चक्रव्यूह : महाभारत के प्रसंग की विरासत के मंच पर यादगार प्रस्तुति

डी. आर. पुरोहित की टीम ने दर्शकों को किया मंत्रमुग्ध

अविकल उत्तराखंड 

देहरादून। रूरल एंटरप्रेन्योरशिप फॉर आर्ट एंड कल्चरल हेरिटेज यानी रीच संस्था की ओर से आयोजित किया जा रहे सालाना विरासत मेले में शनिवार को अपराह्न गढ़वाल के लोक रंगमंच की शानदार और यादगार प्रस्तुति “चक्रव्यूह” का मंचन हुआ। लोक रंगमंच के प्रख्यात हस्ताक्षर डॉक्टर डी. आर. पुरोहित के निर्देशन में हेमवती नंदन बहुगुणा केंद्रीय गढ़वाल विश्वविद्यालय के लोक कला निष्पादन केंद्र के स्नातक और स्नातकोत्तर छात्रों की बेहतरीन प्रस्तुति ने दर्शकों को मंत्रमुग्ध कर दिया।

बताते चलें विगत 27 अक्टूबर से ओएनजीसी के कौलागढ़ स्थित अंबेडकर स्टेडियम में विरासत का सालाना उत्सव चल रहा है। रीच के इसी मंच से पहली बार चक्रव्यूह का पहली बार विद्याधर श्री कला के बैनर पर मंचन हुआ था।

चक्रव्यूह मूलतः महाभारत का एक प्रसंग है। महाभारत युद्ध के 13वें दिन आचार्य द्रोण चक्रव्यूह की रचना करके पांडवों को उसको भेदने का न्यौता भिजवाते हैं। चक्रव्यूह का भेदन आचार्य द्रोण के अतिरिक्त केवल अर्जुन जानता है लेकिन उस दिन अर्जुन कृष्ण के साथ संसप्तक के युद्ध में गया है। इस पर अभिमन्यु युद्ध में जाने की जिद करता है। युधिष्ठिर और भीम उसे समझाते हैं कि उसकी आयु कम है, छल से युद्ध करने वाले कौरवों से निपटना आसान नहीं है किंतु अभिमन्यु भरोसा दिलाता है कि उसने मां के गर्भ में चक्रव्यूह भेदने की कला सीख ली थी, केवल आठवें द्वार को भेदने की कला नहीं समझ पाया क्योंकि जब अभिमन्यु की मां सुभद्रा को चक्रव्यूह भेदने की कला समझा रहे थे, अंतिम समय में सुभद्रा को नींद आ गई। आखिरकार पांडव उसे युद्ध में जाने की अनुमति दे देते हैं। अपने पराक्रम से अभिमन्यु सातवें द्वार तक सफलता से पहुंच जाता है लेकिन दुर्योधन के पुत्र लक्ष्मण के मारे जाने के बाद दुर्योधन समझौते की बात कह कर अभिमन्यु के अस्त्र शस्त्र लेकर छल से उसका वध करवा देता है।

यह कथानक सर्वविदित है किंतु लोक रंगमंच की विशिष्ट शैली में डॉक्टर पुरोहित ने जिस अंदाज में प्रस्तुत किया, उससे उत्तराखंड के लोक रंगमंच की उपस्थिति का भी बोध होता है। इस प्रस्तुति में अभिमन्यु की भूमिका अंकित भट्ट ने निभाई। उनका अभिनय निसंदेह सराहनीय था। अंकित भट्ट पहली बार मुक्ताकाशी थियेटर पर अपनी शानदार उपस्थिति दर्ज कराने में सफल रहे। अन्य कलाकारों में विनोद कुमेड़ी, गौरव नेगी, अरविंद टमटा आदि ने भी अपेक्षा के अनुरूप खूब रंग जमाया। प्रस्तुति के प्रमुख तत्त्व ढोल वादन में अखिलेश दास और उनकी टीम ने गजब का समां बांधा। इसके अलावा बांसुरी पर महेश कुमार विशेष भावपूर्ण माहौल बनाने में सफल रहे। संगीत पक्ष में गायन का संयोजन डाॅ.संजय पाण्डे ने संभाला। उनके साथ डाॅ.शैलेन्द्र मैठाणी, गोकरण बमराडा तथा मनीष खाली ने उत्तराखंड की विशिष्ट शैली की छाप छोड़ी। साथ ही महिला गायकों ने भी संगत देकर नृत्य नाटिका की भावभूमि को संपूर्णता दी।

इसके साथ ही हुड़का और मोछंग वादन से रामचरण जुयाल ने अपने विशिष्ट वादन से वातावरण निर्माण में खास योगदान दिया। हरीश पुरी, अभिषेक बहुगुणा, पंकज गैरोला, ज्योतिष घिल्डियाल और हरीश पुरोहित लगभग सभी कलाकार अपने अभिनय की छाप छोड़ने में सफल रहे। पूर्व विधायक जोत सिंह गुनसोला तथा मसूरी नगरपालिका के पूर्व अध्यक्ष मनमोहन मल्ल इस मौके पर विशिष्ट अतिथि थे। उन्होंने सभी कलाकारों को स्मृति चिन्ह देकर सम्मानित किया।27 रीच के मंच पर दी गई यह प्रस्तुति दर्शकों को लम्बे समय तक याद रहेगी।

पाठकों को याद दिला दें, चक्रव्यूह के लोकमंच को पहली बार 1901 में केदारघाटी के कंडारा गांव में चंद्र सिंह बुटोला और बचनराम आर्य ने पहली बार आंगन से विस्तृत खेत में पहुंचा कर पंडवानी, पारसी थियेटर और लोक की देशज शैली में मंचित किया था। तब कुछ ही गांवों के लोगों के पास इसकी विशेषज्ञता थी। पिछली शताब्दी में नब्बे के दशक में डॉक्टर डी. आर. पुरोहित, सर्वेश्वर दत्त कांडपाल और कृष्णानंद नौटियाल ने इसे परिमार्जित किया। तब भी रीच के सहयोग से ही सुरेश काला के निर्देशन में गांधारी गांव में इसका मंचन कर अभिनव प्रयोग किया गया, जिसे दर्शकों ने हाथोंहाथ लिया और तब से यह लोक में गहरे तक रच बस गया। डॉक्टर पुरोहित के नेतृत्व में ही अब तक चक्रव्यूह के करीब 200 मंचन हो चुके हैं और कतिपय अन्य लोग भी इस विधा और स्क्रिप्ट को अपना कर लोकरंजन कर रहे हैं।

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