के लेखक और कथानायक के बीच भी रहा होगा, ऐसा माना जा सकता है। ऋणी भाव ने पिता के निधन के तत्काल बाद आपको लिखने के लिए प्रेरित जरूर किया होगा। पितृवियोग का पहला साल और पिता की जीवनी के रूप में ऐसा तोहफा, जिसने लिटरली पिता का स्थान आकाश से भी ऊँचा कर दिया है। काऽरी की रचना-प्रक्रिया और आपकी रचनात्मक मनोदशा को लेकर ये मेरा दृष्टिकोण है। आपका पक्ष जानने की जिज्ञासा है।

जवाब में लेखक ने कहा, कि निष्पक्षता, तटस्थता को लेकर एक आग्रह-सा था। शुभचिंतकों की शिकायत थी कि उत्तम पुरुष, अन्य पुरुष में क्यों लिखा। जाहिर सी बात है रचना-प्रक्रिया के दौरान हम अंतर्मन से विह्वल-से थे, लेकिन जाहिर नहीं होने देना चाहते थे। निष्पक्षता बरतने की भरसक कोशिश की। यथासंभव कोशिश की कि इसमें पार्टी न बन जाऊं। जी कड़ा करके एक लकीर-सी खींच ली – जो भी हो, इसमें इन्वॉल्व नहीं होना है।

एक सवाल यह भी था कि काऽरी में कुछ ऐसे प्रसंग भी आए हैं, जो लेखन के हिसाब से पूरी तरह अनछुए हैं और बातचीत में भी अल्प-चर्चित। फिर भी उनका महत्व कम नहीं है। जैसे साइको सोमेटिक उपचार प्रसंग को ही लें। समकालीन शिक्षा-व्यवस्था से तुलना करें तो हम देखते हैं कि आज भी स्कूलों की साइको-सोमेटिक घटनाएँ, अखबारों में अक्सर दिख जाती हैं पर उनके उपचार के लिए गंभीरता कहीं नहीं दिखती। डॉक्टर इसे मास हिस्टीरिया कहके किनारे हो जाते हैं, तो मीडिया के लिए ये सनसनीखेज़ खबर हो जाती है। काउंसलिंग के भी अनेक सरकारी कार्यक्रम बनाये गये हैं, पर इस मुद्दे पर वो भी मौन हैं। दूसरी तरफ, काऽरी का कथानायक शिक्षक अपने ही स्किल से ऐसे किसी केस को कहीं रिफर नहीं करता है, न ही पैरेंट्स को बॉल पास करता है। वो स्वअर्जित स्किल से ऐसी हर समस्या का समाधान स्वयं करता है। रयालजी से मैं जानना चाहता हूँ कि हालांकि ह्यूमर के खूबसूरत प्रयोग से आपने इस प्रसंग को अत्यंत रोचक बना दिया है, फिर भी दुविधा तो रही ही होगी कि इस प्रसंग को अंधविश्वास को बढ़ावा देने वाला न मान लिया जाए।

इस पर लेखक का पक्ष ये रहा, कि जहां पर यह प्रसंग आया है, वहां पर लगभग दर्जन भर पंक्तियों में उन परिस्थितियों का खुलासा किया गया है। उसे आप डिस्क्लेमर भी मान सकते हैं। उसमें स्पष्ट तौर पर रेखांकित किया गया है कि यह रूढ़ियों-अंधविश्वासों से युक्त समाज था, जो सदियों से परंपराओं, अंधविश्वासों की मार सहता चला आ रहा था। तंत्र मंत्र साबर मंत्रों से इलाज होता था। यह उस समाज का सच है। जैसा था, वैसा लिखने की कोशिश की गई है।

काव्यांश प्रकाशन, से प्रकाशित काऽरी तु कब्बि ना हाऽरि का हाल ही में चौथा संस्करण निकलना इसकी लोकप्रियता को दर्शाता है। ये एक साधारण शिक्षक की असाधारण कथा है। एक ऐसे व्यक्ति की कथा जिसे ज्ञान की भूख थी और कर्मण्यता की प्यास; जिसने साधुओं की संगत में आवश्यकताओं को सीमित रखना सीखा जो निष्काम कर्मयोग की राह पर सहजता से चलता रहा जो संतति से बस इतनी अपेक्षा रखता था कि वे सन्मार्ग पर चल कर अच्छे इंसान बनें। ये कठिन चुनौतियों को शांति से जीतने की कथा भी है।

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