स्मृति शेष- अंधेरे में लड़ी जा रही लड़ाई और बसंत की दस्तक

उसने कभी लिखा था-
‘अब मैं मार दिया जाऊंगा
उन्हीं के नाम पर
जिनके लिए संसार देखा है मैंने’

व्योमेश जुगरान, वरिष्ठ पत्रकार

…और सचमुच वह मार दिया गया। वह मरा भी उन्हीं के नाम पर, जिनके लिए उसे संसार देखने की ख्वाहिश थी। उसकी मौत एक छोटे से पहाड़ी शहर में हुई, पर चीख देश भर में सुनायी दी। वह पत्रकार और कवि था लेकिन महानगरीय पत्रकारिता की व्यावसायिक संस्कृति से अलग उन जुझारू और हिम्मती लोगों में से था, जिनकी पत्रकारिता जनसंघर्षों की वाहक बनती है। उसने महानगर के कथित ग्लैमर से दूर एक छोटे से कस्बे में पत्रकारिता के लिए लघुतम जगह की तलाश की और अपने आसपास के समाज से जुड़े संगीन सवालों को चुन-चुन कर उठाया। आहिस्ता-आहिस्ता उसके यही सवाल संघर्ष की शक्ल लेने लगे और एक दिन अचानक पता चला कि वह लापता है।


उत्तराखंड में युवा पीढ़ी के सर्वाधिक चर्चित पत्रकार 36 वर्षीय उमेश डोभाल की इस तरह अचानक गुमशुदगी चैंकाने वाली थी। इसलिए भी कि वह पहाड़ में शराब के ठेकदारों और शासन तंत्र की मिलीभगत के खिलाफ लगातार कलम चला रहा था। उमेश को ढूंढ़ निकालने के लिए जब पत्रकार संगठनों ने राष्ट्रीय स्तर पर मांग की और संसद में सवाल उठा तो मामला सीबीआई के सुपुर्द कर दिया गया। शुरुआती जांच-पड़ताल के बाद जो सनसनीखेज सच सामने आया वह था- शराब माफिया के हाथों उमेश का कत्ल।


यह हत्या 25 मार्च 1988 को गढ़वाल मंडल के मुख्यालय पौड़ी में हुई थी। उमेश डोभाल का इस तरह से मारा जाना पहाड़ के संघर्षशील समाज की वह पहली घटना थी जिसने वहां के शांत जनजीवन में जड़ों तक पैठ बना चुके शराब माफिया के सफेदपोश चेहरे से नकाब उलट दिया और शासनतंत्र से माफिया की मिलीभगत के कई चैंकाने वाले रहस्य भी खोले। लोगों को पहली बार अहसास हुआ कि कुछ ही साल पहले तक पहाड़ में छोटे-छोटे अपराधियों द्वारा किया जाने वाला टिंचरी का धंधा किस कदर विकसित होकर एक संगठित और खौफनाक तंत्र का रूप ले चुका है।


दरअसल, शराब के धंधेबाजों को पहाड़ में ‘थैली’ के बदले राजनीतिक संरक्षण मिलता रहा है। विकास के नाम पर बिछाये गये सड़कों के जाल ने शराब से भरे ट्रकों को दूरदराज के उन गांवों तक भी पहुंचा दिया जहां की गरीबआबादी नून-तेल को भी मोहताज थी। उमेश डोभाल ने इस स्थिति पर अपनी रिपोर्ट में लिखा था- ‘शराबखोरी का सबसे बुरा नतीजा यह हो रहा है कि यहां की आबादी के एक बड़े भाग की लड़ने की धार कुंद पड़ जाना, जिसकी आज के संकटग्रस्त समाज में अति आवश्यकता है। नशाखोरी के खिलाफ छेड़ी गई कोई भी मुहिम या उसकी तैयारी देश में बड़े पैमाने पर चलने वाली व्यवस्था बदल की लड़ाई से अलहदा होकर नहीं लड़ी जा सकती। यदि इसके विरोध में ठोस सिलसिलेवार लड़ाई छेड़ी गई तो जनता के बीच आत्मोत्सर्ग करने वाले जांबाजों की कमी नहीं है।’

आत्मोत्सर्ग करके उमेश ने अपनी बात तो साबित कर दी, परंतु वह अपने पीछे सवालों की एक लंबी फेहरिस्त छोड़ गया। क्या सचमुच आज पत्रकारिता में उमेश जैसे जांबाजों की कमी हो गई है? जिन सवालों पर कलम चलाई जा रही है, उसका आत्मोत्सर्ग मांगने वाले मुद्दों से कितना संबंध है? उमेश के लिए पत्रकारिता आजीविका का उद्देश्य नहीं, आंतरिक जरूरत और जीने का मकसद थी। तेईस साल की उम्र में ‘बिजनौर टाइम्स’ से पत्रकारिता की शुरुआत करने के बाद वह ‘नवभारत टाइम्स’ और ‘जनसत्ता’ जैसे राष्ट्रीय दैनिकों से भी जुड़ा लेकिन लड़ने की असली ताकत और खास किस्म का जुझारूपन उसने ‘नैनीताल समाचार’ और अपने कस्बे पौड़ी से कुछ युवकों के साथ मिलकर शुरू किये गये ‘पौड़ी टाइम्स’ जैसे स्थानीय अखबारों से पाया। जब उसकी हत्या हुई, उस वक्त वह ‘अमर उजाला’ का गढ़वाल कार्यालय संवाददाता था। उमेश ने कुछ दिनों तक ‘अमर उजाला’ के मेरठ संस्करण में संपादकीय विभाग में भी काम किया। लेकिन यह बंधी-बंधाई पत्रकारिता उसके स्वभाव में थी ही नहीं। कुछ ही दिनों में छोड़छाड़ कर वापस आ गया।

उमेश जब भी याद आता है, सच के पीछे दौड़ लगाता और हमेशा कलम की भाषा में बतियाता भूरी आंखों वाला उसका चेहरा सामने आ जाता है। पहाड़ और पहाड़ की समस्याओं के प्रति उसके भीतर एक हूक हमेशा नजर आती थी। यह बात सच है कि उसकी मौत के बाद पहाड़ में शराब माफिया के हौसले पस्त हुए और उनका कारोबार ठंडा पड़ गया है। सरकार की नीति भी बदली और शराब के ठेके निजी ठेकेदारों से छीन कर शुगर फेडरेशन को दे दिए गए। लेकिन असल समस्या जहां की तहां है।

बल्कि कहना चाहिए कि खतरा और बढ़ गया है। माफिया तंत्र बिखर कर छोटे-छोटे गुटों में बंट गया है जिन्होंने अपना कारोबार शहरों से अलग दूर-दराज के गांवों में सिकोड़ लिया है। जिन स्थानों के लिए शराब की दुकानें स्वीकृत हैं, वहां से दूर पहाड़ों में दूसरे स्थानों पर शराब के अवैध धंधे तेजी से बढ़ रहे हैं। शराब का सबसे बुरा असर क्षेत्र की नौजवान पीढ़ी पर पड़ रहा है। पहाड़ों में सेना के भर्ती कार्यालयों के ताजा आंकड़े इस बात के गवाह हैं कि पहाड़ी नवयुवकों को फौज में भर्ती करना कठिन होता जा रहा है क्योंकि सेहत के न्यूनतम मानदंड पर वे खरे नहीं उतर पा रहे हैं।

यहां यह सवाल नहीं पूछा जाना चाहिए कि आखिर उमेश डोभाल ने क्यों एक छोटे से शहर में रहकर शक्तिशाली शराब लॉबी के खिलाफ अकेले ही लड़ाई छेड़ने का जोखिम उठाया? जबकि वह जानता था कि उसे मार दिया जायेगा। उमेश का मारा जाना अवतार सिंह ‘पाश’, सफदर हाशमी और शंकर गुहा ‘नियोही’ जैसे कत्ल कांडों की ही श्रेणी में था। इन मौतों पर जब भी कुछ लिखा या कहा जायेगा, उसकी इबारत एक सी होगी। समाज के विभिन्न क्षेत्रों में सक्रिय माफिया तंत्र के खिलाफ इन लोगों के पास संघर्ष का जो भी जरिया था, उसमें पूरी शक्ति लगा देना ही उन्होंने लक्ष्य चुना। उनकी शहादतों को बाद में उतने मजबूत कंधे भले ही न मिले हो, परंतु एक सतत संघर्ष को जिन्दा रखने में उनकी भूमिका से इनकार नहीं किया जा सकता। ‘पाश’ ने लिखा था-
‘सबसे खतरनाक होता है
मुर्दा शांति से मर जाना’

लगभग इसी तर्ज पर उमेश कहा करता था-
‘अंधेरे में जहां आंख नहीं पहुंचती
लड़ी जा रही है लड़ाई
खामोश हलचलें अन्दर ही अन्दर
जमीन तैयार कर रही हैं
जागो, बसन्त दस्तक दे रहा है।’

वरिष्ठ पत्रकार व्योमेश जुगरान ने विभिन्न राष्ट्रीय अखबारों नवभारत टाइम्स, हिंदुस्तान में उच्च पदों पर काम किया। पौड़ी में पत्रकार उमेश डोभाल व शराब माफिया के संघर्ष को करीब से देखा और महसूस किया। 25 मार्च को पत्रकार उमेश डोभाल की पुण्यतिथि गुजरी। आज उमेश डोभाल हत्याकांड को 34 साल हो गए। लेकिन जख्म व मुद्दे अभी भी ताजा हैं..

Pls clik

देव भूमि उत्तराखण्ड विश्वविद्यालय के बोर्ड ऑफ गवर्नर्स का गठन

Total Hits/users- 30,52,000

TOTAL PAGEVIEWS- 79,15,245

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *