नंद किशोर हटवाल
‘‘जैसे हमारे राज्जा-माराज्जाओं का इत्यास होता है वैसे ही हमारे लारा-लत्तों का बि इत्यास है, गुरूजी।’’ कैलाश भट्ट कहते।
पहाड़ी लोकपरिधान, वस्त्र विन्यास के लिए समर्पित, ड्रेज डिजायनर। आधुनिकता की चकाचौंध में विलुप्त होते पहाड़ी परम्परागत परिधानो को पुनर्जीवन देने वाले। फकीर, जुनूनी, दीवाना, साहित्य, संस्कृति, कलाप्रेमी। प्यारा, आत्मीय इंसान। हस्तशिल्पी कलावंत। कविताओं और गीतों के मुरीद।
लेखन का शौक। शायद इसी मिलाज ने कैलाश भाई को वस्त्रों की पुनर्रचना की ओर खींचा हो। जब भी कोई नया वस्त्र तैयार करते तो वो भी एक कविता होती। नई रचना की तरह पेश करते।
पिछले बीस-पच्चीस सालों से निरन्तर सम्पर्क था कैलाश भाई से। बच्चों की तरह उत्साह और युवाओं की तरह उर्जा से भरे हुए। देहरादून आते तो फोन जरूर आता। मुलाकात जरूर करते। घण्टाघर पर भी शोरूम खोल दिया था। पहाड़ी आभूषणों का संग्रह भी शुरू कर दिया था।
गोपेश्वर कर्मस्थली थी। ‘अक्षत नाट्य संस्था से दिल जुड़ा था। एक बार आई.टी.आई रूड़की में नौकरी लगी पर मगर मन नहीं लगा। वापस गोपेश्वर चले गए। हल्दापानी में छोटी सी टेलरिंग की दुकान से जीविका चलाने वाले बहुत बड़ी सोच, दृष्टि रखने वाले कैलाश भाई। उत्तराखण्ड के सांस्कृतिक आयोजनो में सर्वत्र अपनी टोपी, जुनून और पैशन के साथ उपस्थित रहते।
उनके द्वारा डिजायन पहाड़ी गोल टोपी ने उन्हें पहचान दिलाई। लेकिन इसके अलावा उन्होंने कई पहाड़ी परम्परागत परिधानो की खोज की और उन्हें पुनर्जीवन दिया। थोड़ी आधुनिकता और अपनी रचनात्मकता के साथ।
पुरूष परिधानों में- मिरजई, झगोटा, सदरी, गत्यूड़, सल्दराज, बुखलि, कांचुली, फत्वै, दौखु, अंगरखा, पंखुला, त्यूंखु, गंजी, लंगोट, जंग्या, अगोछा, गोल ट्वोपुली, लम्बी ट्वोपुली, रेपदार सुलार, पट्टादार सुलार, चूड़िदार सुलार, बाजरीदार सुलार, गमछा, हुण्या च्वोलि आदि प्रमुख हैं।
महिलाआें के परिधानो में- आंगड़ी, सदरी, च्वोलि, फतोगि, कुर्ती, ग्त्यूड़ा, झगुली, जम्फर, टम्परैलु, लवा, बिलोज, पाखि, घाघरा, तिकबन्धा, खुंडेलि, साफा, मुण्डेसि, खंड आंगड़ि आदि प्रमुख थे।
मैं उन्हें परिधानो पर किताब लिखने के लिये उकसाता। जब भी मिलते कहते, ‘‘लिख रहा हूं। ‘कमीण का जामा’ नहीं मिल रहा। सौब जगा ढूंढ दिया। क्या होगा!’
वो अपने आप में, अपनी तरह के, अपनी तरह से काम करने वाले अकेले थे। उन्होंने लोक परम्पराओं और संस्कृतिकर्म में एक उपेक्षित, अनाकर्षक, अनग्लैमरस काम को ग्लैमरस बना दिया था। कमतर समझे जाने वाले एक हस्तशिल्प और व्यवसाय को गरिमा प्रदान की। जिसकी कि आज उत्तराखण्ड के लिए सख्त जरूरत है। हाशिए पर लुड़के, भूले-बिसरे, अचर्चित, उपेक्षित पड़े लोक परिधानों को केन्द्र में खड़ा कर दिया। कैलाश भाई वो सोच रहे थे जो कोई नहीं सोच रहा था।
पर अचानक…सबकुछ थम गया।
बहुत नुकसान हो गया, उत्तराखण्ड का…गोपेश्वर का। उनके घर-परिवार का जो हुआ सो अलग। शोक की इस घड़ी में परिजनो को इस दुख को सहने की असीम शक्ति के अलावा भी अपनी तरह के मोर्चे पर तैनात अकेले इस लोकशिल्पी के लिए कुछ किया जा सकता है? सरकारी-गैर सरकारी स्तर पर?
श्रद्धांजलि!!!
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…तो ऐसे बना उत्तराखंडी सिनेमा का पहला होली गीत
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