गढ़वाली फिल्म मेरू गौं – सिसकते, उजड़ते और कराहते गांव की दास्तान


एक ऐसी गढ़वाली फिल्म, जो गांवों की चिंता करती है, सुलगते सवाल उठाती है


विपिन बनियाल


-पहाड़ के गांव उजड़ रहे हैं। सिसक रहे हैं। पलायन और सिस्टम की उन पर दोहरी मार पड़ रही है। परिसीमन से गांवों के वजूूद पर आने वाले दिनों में और बड़ा संकट मंडरा रहा है। फिल्म मेरू गौं में राकेश गौड़ और अनुज जोशी की जोड़ी उत्तराखंड के तमाम सुलगते सवालों को लेकर सामने आई है। एक सुंदर समृ़द्ध गांव के उजड़ने की कहानी हैं मेरू गौं, जो किसी को भी झकझोरने और रूला देने का माद्दा रखती है।


दो दिसंबर 2022 को रिलीज हुई मेरू गांव फिल्म बेहतर टीम वर्क का उदाहरण है, जहां कलाकारों का सधा हुआ अभिनय एक गंभीर विषय पर आधारित फिल्म को सफलतापूर्वक आगे ले जाता है। राकेश गौड़ फिल्मी पर्दे के नायक हैं और उन्होंने कमाल का काम किया है, लेकिन पर्दे के पीछे उतना ही कमाल निर्देशक अनुज जोशी ने किया है।

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फिल्म की कहानी का सारा ताना बाना भी उन्होंने ही एक कुशल कारीगर की तरह बुना है। पलायन, गांवों की दुर्दशा, परिसीमन से पैदा होने वाले खतरे, भाषा आंदोलन और गैरसैंण राजधानी के सवाल को फिल्म धारदार तरीके से उठाती हैं। गैरसैंण राजधानी केे सवाल को तो फिल्म एक नए नजरिये के साथ पेश करती है, यह अलग बात है कि कौन इस नजरिये से सहमत है या नहीं। पहाड़ से जुडे़ सरोकारों पर फिल्म राष्ट्रीय से लेकर क्षेत्रीय राजनीतिक दलों तक पर प्रहार करती है। उत्तराखंड राज्य गठन के बाद भी विकास की भटकी हुई डगर पर फिल्म सटीक टिप्पणी करती है।


निसंदेह, मेरू गौं एक गंभीर फिल्म है। गंभीर बातें करती है, लेकिन मनोरंजन के तड़कों के बीच। यह मनोरंजन की छोटी-छोटी बातें गांव के सौहार्दपूर्ण और जीवंत माहौल को सामने रखने में मददगार साबित होते हैं। गांव के खुशहाली के पुराने दिनों की याद के बीच ये छोटी-छोटी बातें फिल्म में अलग असर छोड़ती है।


फिल्म का संगीत संजय कुमोला ने तैयार किया है, जबकि गाने जितेंद्र पंवार ने लिखे हैं। जितेंद्र पंवार ने फिल्म में अपने हिस्से के गाने भी गाए हैं, लेकिन गीत-संगीत के लिहाज से फिल्म का सबसे बड़ा जो आकर्षण है, वह नरेंद्र सिंह नेगी हैं। नेगीदा ने फिल्म के लिए एक गाना गाया है, जो किसी तोहफे से कम नहीं है।


मेरू गौं फिल्म अनुज जोशी की उस छवि का भी विस्तार है, जो कि उन्हें एक संवेदनशील निर्देशक के तौर पर स्थापित करती रही है। तेरी सौं, याद आली टिहरी, मनस्वाग, कमली, काफल, कभी त खुलली रात जैसी तमाम फिल्मों के निर्देशक रहे अनुज जोशी ने मेरू गौं में भी बेहतरीन काम किया है।

वे उत्तराखंड राज्य आंदोलनकारी रहे हैं। इसलिए उत्तराखंड की दशा, दिशा से जुडे़ तमाम सुलगते सवाल मेरू गौं में भी पूरी शिद्दत से मौजूद हैं।
गढ़वाली फिल्म मेरू गौं के विचार को पर्दे में उतरने में करीब तीन साल का वक्त लगा है। फिल्म की ज्यादातर शूटिंग पौड़ी जिले में हुई है। कुल मिलाकर मेरू गौं फिल्म पलायन से पहाड़ की दुर्दशा की असरदार अभिव्यक्ति है। उत्तराखंड के सुलगते सवालों पर फिल्म बेबाकी से बात करती हुई दिखती है।

उत्तराखंड राज्य निर्माण से पूर्व की अपेक्षा और मौजूदा सच्चाई पर फिल्म आम जनमानस की आवाज के साथ अपनी आवाज मिलाते हुए चलती है। आंचलिक सिनेमा की पहले से ही कमजोर होती स्थिति के बीच, इस तरह के गंभीर विषय पर कोई फिल्म बनाना सचमुच बड़ा काम माना जाएगा। इस फिल्म से जुड़ी पूरी कहानी यदि आप देखना चाहते हैं, तो यू ट्यूब चैनल धुन पहाड़ की के इस वीडियो को जरूर देखें।

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